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खुद की चुनौतियों से लड़ता इण्डिया गठबंधन

जितेन्द्र शुक्ला

भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन यानि इण्डिया गठबंधन का अब तक का सफर खट्टे और कड़वे अनुभवों वाला रहा। दो दर्जन से अधिक दलों ने एक साथ बैठकर भाजपा को चुनौती देने का संकल्प लिया। इस गठबंधन में देश के लगभग सभी प्रांतों के क्षेत्रीय दलों के अलावा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी सरीखा राष्ट्रीय दल भी शामिल था। भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानि एनडीए को लगातार तीसरी बार सरकार बनाने से रोकना ही इण्डिया गठबंधन का प्रमुख उद्देश्य था। इस गठबंधन को बनाने और विपरीत विचारधारा वाले दलों को एक मेज पर बैठाने का विचार जनता दल यूनाइटेड के मुखिया और बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने किया था। इसमें वह काफी हद तक सफल भी रहे और गठबंधन में शामिल दलों ने बकायदा बैठकें कर आगे की रणनीति का खाका भी तैयार किया लेकिन कई क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्य में अपना वर्चस्व खोना नहीं चाहते थे, इसीलिए सीटों के बंटवारे का पेंच लगातार उलझा रहा। इस बीच, इस गठबंधन के जनक नितीश कुमार ने एक बार फिर पलटी मारते हुए एनडीए के खेमे में जा बैठे। उधर, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कांग्रेस को अपने राज्य में एक भी सीट देने से इनकार कर दिया। उधर, जम्मू-कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती ने भी ‘एकला चलो’ का नारा बुलन्द कर दिया। इस बीच, राष्ट्रीय लोकदल भी इण्डिया गठबंधन से रूठकर एनडीए की शरण में चला गया। वहीं उत्तर प्रदेश में तमाम जद्दोजहद के बाद समाजवादी पार्टी कांग्रेस को 17 सीट देने पर राजी हो गयी। वहीं आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच भी सीटों को लेकर बात बन गयी। लेकिन इण्डिया गठबंधन ने आपसी सामंजस्य बनाने में बहुत देर कर दी। कम समय में जनता तक गठबंधन का संदेश पहुंचाना आसान नहीं होगा और यदि जनता तक संदेश नहीं पहुंचा तो सफलता मिलना बहुत कठिन हो जायेगा।

मिलने और बिछड़ने के दौर से गुजर रहे इण्डिया गठबंधन में अंतत: उत्तर प्रदेश, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा में गठबंधन को लेकर बात बन गयी। गठबंधन में शामिल आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच दिल्ली, गुजरात, हरियाणा राज्यों में सीट शेयरिंग का फॉर्मूला तय हो गया। उधर, पश्चिम बंगाल में टीएमसी और कांग्रेस के बीच बातचीत जारी है। अगर सब सही रहा तो दोनों दलों के बीच गठबंधन पर जल्द फैसले के आसार बन सकते हैं। पश्चिम बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष और सांसद अधीर रंजन चौधरी ने ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी के साथ गठबंधन पर खुलकर अपनी बात रखी है लेकिन पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी की ओर से आधिकारिक तौर पर हां या ना होनी चाहिए। दरअसल, पार्टी के एक वर्ग का मानना है कि अगर वे इण्डिया गठबंधन के बिना अकेले चुनाव लड़ते हैं, तो पश्चिम बंगाल के अल्पसंख्यक उनके खिलाफ मतदान करेंगे। वहीं एक और वर्ग इस दुविधा में है कि अगर गठबंधन को बंगाल में ज्यादा महत्व दिया गया तो मोदी सरकार उनके खिलाफ ईडी, सीबीआई का इस्तेमाल करेगी। इन्हीं दुविधाओं के कारण टीएमसी कोई स्पष्ट निर्णय नहीं ले पा रही है। तृणमूल कांग्रेस लगातार कह रही कि वो गठबंधन नहीं करेगी। पहले ममता बनर्जी ने कांग्रेस को दो सीटों की पेशकश की थी, लेकिन कांग्रेस इस पर तैयार नहीं है। ममता का कहना है कि बंगाल में कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं है। इसके बावजूद मालदा की दो लोकसभा सीटें वे कांग्रेस को देने के लिए तैयार थीं, लेकिन उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। ममता का आरोप है कि कांग्रेस और वाम पार्टियां भाजपा को मजबूत बनाने में लगी हुई हैं। इसके लिए दोनों की मिलीभगत है।

सीपीएम बंगाल में अब कांग्रेस को लीड कर रही है। ममता तो सीपीएम से इतने गुस्से में हैं कि वे साफ कहती हैं कि मैं न सीपीएम को कभी माफ करूंगी और न उसके समर्थकों को। हालांकि उन्होंने इंडी अलायंस से अलग होने की बात नहीं कही है, लेकिन साथ बनाए रखने के लिए शर्त भी रख दी है कि कांग्रेस पहले सीपीएम का साथ छोड़े। हालांकि, कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने एक बयान में कहा कि टीएमसी के साथ बातचीत चल रही है। ममता बनर्जी का कांग्रेस सम्मान करती है। टीएमसी मुखिया ने भी कहा कि हम इंडिया गठबंधन को मजबूत करना चाहते हैं। टीएमसी और कांग्रेस में तू-तू, मै-मैं होती रहती है। हम ममता बनर्जी की इज्जत करते हैं। हमने ही उन्हें सांसद बनाया और उन्होंने जब नई पार्टी बनाई उसमें भी कांग्रेस है। भले ही उन्होंने अलग पार्टी बनाई हो लेकिन वो दिल से कांग्रेसी ही हैं। जयराम रमेश ने आगे यह भी जोड़ा कि नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू और राष्ट्रीय लोकदल को छोड़कर इंडिया अलायंस में शामिल दो दर्जन पार्टियां एकजुट हैं। चर्चा है कि संदेशखाली की घटना के बाद ममता बनर्जी दबाव में हैं। इसी के चलते ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को पांच सीट देकर समझौता कर सकती है। पश्चिम बंगाल में जब तक वामपंथी दलों के साथ समझौता नहीं होगा तब तक बीजेपी विरोधी वोटों को बिखरने से नहीं रोका जा सकेगा।

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की ओर से कांग्रेस संग गठबंधन का ऐलान किया गया। सूबे की 80 लोकसभा सीटों के लिए सीट शेयरिंग फॉर्मूला सामने आ चुका है। इसमें कांग्रेस 17 सीटों पर तो समाजवादी पार्टी 62 सीटों पर दावेदारी करेगी। एक सीट चंद्रशेखर आजाद को देने की चर्चा हो रही है। हालांकि, सपा-कांग्रेस में गठबंधन पर पहले अखिलेश यादव ने इनकार किया था, लेकिन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की सपा मुखिया अखिलेश यादव से फोन पर बातचीत हुई। इसी के बाद दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन की राह फिर बनी। वहीं, दिल्ली में भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच डील फाइनल हो गई। कांग्रेस के दिग्गज नेता मुकुल वासनिक ने गठबंधन का ऐलान किया। उन्होंने बताया कि दिल्ली की सात लोकसभा सीट में चार पर आम आदमी पार्टी तो तीन सीट पर कांग्रेस दावेदारी करेगी। आप-कांग्रेस के सीट शेयरिंग पर गौर करें तो अरविंद केजरीवाल की पार्टी नई दिल्ली, दक्षिणी दिल्ली, पश्चिमी दिल्ली और पूर्वी दिल्ली से अपने उम्मीदवार उतारेगी। वहीं, कांग्रेस उत्तर पश्चिम दिल्ली, उत्तर-पूर्वी और चांदनी चौक सीट पर अपना कैंडिडेट उतारेगी। इसी के साथ ही यूपी दिल्ली के साथ-साथ गुजरात और हरियाणा में भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में सीट बंटवारे पर फैसला हो गया। गुजरात की 26 सीटों में कांग्रेस 24 और आम आदमी पार्टी दो सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी। हालांकि, आम आदमी पार्टी ने भरूच लोकसभा सीट पर दावेदारी जीत ली है। कांग्रेस ने यह सीट आप को दी है। इसके अलावा भावनगर सीट भी आम आदमी पार्टी को मिली है। इसके अलावा गुजरात की सभी 24 सीट पर कांग्रेस दावेदारी करेगी। इसी प्रकार हरियाणा में भी सीट शेयरिंग फॉर्मूले का ऐलान हो चुका है। सूबे की 10 लोकसभा सीट में एक पर आम आदमी पार्टी चुनाव लड़ेगी। बाकी 9 सीट पर कांग्रेस दावेदारी करेगी। आम आदमी पार्टी को कुरुक्षेत्र सीट मिली है।

वहीं चंडीगढ़ और गोवा में भी आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को सपोर्ट का ऐलान किया है। दोनों ही जगह कांग्रेस दावेदारी नहीं करेगी। हालांकि, पंजाब में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में बात नहीं बनी है। ऐसे में यहां दोनों पार्टियों के अलग-अलग दावेदारी की चर्चा है। वहीं, जम्मू कश्मीर की प्रमुख राजनीतिक पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख फारुक अब्दुल्ला ने कहा है कि उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी। उनके इस बयान से स्पष्ट है कि कांग्रेस को फारुक अधिक तरजीह देने के मूड में नहीं हैं। फारुक के बयान से तो यह भी झलक मिली कि वे एनडीए में शामिल हो सकते हैं। हालांकि बाद में उनके बेटे पूर्व सीएम उमर अब्दुल्ला ने सफाई दी कि वे एनडीए में नहीं जाएंगे। उमर अब्दुल्ला ने इण्डिया गठबंधन से अलग होने की खबर को बेबुनियाद बताया है। उमर ने कहा कि नेशनल कॉन्फ्रेंस इण्डिया गठबंधन का हिस्सा अब भी है। जहां तक सीट शेयरिंग की बात है तो नेशनल कॉन्फ्रेंस का रुख साफ है। लद्दाख और घाटी की छह सीटों में तीन सीटें गठबंधन के पास हैं। बीजेपी ने जिन सीटों पर जीत हासिल की थी, उन्हीं सीटों पर चर्चा होगी। फारुक अब्दुल्ला की बात पर उन्होंने कहा कि पार्टी समर्थकों की मांग थी कि नेशनल कॉन्फ्रेंस को सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ना चाहिए। बाप-बेटे के बयान में इस फर्क को पार्टी की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है।

वहीं, महाराष्ट्र में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में सीटों के बंटवारे को लेकर शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के पक्ष प्रमुख उद्धव ठाकरे से एक घंटा तक टेलीफोन पर बातचीत कर वहां महाविकास अघाड़ी में सीटों के बंटवारे की प्रक्रिया को तेज कर दिया है। आने वाले कुछ दिनों में महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ महाविकास अघाड़ी में शामिल सभी चारों दलों में सीटों का बंटवारा हो जाएगा। बिहार में भी कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने राजद नेता तेजस्वी यादव के साथ सीट बंटवारे पर बातचीत शुरू कर दी है। कांग्रेस नेतृत्व को आशा है कि आने वाले कुछ दिनों में बिहार में सभी विपक्षी दल एक साथ मिलकर आपसी सहमति से सीटों का बंटवारा कर चुनाव में उतरेंगे। केरल में कांग्रेस व वामपंथी दलों का अपना-अपना एलायंस बना हुआ है। वहां दोनों ही एलांयस के अंदर तगड़ा मुकाबला होगा। केरल में कांग्रेस, वामपंथी दल आमने-सामने होकर चुनाव लड़ेंगे। पिछले लोकसभा चुनाव में केरल में वामपंथी दलों को मात्र एक लोकसभा सीट मिली थी जबकि केरल में वामपंथी दल की लगातार दूसरी बार सरकार चल रही है। तमिलनाडु में कांग्रेस ने पिछली बार द्रुमक के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था जिसमें वामपंथी दल भी शामिल थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को तमिलनाडु में आठ सीटों पर व वामपंथी दलों को चार सीटों पर जीत मिली थी। मगर इस बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन कांग्रेस को 9 के बजाय 7 सीट देने की ही बात कर रहे हैं। जबकि कांग्रेस वहां 16 सीट मांग रही है। द्रमुक सुप्रीमो स्टालिन ने तमिलनाडु में लंबे समय से सहयोगी रही इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) को रामनाथपुरम सीट व कोंगुनाडु मक्कल देसिया काची (केएमडीके) को नमक्कल सीट देकर सीट शेयरिंग के फार्मूले को आगे बढ़ा दिया है। मगर तमिलनाडु में जब तक द्रमुक का कांग्रेस व वामपंथी दलों से सीटों का बंटवारा नहीं हो जाता तब तक वहां इंडिया गठबंधन में सीटों के बंटवारे का काम अधूरा ही माना जाएगा।

झारखंड में कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोचा, राजद के साथ सीटों का समझौता करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में झारखंड की 14 में से कांग्रेस व झारखंड मुक्ति मोर्चा को एक-एक सीट पर जीत मिली थी। जबकि भाजपा ने वहां 12 सीट जीती थी। मगर इस बार वहां झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल शामिल हैं। ऐसे में वहां इंडिया गठबंधन भाजपा को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में है। असम में बदरुद्दीन अजमल की आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट पार्टी के साथ जब तक कांग्रेस का गठबंधन नहीं हो जाता है तब तक वहां कांग्रेस मजबूत स्थिति में नहीं मानी जा सकती है। बदरुद्दीन अजमल का असम की राजनीति में बड़ा जनाधार है। जब-जब बदरुद्दीन अजमल व कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा है, अच्छे परिणाम मिले हैं। पिछले दिनों कांग्रेस ने एकतरफा घोषणा करते हुए बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से सभी संबंध समाप्त कर दिए थे, जिसके बाद वहां कांग्रेस अकेले ही चल रही है। इसी का फायदा उठाते हुए मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने कांग्रेस के कई विधायकों से पाला बदल करवा लिया है। त्रिपुरा की दो सीटों पर भी कांग्रेस का माकपा से गठबंधन होने पर ही मजबूत स्थिति बन सकती है। त्रिपुरा में माकपा का व्यापक जनाधार है। वहां कांग्रेस बहुत कमजोर हो चुकी है। ऐसे में यदि कांग्रेस का माकपा के साथ सीटों की शेयरिंग हो जाती है तो दोनों ही दलों को फायदा मिल सकता है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे प्रदेशों में कांग्रेस की सीधी भाजपा व अन्य क्षेत्रीय दलों से लड़ाई है।

आंध्र प्रदेश में एक तरफ सत्तारूढ़ जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी खड़ी है, तो दूसरी तरफ तेलुगु देशम पार्टी ने फिल्म एक्टर पवन कल्याण की जन सेना पार्टी के साथ सीटों पर समझौता कर विधानसभा की 118 सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। वहीं भाजपा के भी तेलुगु देशम पार्टी के साथ गठबंधन करने की चर्चा जोरों पर है। ऐसे में वहां कांग्रेस को त्रिकोणीय मुकाबला करना होगा। तेलंगाना में कांग्रेस ने हाल ही में भारत राष्ट्रीय समिति के के. चंद्रशेखर राव को हराकर सत्ता हासिल की है। वहां कांग्रेस, भारत राष्ट्र समिति व भाजपा में तिकोना संघर्ष होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का सीधा भाजपा से मुकाबला होगा। वही उड़ीसा में बीजू जनता दल, भाजपा व कांग्रेस में तिकोना संघर्ष होगा। पंजाब में आम आदमी पार्टी व कांग्रेस के अलग-अलग चुनाव लड़ने से कई सीटों का नुकसान उठाना पड़ सकता है।

पिछले दिनों भाजपा इंडिया गठबंधन पर सीटों का बंटवारा नहीं होने के चलते कई तरह के आरोप लगा रही थी। मगर कांग्रेस ने सीट शेयरिंग की दिशा में बड़े कदम उठाते हुए कई दलों के साथ गठबंधन कर इंडिया गठबंधन में शामिल दलों में सीट बंटवारे की प्रक्रिया को तेज कर दिया है। इससे आने वाले कुछ दिनों में सभी सीटों पर गठबंधन होने की संभावना नजर आने लगी है। यदि इंडिया गठबंधन में शामिल सभी दल आपसी सहमति से सीटों का बंटवारा कर एक साथ चुनाव मैदान में उतरेंगे तो निश्चय ही भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकेंगे। उधर, सदैव चुनावी मोड में रहकर काम करने वाली सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए विपक्ष की और से चुनौती अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। उलटे आगामी लोकसभा चुनाव के सबसे बड़े कुरुक्षेत्र उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच हुए चुनावी गठबंधन ने भाजपा की मुसीबतें और बढ़ा दीं हैं। बिखरते गठबंधन में यह नया मोड़ भाजपा के मिशन 400 पार में ब्रेक लगा सकता है। सत्तारूढ़ भाजपा ने विपक्षी गठबंधन को नेस्तनाबूद करने के लिए जितनी कोशिशें हो सकती थीं, कर लीं है। बिहार की सत्ता हाथ से छीन ली। बंगाल को सन्देशखाली की वारदातों के बहाने उलझा लिया। झारखंड में सरकार की जड़ें हिला दी, लेकिन चंडीगढ़ महापौर के चुनाव में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद भाजपा की इन तमाम कोशिशों पर पानी फिर गया। तेजी से बिखर रहा इंडिया गठबंधन अचानक एक होता दिखाई देने लगा। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में सीटों के बंटवारे की समस्या आनन-फानन में सुलझ गयी। चंडीगढ़ जीतने के बाद आम आदमी पार्टी के सुर भी गठबंधन को लेकर बदले गए।

लोकसभा से पहले राज्यसभा में इंडिया गठबंधन को लगा झटका

एक ओर जहां विपक्षी दलों का इण्डिया गठबंधन लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस रहा था वहीं दूसरी ओर भाजपा ने जिस रणनीति से राज्यसभा का चुनाव लड़ा उससे गठबंधन को बहुत बड़ा झटका लगा है। राज्यसभा चुनाव को सेमीफाइनल कहा जा रहा था, लेकिन यहां भी एनडीए को हराने के लिए बना महागठबंधन इंडिया कमाल नहीं दिखा पाया। राज्यसभा चुनाव में मिली हार से इण्डिया गठबंधन सकते में है। विपक्षी इंडी गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस हिमाचल प्रदेश में अपनी सरकार होने के बावजूद अपने विधायकों को एकजुट नहीं रख पाई तो वहीं देश की लोकसभा में सबसे ज्यादा 80 सांसद चुन कर भेजने वाले राज्य उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी अपने विधायकों को एकजुट नहीं रख पाए। उत्तर प्रदेश से लेकर हिमाचल प्रदेश तक राज्यसभा चुनाव में जिस तरह से कांग्रेस और सपा के विधायकों ने क्रॉस वोटिंग कर भाजपा उम्मीदवार की जीत की राह आसान की है, उससे यह भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि लोकसभा चुनाव से पहले ही बड़े विपक्षी दलों के नेताओं में खलबली मची हुई है। आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा की बड़ी जीत को सुनिश्चित मानकर विपक्षी दलों के नेता भी अब भाजपा के साथ ही जुड़ना चाहते हैं।

दरअसल, चुनाव आयोग ने 15 राज्यों की कुल 56 राज्यसभा सीटों पर चुनाव की घोषणा की थी, जिसमें से 12 राज्यों में 41 उम्मीदवार पहले ही निर्विरोध निर्वाचित घोषित हुए लेकिन तीन राज्यों- उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में सीट के मुकाबले ज्यादा उम्मीदवार होने के कारण बाकी बची 15 सीटों पर चुनाव करवाया गया। हिमाचल प्रदेश में अपनी सरकार होने के बावजूद कांग्रेस अपने विधायकों की क्रॉस वोटिंग को नहीं रोक पाई। हिमाचल प्रदेश में नौ विधायकों के क्रॉस वोटिंग के कारण (कांग्रेस के 6 और कांग्रेस सरकार को समर्थन दे रहे 3 निर्दलीय विधायक) भाजपा के हर्ष महाजन और कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी, दोनों को 34-34 वोट मिले। दोनों उम्मीदवारों को बराबर वोट मिलने के कारण पर्ची से विजेता का फैसला किया गया, जो भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में गया। वहीं उत्तर प्रदेश में भी विपक्षी गठबंधन को बड़ा झटका लगा है। विपक्षी गठबंधन के बड़े नेता अखिलेश यादव अपने विधायकों को एकजुट नहीं रख पाए और भाजपा ने सपा को बड़ा बड़ा झटका देते हुए अपने आठों उम्मीदवारों को राज्यसभा का चुनाव जितवा लिया। उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की 10 सीटों के लिए 11 उम्मीदवार मैदान में थे।

भाजपा के सभी 8 उम्मीदवारों- सुधांशु त्रिवेदी, आरपीएन सिंह, चौधरी तेजवीर सिंह, साधना सिंह, अमरपाल मौर्य, संगीता बलवंत, नवीन जैन और संजय सेठ को जीत हासिल हुई, वहीं सपा के सिर्फ दो उम्मीदवार-जया बच्चन और रामजी लाल सुमन ही चुनाव जीत पाए, लेकिन सपा के तीसरे उम्मीदवार को सपा विधायकों की क्रॉस वोटिंग के कारण हार का सामना करना पड़ा। उधर, कर्नाटक में उम्मीद के मुताबिक कांग्रेस के तीन उम्मीदवारों- अजय माकन, सैयद नासिर हुसैन, जी.सी. चंद्रशेखर और भाजपा के एक उम्मीदवार नारायणसा भांडगे को जीत हासिल हुई। वहीं जेडी (एस) से चुनाव लड़ रहे पांचवें उम्मीदवार के. रेड्डी को हार का सामना करना पड़ा। राज्यसभा चुनाव में यह बड़ी जीत हासिल कर भाजपा ने सिर्फ विपक्षी गठबंधन को राजनीति के मैदान में ही नहीं पछाड़ा है, बल्कि इस जीत के साथ अब भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को राज्यसभा में भी बहुमत हासिल हो गया है।

कुछ ऐसा रहा गठबंधन सरकारों का इतिहास

केन्द्र में गठबंधन सरकार की शुरुआत 1977 में जनता पार्टी की सरकार से हुई, जिसके प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई थे। जनता पार्टी में कुल 13 दल शामिल थे। यह पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी। हालांकि, अटल बिहारी वाजपेयी के समर्थन लेने के चलते जनता पार्टी की सरकार गिर गई और जनता दल (सेक्युलर) के चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। हालांकि, वे 1980 तक ही पद पर बने रह सके। चौधरी चरण सिंह की सरकार अल्पमत में थी। उसे कांग्रेस का समर्थन मिला हुआ था, लेकिन जब लोकसभा में विश्वास मत हासिल करने की बारी आई तो कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया, जिससे सरकार गिर गई। उसके बाद साल 1989 में कांग्रेस की हार के बाद जनता दल और अन्य क्षेत्रीय दलों से मिलकर बनी राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार अस्तित्व में आई और विश्वनाथ प्रताप सिंह यानी वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। इस दौरान ऐतिहासिक घटना यह हुई थी कि धुरविरोधी भाजपा और वाम दलों एकसाथ आ गए थे। दरअसल, 1987 में रक्षामंत्री पद से हटाने के बाद वीपी सिंह ने जन मोर्चा का गठन किया था। यह मोर्चा लगातार राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार को लेकर हमला बोल रहा था। 1989 के लोकसभा चुनाव से पहले वीपी सिंह ने जन मोर्चा, लोकदल, जनता पार्टी और कांग्रेस (एस) को मिलाकर जनता पार्टी बनाई। इसके बाद उन्होंने वाम और दक्षिण पंथी कुछ दलों को साथ लेकर राष्ट्रीय मोर्चा बनाया। 1989 में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। हालांकि, मंडल कमीशन की सिफारिश लागू होने पर भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया, जिससे सरकार गिर गई। इस चुनाव में कांग्रेस को 197, जनता दल को 143, भाजपा को 85 और वाम दलों को 45 सीटें मिली थीं।

साल 1990-1921 में जनता दल (सोशलिस्ट) या भारतीय समाज पार्टी की सरकार बनी और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, लेकिन यह सरकार महज कुछ ही महीने (10 नवंबर 1990 से लेकर 21 जून 1991) तक ही चल सकी। इस सरकार को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया हुआ था। जनता पार्टी, जनता पार्टी (सेक्युलर), लोक दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (जगजीवन) और जन मोर्चा से मिलकर जनता दल बना हुआ था। उसके बाद जब 1996 में लोकसभा चुनाव हुआ तो न तो भाजपा और न ही कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री जरूर बनें, लेकिन उनकी सरकार महज 13 दिन ही चल पाई। इसके बाद 13 पार्टियों ने मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया। संयुक्त मोर्चा ने 1996 में पहली बार सरकार बनाई, जिसके प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा थे, लेकिन यह सरकार एक जून 1996 से लेकर 21 अप्रैल 1997 तक ही चल पाई। इसके बाद 21 अप्रैल 1997 से लेकर 19 मार्च 1998 तक इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने। दोनों बार सरकार कांग्रेस के समर्थन वापस लेने की वजह से गिरी।

साल 1998 के आम चुनाव से पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) बना, जिसमें 13 दल शामिल थे। चुनाव बाद एनडीए की सरकार बनी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, लेकिन एआइडीएमके के समर्थन वापसी से 13 दिन में ही यह सरकार गिर गई। इसके बाद 1999 में चुनाव हुआ, जिसमें एनडीए को पूर्ण बहुमत मिला और फिर अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार बनी और डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। यूपीए की सरकार को सपा और वाम दलों का भी बाहर से समर्थन प्राप्त था। इस चुनाव में यूपीए को 222 सीटें मिली थीं। बाद में, 2008 में वाम दलों ने यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, तब सपा ने सरकार को गिरने से बचाया था। इसके बाद 2009 में हुए लोकसभा में फिर से यूपीए की सरकार बनी और मनमोहन सिंह लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बने। यूपीए को इस चुनाव में 262 सीटें मिली थीं। इसके बाद 2014 में फिर से राजग के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार आई और नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने। इस गठबंधन की अभी तक सरकार चल रही है और कुछ दलों अकाली दल और शिवसेना के बिछड़ने के बाद भी एनडीए एक बार चुनावों का सामना करने जा रहा है।

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