इस मंदिर में हर रात महाकाली करती है विश्राम, कुमाऊं रेजीमेंट की देवी है मां हाट कालिका
माना जाता है कि देवभूमि उत्तराखंड में साक्षात देवी देवताओं का वास है। इसी उत्तराखंड में एक ऐसा मंदिर भी है, जहां कहा जाता है कि हर रात महाकाली विश्राम करने के लिए पहुंचती है। मंदिर से जाने के बाद हर सुबह उनके रात्रि विश्राम के प्रमाण मिलते हैं। ये स्थान है उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद की गंगोलीहाट तहसील महाकाली का हाट कालिका मंदिर है। बताते हैं कि इसी मंदिर के स्थान पर माता ने काली रूप धारण कर जब शत्रुओं का नाश किया था तो यहां मां का गुस्सा शांत करने के लिए भगवान शिव उनके पांव के नीचे लेट गए थे। कहा जाता है इस स्थान पर कई वर्षों तक माता की तेज ज्वाला निकलती देखी गई है। कई वर्षों बाद आदि गुरु शंकराचार्य ने माता की ज्वाला को शांत किया और यहां माता के शांत स्वरूप की स्थापना की। हर साल देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु मां के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। हाट कालिका मंदिर में हर रोज शाम आरती के बाद माता को भोग लगाया जाता है, जिसके उपरांत माता की शयन आरती गाई जाती है और माता का बिस्तर लगाया जाता है। फिर माता के मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। कहा जाता है कि माता रात्रि विश्राम के लिए मंदिर में पहुंचती हैं और सुबह जब मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तो बिस्तर में कुछ इस तरह का आभास होता है कि जैसे किसी ने इसमें रात्रि विश्राम किया हो।
माँ हाट कालिका देश की सबसे पुरानी सेना कुमाऊं रेजीमेंट की देवी भी है। कहते है कि देवी ने सैनिक की एक पुकार पर सेना के सैकड़ों जवानों की जान बचाई थी जिसके बाद अब हर जंग में जाने से पहले कुमाऊं रेजिमेंट के जवान इस देवी की पूजा करते हैं। लोग बताते हैं कि एक बाद सेना की कुमाऊं रेजिमेंट के जवान पानी के जहाज से कहीं कूच कर रहे थे। अचानक तकनीकी खराबी आ गई और जहाज डूबने लगा। तब उन जवानों में से एक पिथौरागढ़ निवासी जवान में मां कालिका की स्तुति की। कुछ ही देर बार डूबता जहाज ऊपर आने लगा और खुद धीर-धीरे किनारे लग गया। इस घटना के बाद कुमाऊं रेजीमेंट के जवानों ने मंदिर में दो बड़ी घंटियां चढ़ाई और मंदिर का गेट बनवाया। इस चमत्कार के बाद कुमाऊं रेजिमेंट युद्ध में जाने से पहले और ट्रेनिंग में जाने से पहले काली माता का नाम लिए बिना आगे नहीं बढ़ते। कुमाऊं रेजीमेंट के जवानों की आस्था मंदिर के साथ ऐसी है कि कहा जाता है कि बस महाकाली का नाम लेते ही लड़ाई के मैदान में जवानों की शक्ति दोगुनी हो जाती है। जवानों का कहना है कि उन्हें ऐसा लगता है जैसे उनकी ओर से कोई और लड़ाई कर रहा है और दुश्मनों का खात्मा कर रहा है।
हर मुराद होती है पूरी
उत्तराखंड के लोगों की आस्था का केन्द्र महाकाली मंदिर अनेक रहस्यमयी कथाओं को अपने आप में समेटे हुए है। कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्धापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के श्रद्धा पुष्प अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता एवं महान विपदाओं का हरण हो जाता है व अतुल ऐश्वर्य एवं संपत्ति की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि मां हाल कालिका मंदिर में आने वाले भक्त की हर मुराद पूरी होती है।
450 साल पुराने देवदार से घिरा है मंदिर
महाकाली के दर्शनों के लिए हर साल लाखों की तादाद में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। चैत्र और शारदीय नवरात्रों में हाट कालिका मंदिर में भक्तों की भीड़ बढ़ती जाती है। मंदिर को चारों ओर से देवदार के पेड़ों ने घेरा हुआ है। सैकड़ों साल पुराने देवदार के पेड़ मंदिर को और ज्यादा सुंदर और विहंगम बनाते हैं। गोविंद बल्लभ पंत पर्यावरण संस्थान कोसी कटारमल अल्मोड़ा के वैज्ञानिकों ने यहां रिसर्च की है जिसमें यह पता चला है कि मंदिर के कुछ पेड़ 450 साल पुराने हैं।
कुमाऊं रेजीमेंट के जवानों ने स्थापित की थी महाकाली की मूर्ति
कुमाऊं रेजीमेंट ने पाकिस्तान के साथ छिड़ी 1971 की लड़ाई के बाद गंगोलीहाट के कनारागांव निवासी सूबेदार शेर सिंह के नेतृत्व में सैन्य टुकड़ी ने इस मंदिर में महाकाली की मूर्ति की स्थापना की थी। कालिका के मंदिर में शक्ति पूजा का विधान है। सेना की ओर से स्थापित यह मूर्ति मंदिर की पहली मूर्ति थी। इसके बाद साल 1994 में कुमाऊं रेजीमेंट ने ही मंदिर में महाकाली की बड़ी मूर्ति चढ़ाई है। कुमाऊं रेजीमेंटल सेंटर रानीखेत के साथ ही रेजीमेंट की बटालियनों में हाट कालिका के मंदिर स्थापित हैं। हाट कालिका की पूजा के लिए सालभर सैन्य अफसरों और जवानों का तांता लगा रहता है।
गण, आंण व बांण की सेना भी चलती है साथ
कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्धापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के पुष्प अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता एवं महान विपदाएं दूर हो जाती है। स्थानीय लोग बताते हैं यहां श्रद्धा एवं विनयता से की गयी पूजा का विशेष महत्व हैं। इसलिये वर्ष भर यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। महाकाली के संदर्भ में एक प्रसिद्ध किवदंती है कि कालिका का जब रात में डोला चलता है तो इस डोले के साथ कालिका के गण, आंण व बांण की सेना भी चलती हैं। स्कंदपुराण के मानस खंड में यहां स्थिति देवी का विस्तार से वर्णन मिलता है।
आदि गुरु शंकराचार्य हुए थे जड़वत
आदि शक्ति महाकाली का यह मंदिर ऐतिहासिक, पौराणिक मान्यताओं सहित अद्भुत चमत्कारी किवदंतियों व गाथाओं को अपने आप में समेटे हुए है। कहा जाता है कि महिषासुर व चण्ड मुण्ड सहित तमाम भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी महाकाली का यह रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महा विकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था। महाकाली ने महाकाल का भयंकर रूप धारण कर देवदार के वृक्ष में चढ़कर जगन्नाथ व भुवनेश्वर नाथ को आवाज लगानी शुरू कर दी। कहते हैं यह आवाज जिस किसी के कान में पड़ती थी वह व्यक्ति सुबह तक यमलोक पहुंच चुका होता था। छठी शताब्दी में आदि जगत गुरु शंकराचार्य जब अपने भारत भ्रमण के दौरान जागेश्वर आये तो शिव प्रेरणा से उनके मन में यहां आने की इच्छा जागृत हुई, लेकिन जब वे यहां पहुंचे तो नरबलि की बात सुनकर उद्वेलित शंकराचार्य ने इस दैवीय स्थल की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और शक्ति के दर्शन करने से भी वे विमुख हो गए। शंकराचार्य के मन में विचार आया कि देवी इस तरह का तांडव नहीं मचा सकती, यह किसी आसुरी शक्ति का काम है। लोगों को राहत दिलाने के उद्देश्य से वो गंगोलीहाट के लिए रवाना हो गए। जगतगुरु जब मंदिर के 20 मीटर पास में पहुंचे तो वह जड़वत हो गए और लाख चाहने के बाद भी उनके कदम आगे नहीं बढ़ पाए। शंकराचार्य को देवी शक्ति का आभास हो गया और वो देवी से क्षमा याचना करते हुए पुरातन मंदिर तक पहुंचे। पूजा अर्चना के बाद मंत्र शक्ति के बल पर महाकाली के रौद्र रूप को शांत कर शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया और गंगोली क्षेत्र में सुख शांति व्याप्त हो गई। अष्टदल व कमल से मढवायी गयी इस शक्ति की ही पूजा अर्चना वर्तमान समय में यहां पर होती है। चमत्कारों से भरे इस महामाया भगवती के दरबार में सहस्त्र चंडी यज्ञ, सहस्रघट पूजा, शतचंडी महायज्ञ, अष्टबली अठवार का पूजन समय-समय पर आयोजित होता है। यही एक ऐसा दरबार है। जहां अमावस्या हो चाहे पूर्णिमा सब दिन हवन यज्ञ आयोजित होते हैं। मंदिर में अर्धरात्रि में भोग चैत्र और अश्विन मास की महाष्टमी को पिपलेत गांव के पंत उपजाति के ब्राह्मणों द्वारा लगाया जाता है। इस कालिका मंदिर के पुजारी स्थानीय गांव निवासी रावल उपजाति के लोग हैं।
आराध्य स्थल ही है माता का साक्षात यंत्र
सरयू एवं रामगंगा के मध्य गंगावली की सुनहरी घाटी में स्थित भगवती के इस आराध्य स्थल की बनावट त्रिभुजाकार बतायी जाती है और यही त्रिभुज तंत्र शास्त्र के अनुसार माता का साक्षात यंत्र है। यहां धनहीन धन की इच्छा से, पुत्रहीन पुत्र की इच्छा से, संपत्ति हीन संपत्ति की इच्छा से सांसारिक मायाजाल से विरक्त लोग मुक्ति की इच्छा से आते हैं व अपनी मनोकामना पूर्ण पाते हैं।
चमत्कारिक है मंदिर निर्माण की कथा
इस मंदिर के निर्माण की कथा भी बड़ी चमत्कारिक रही है।माना जाता है कि महामाया की प्रेरणा से प्रयाग में होने वाले कुंभ मेले में से नागा पंथ के महात्मा जंगम बाबा को स्वप्न में कई बार इस शक्ति पीठ के दर्शन होते थे। उन्होंने रूद्र दन्त पंत के साथ यहां आकर भगवती के लिए मंदिर निर्माण का कार्य शुरू किया। परन्तु उनके आगे मंदिर निर्माण के लिये पत्थरों की समस्या आन पडी। इसी चिंता में एक रात्रि वे अपने शिष्यों के साथ अपनी धूनी के पास बैठकर विचार कर रहे थे। कोई रास्ता नजर न आने पर थके व निढाल बाबा सोचते-सोचते शिष्यों सहित गहरी निद्रा में सो गये तथा स्वप्न में उन्हें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूपी तीन कन्याओं के दर्शन हुए वे दिव्य मुस्कान के साथ बाबा को स्वप्न में ही अपने साथ उस स्थान पर ले गयी जहां पत्थरों का खजाना था। यह स्थान महाकाली मंदिर के निकट देवदार वृक्षों के बीच घना वन था। इस स्वप्न को देखते ही बाबा की नींद भंग हुई उन्होंने सभी शिष्यों को जगाया स्वप्न का वर्णन कर रातों-रात चीड की लकड़ी की मशालें तैयार की तथा पूरा शिष्य समुदाय उस स्थान की ओर चल पड़ा, जिसे बाबा ने स्वप्न में देखा था। वहां पहुंचकर रात्रि में ही खुदाई का कार्य आरम्भ किया गया थोड़ी ही खुदान के बाद यहां संगमरमर से भी बेहतर पत्थरों की खान निकल आयी। कहते हैं कि पूरा मंदिर, भोग भवन, शिव मंदिर, धर्मशाला वं मंदिर परिसर का व प्रवेश द्वारों का निर्माण होने के बाद पत्थर की खान स्वत: ही समाप्त हो गयी। आश्चर्य की बात तो यह है इस खान में नौ फिट से भी लम्बे तराशे हुए पत्थर मिले।