OMG! एक ऐसा देश, जहां मच्छर भी मारना कहलाता है पाप…
‘रात के वक्त यहां बहुत मच्छर होते हैं। हम बाहर नहीं रह सकते हैं’। युवा माधवी शर्मा मुस्कुराते हुए ये बात बताती हैं। उनका परिवार धान की खेती करता है और जानवर पाल कर अपना गुजर-बसर करता है। माधवी, भूटान के दक्षिणी इलाके में स्थित गांव समटेलिंग की रहने वाली हैं। माधवी का परिवार शाम का वक्त किचेन में गुजारता है। वहां वो खुले चूल्हे में खाना पकाते हैं। इसके धुएं से कीड़े-मकोड़े भाग जाते हैं।
माधवी शर्मा ने दसवीं तक पढ़ाई की है। वो भी मुंहजबानी और सरकारी अभियानों की मदद से उन्हें मलेरिया और उन्हें डेंगू के खतरों का अच्छे से अंदाजा है। दोनों ही बीमारियां मच्छरों से फैलती हैं। माधवी का परिवार कभी भी अपनी रिहाइश के आस-पास पानी नहीं रुकने देता। वो मच्छरदानी लगाकर सोते हैं, जिन्हें सरकार की तरफ से बांटा गया है। माधवी के 14 महीने के बच्चे के लिए एक खटोला है। उसमें भी मच्छरदानी लगी हुई है।
शर्मा परिवार के घर में साल में दो बार कीटनाशकों का छिड़काव होता है। परिवार ने घर की दीवारों पर मिट्टी और गोबर का लेप लगा रखा है। घर की दीवारों के बीच दरारें हैं। इस वजह से मच्छरदानी की जरूरत और बढ़ जाती है।
भूटान में मलेरिया कितनी बड़ी समस्या थी
मच्छरदानी, कीटनाशकों का छिड़काव और लोगों को मच्छरों के खतरे के प्रति जागरूक करना, सब भूटान सरकार के मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम का हिस्सा है। ये कार्यक्रम 1960 के दशक में शुरू हुआ था, लेकिन इसका असर 1990 के बाद दिखना शुरू हुआ।
1994 में भूटान में मलेरिया के 40 हजार से ज्यादा मामले सामने आए थे। इन मरीजों में से 68 की मौत हो गई थी, लेकिन 2018 के आते-आते मलेरिया के केवल 54 केस सामने आए। इनमें से भी केवल 6 ही भूटान के मूल निवासी थे। मलेरिया से भूटान में 2017 में 21 साल के एक सैनिक की मौत हो गई थी। ये सैनिक भूटान की भारत से लगने वाली सीमा पर तैनात था। वो अस्पताल इतनी देर से पहुंचा था कि डॉक्टर उसे नहीं बचा सके।
मलेरिया की वजह से लोगों के काम करने की क्षमता घट जाती है। उनकी खुशहाली कम हो जाती है और बहुत बिगड़े मामलों में जान भी चली जाती है। इसीलिए, भूटान के अधिकारी इस बीमारी को अपने देश से जड़ से मिटाने की मुहिम चला रहे हैं, लेकिन इस मिशन में कामयाबी के लिए भूटान को अपने विशाल पड़ोसी भारत से सहयोग की जरूरत होगी।
जब कोई देश मलेरिया से मुक्त होता है, तो ये जश्न की बात होती है। एक दशक में गिने-चुने देश ही ये कामयाबी हासिल कर पाते हैं। इससे देश के संसाधन दूसरी बीमारियों से लड़ने के काम आते हैं।
फिर, परजीवी कीटाणुओं का समूल नाश करने से उनके अंदर दवाओं से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता भी नहीं विकसित हो पाती है, क्योंकि मलेरिया से लड़ने के लिए गिनी-चुनी दवाएं ही उपलब्ध हैं।
मलेरिया से लड़ाई में क्या है चुनौतियां?
भूटान को ये देखने की भी जरूरत है कि क्या वो मलेरिया मुक्त देश बनने की मंजिल तक पहले भी पहुंच सकता था? इस बीमारी से लड़ने की कोशिश कर रहे भूटान की एक धार्मिक चुनौती भी है। एक बौद्ध देश होने की वजह से भूटान में किसी भी जीव को मारना पाप माना जाता है। भले ही वो बीमारी फैलाने वाला कीटाणु ही क्यों न हो। ऐसे में मलेरिया से बचने के लिए दवाएं छिड़कने वाले अधिकारियों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता था।
भूटान के पहले कीट वैज्ञानिक रिनजिन नामगे उन दिनों को याद कर के बताते हैं, ‘हम लोगों को ये समझाते थे कि हम तो बस दवा छिड़क रहे हैं। अब कोई मच्छर यहां आकर खुदकुशी करना चाहता है, तो उस में कोई क्या कर सकता है।’
आज से कई दशक पहले छिड़काव करने वालों को घरों के भीतर कई बार तो जबरदस्ती घुसना पड़ता था, क्योंकि लोग विरोध करते थे। जब हमारी मुलाकात ड्रक डायग्नोस्टिक सेंटर की ऑफिस मैनेजर डेनचेन वांगमो से हुई, तो बड़ा दिलचस्प वाकया हुआ। जब हमने पूछा कि क्या हम किसी तिलचट्टे को पैर से दबा सकते हैं, तो डेनचेन ने कहा कि कतई नहीं।
उन्होंने कहा, ‘ऐसा करना पाप है। हालांकि वो बाद में हंस पड़ीं। डेनचेन, भारत से रोज भूटान मजदूरी करने आने वालों की पड़ताल करती हैं। जांच ये होती है कि कहीं वो अपने साथ मलेरिया के परजीवी तो नहीं ला रहे हैं।’
मलेरिया पीड़ित को अस्पताल में रहना पड़ता है
अगर किसी मरीज को सिफलिस नाम की बीमारी का शिकार पाया जाता है, तो उसे वापस कर दिया जाता है। अगर कोई भारतीय कामगार मलेरिया से पीड़ित होता है, तो उसे तीन दिन तक अस्पताल में रहना होता है, ताकि उसका सही इलाज हो सके।
बहुत से भारतीय मजदूर, मलेरिया के कीटाणु पाए जाने पर भूटान की सीमा से लौट आते हैं, क्योंकि तीन दिन अस्पताल में रहने का मतलब उनके लिए तीन दिन की मजदूरी गंवाना होता है।
भूटान से लगे हुए असम में जातीय हिंसा की वजह से बड़ी तादाद में लोग भाग कर भूटान में पनाह लेते थे। इसकी वजह से मलेरिया उन्मूलन का अभियान बहुत प्रभावित हुआ था। कई बार इलाज करने वाले डॉक्टरों को पीटा गया और कुछ को तो जान से मारने की धमकी भी दी गई।
2016 तक भूटानी नागरिकों को वसूली के लिए अगवा भी किया जाता था। फिर भूटान और भारत के अधिकारियों के बीच आपसी सहयोग भी नहीं होता। भारत के लोगों को लगता है कि भूटान में पनबिजली की जो परियोजनाएं बन रही हैं, उनसे भारतीय इलाकों में बाढ़ आया करेगी।
भूटान और भारत का रिश्ता बहुत संवेदनशील भी है और पेचीदा भी। भूटान में जो पनबिजली परियोजनाएं लग रही हैं, उनसे बनने वाली बिजली का फायदा ज्यादातर तो भारत को ही मिलेगा।
हालांकि अब दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ रहा है। भूटान के मलेरिया और परजीवी रोग विशेषज्ञ टोबग्याल कहते हैं कि उनके कुछ मरीज तो उनके हाथों में मरे थे। अब वैसा नहीं होता।
मलेरिया उन्मूलन में भूटान ने जितनी तरक्की की है, उतनी भारत में नहीं हुई है। लेकिन, भूटान छोटा सा देश है। यहां गरीबी उन्मूलन में कामयाबी ने मलेरिया से निपटने में भी मदद की। यूं तो भूटान दुनिया के सबसे कम विकसित देशों में से है, लेकिन जल्द ही वो भारत की तरह मध्यम आय वर्ग वाला देश बन जाएगा।
भूटान के गेलेफू रीजनल अस्पताल के मेडिकल सुपेरिंटेंडेंट दोरजी शेरिंग कहते हैं कि भूटान ने मलेरिया से जिस तरह मुकाबला किया है, वो कई देशों के लिए सबक है। सबसे बड़ा तजुर्बा तो ये है कि बीमारी के कीटाणु ले जाने वाले जीवों का नियंत्रण, जैसे कि मलेरिया के मच्छर।
भूटान को इस काम में ग्लोबल फंड टू फाइट एड्स, टीबी ऐंड मलेरिया से भी आर्थिक मदद मिली थी। हालांकि जब उसे मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया जाएगा, तब ये मदद नहीं मिलेगी।
भूटान की कामयाबी की एक वजह सियासी प्रतिबद्धता भी थी। सरकार ने मजबूत इरादे के साथ अभियान चलाया। फिर सामाजिक संगठनों को भी इससे जोड़ा गया। दोरजी शेरिंग कहते हैं कि हर एक इंसान ने अपने रोल की अहमियत और जिम्मेदारी समझी।
कामयाबी की वजह यहां के संस्कार
भूटान के मुकाबले भारत में मलेरिया के बहुत से मामले हर साल सामने आते हैं। 2018 में भारत का हर 265वां इंसान मलेरिया का शिकार हुआ। हालांकि इससे पहले के साल से ये आधा ही था।
भूटान की कामयाबी की वजह यहां के संस्कार हैं। यहां के नागरिक आमतौर पर कानून का पालन करने वाले हैं। सब को देश की तरक्की में योगदान देने का हक भी है और लोग जिम्मेदारी भी समझते हैं।
इसके मुकाबले भारत में ऐसा माहौल नहीं है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत घर-घर में मलेरिया की दवा का छिड़काव करने के मिशन में भी सफल नहीं हो सका है।
भूटान में सब के लिए इलाज की मुफ्त व्यवस्था है। फिर चाहे वो भूटान के नागरिक हों या किसी और देश के।
मलेरियाः भूटान के मुकाबले भारत कहां?
वहीं भारत में ऐसा नहीं है। असम के टुकराझार के रहने वाले प्रमोद नरजरी को पिछली बार जब मलेरिया हुआ था, तो वो बच्चे थे। वो कहते हैं कि भारत के सरकारी अस्पतालों की हालत खस्ता है। प्रमोद खुद को खुशनसीब मानते हैं कि उनके गांव के पास ही एक अस्पताल है और गांव मे एक क्लिनिक भी है। ऐसा नहीं होता तो वो किसी सरकारी अस्पताल में जाने के बजाय निजी अस्पताल में ही जाना पसंद करते। भूटान से लगी सी सीमा पर रहने वाले कई भारतीय तो इलाज के लिए भूटान जाते हैं।
भूटान में अब वहीं मलेरिया के मामले सामने आ रहे हैं, जो भारतीय सीमा से लगे हैं। सीमा के आर-पार बीमारी के विस्तार का मामला सिर्फ मलेरिया तक सीमित नहीं है। अफ्रीका के कॉन्गो और युगांडा के बीच इबोला वायरस की आमद-ओ-रफ्त भी इसकी एक मिसाल है।
सीमा पर मलेरिया की बीमारी की वजह से कई देश इस पर पूरी तरह से काबू नहीं पा सके हैं, जैसे कि सऊदी अरब और यमन, हैती और डोमिनिकन रिपब्लिक, चीन और म्यांमार। मलेरिया का जड़ से खात्मा करने के लिए जरूरी है कि इस मामले में रियायत न बरती जाए।
भूटान के साथ दिक्कत ये है कि वो मजदूरों और दूसरे संसाधनों के लिए भारत पर निर्भर है। तो, वो सीमा पार से आवाजाही पूरी तरह से बंद नहीं कर सकता। इसलिए सरहद पर तैनात बीमारी से लड़ने वाले प्रहरियों की सजगता ही इस बीमारी के खात्मे का पहला मोर्चा हैं।
यूं तो भारत और भूटान, दोनों ही मलेरिया से मुकाबला कर रहे हैं और इसके खात्मे के करीब हैं। लेकिन, अगर दोनों आपसी सहयोग से काम लेते, तो ये सफर और जल्दी तय हो जाता।