दस्तक-विशेषसाहित्य

एक आवाज नन्हें बच्चे की

डॉ. संगीता जैन

माँ, कहाँ हो तुम, कहाँ हो तुम?
घर में हो या बाहर हो,
खुद में हो या औरों में,
पति में हो या परिवार में,
माँ, कहाँ हो तुम, कहाँ हो तुम?

तुम घड़ी की सुई सी,
तुम सूरज की किरणों सी,
तुम प्यासे को पानी सी,
तूम भूखे को रोटी सी,
माँ, कहाँ हो तुम, कहाँ हो तुम?

कुछ जागती कुछ सोती सी,
कुछ जिंदा कुछ मुर्दा सी,
कुछ हंसती कुछ रोती,
कुछ दवा और कुछ दुआ सी,
माँ, कहाँ हो तुम, कहाँ हो तुम?

दौड़ रही घर ऑफिस के बीच,
दौड़ रही सुबह और शाम के बीच,
भाग रही मंजिल मंजिल के बीच,
बना रही पहचान दुनिया के बीच,
माँ, कहाँ हो तुम, कहाँ हो तुम?

तुमको ढूंढ़ रहा मेरा बचपन,
ढूंढ रहा तेरा प्यार भरा मन,
छिप गयी मेरी गोद किताबों में,
तरस रहा मन ख्वाबों में,
माँ, कहाँ हो तुम, कहाँ हो तुम?

खो जायेगी मेरी मुस्कान, दुनिया के ठहाकों में,
दब जायेगी तोतली आवाज, समाचारों में,
छूट जायेंगे खिलौने, टीवी और मोबाइल में,
तेरी गोद से बड़ा हो जायेगा मेरा कद,
माँ, कहाँ हो तुम, कहाँ हो तुम?

बिखर जायेंगे मेरी नन्ही बाहों के पंख
तेरी महत्वाकांक्षाओं की उड़ान में,
अनकही रह जायेंगी परियों की कहानियां
तेरे जीवन की उलझनों में,
मेरे नन्हें हाथ तरसते है तेरे गालों को,
मेरी सूनी आँखे तकती है राह तेरे आने की,
गले से लगा ले माँ जी भर के आज,
कि कल, जब मै बड़ा हो जाऊ, और तू बूढ़ी,
तेरे पास न हों यादें और कहानियां मेरे बचपन की।
हे माँ तुझको, तुझी में ढूढ रहा हूँ,
तू मेरी देवकी है, तू मेरी देवकी है,
मै तुझमें यशोदा ढूंढ रहा हूँ
मै तुझमें यशोदा ढूंढ रहा हूँ ।

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