ज्ञान भंडार

नजर हिंदू वोट बैंक पर

मुस्लिम वोटरों के सौदागरों ने उड़ाई सपा की नींद
संजय सक्सेना
सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव 2017 का विधानसभा चुनाव जीत कर सत्ता बरकरार रखने का सपना संजोये हुए हैं, लेकिन उन्हें यह डर भी सता रहा है कि कहीं एम-वाई (मुस्लिम-यादव) के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की उनकी तमन्ना अधूरी न रह जाये। इसीलिये मुलायम सिंह यादव लंबे समय बाद मुसलमानों को लुभाने के साथ-साथ हिंदुत्व के एजेंडे को भी आगे बढ़ाने में जुट गये हैं। उनकी इस मुहिम में अखिलेश सरकार भी कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। एक ओर नेताजी को वह अमर सिंह याद आ रहे हैं, जो हिंदुत्व के प्रतीक कल्याण सिंह को उनके (मुलायम सिंह) करीब लाये थे तो दूसरी तरफ अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाने की घटना पर भी नेताजी अफसोस जाहिर कर रहे हैं।(परंतु काफी सधे हुए लहजे में ताकि एक को मनाने में दूजा रूठ न जाये)। वह सफाई देने वाले अंदाज में कहते हैं कि लाखों की संख्या में कारसेवक रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे के पास जमा हो गये तो उन्हें कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश देना पड़ा, जिसमें 16 कारसेवकों की मौत हो गई थी। तब से लेकर आज तक इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं बोलने वाले मुलायम ने हाल ही में एक न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में कहा था,‘वह एक दर्दनाक फैसला था, लेकिन उस समय मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था।’
sapaमुलायम सिंह को अपनी गलती का अहसास और हिंदू प्रेम ऐसे ही नहीं जागा है। इसके पीछे सटीक कारण हैं। राजनीति की पैनी नजर रखने वाले नेताजी जानते हैं कि 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के अलावा भी मुस्लिम वोटों के कई सौदागर मैदान में ताल ठोंक रहे हैं। हाल ही में ओवैसी के यूपी दौरे की बात की जाये तो उनका यह दौरा काफी कामयाब रहा। उन्होंने जहां भी जनसभा की वहां अपेक्षा से अधिक भीड़ जुटी। फैजाबाद के बीकापुर में हो रहे उपचुनाव के बहाने एआईएमआईएम अध्यक्ष असद्दुदीन ओवैसी ने मुस्लिम और दलित समीकरणों को साधने की शुरुआत कर दी है। एमआईएम के प्रत्याशी प्रदीप कोरी के उपचुनाव में प्रचार करने पहुंचे ओवैसी ने पीएम मोदी और सीएम अखिलेश यादव पर तो भड़ास निकाली, लेकिन अंबेडकर की तारीफ करते हुए बीएसपी सुप्रीमो मायावती पर कुछ भी नहीं कहा। बीकापुर उपचुनाव में प्रचार करने के लिए ओवैसी ने पहली चुनावी सभा की जिसमें खासी भीड़ जुटी थी। ओवैसी ने जिस तरह से बसपा सुप्रीमो के बारे में चुप्पी साधे रखी, उसी के बाद यह कयास लगाये जाने लगे कि बसपा और ओवैसी मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो दोनों ही फायदे में रह सकते हैं। यह गठबंधन राजनीति के कई दिग्गजों की नींद उड़ा सकता है। मुलायम भी इस गठबंधन की संभावना से बेचैन हैं।
ओवैसी के साथ ही नीतीश-लालू की जोड़ी और बहुजन समाज पार्टी सहित अन्य तमाम छोटे-छोटे दलों की नजरें मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने पर लगी हैं, जबकि भाजपा सिर्फ हिन्दू वोटरों की सौदागर बनी हुई है। ऐसे में मुलायम को हिंदू वोट बैंक (खासकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि अगड़ी जातियां) में सेंध लगाना ज्यादा आसान लगा तो उन्होंने हिन्दुत्व के एजेंडे को ही आगे बढ़ा दिया। मुलायम ने यह पैंतरा ऐसे समय में चला है जब समाजवादी पार्टी और अखिलेश सरकार मिशन-2017 का लक्ष्य हासिल करने के लिये चारों तरफ हाथ-पैर मार रही है। भले ही पंचायत चुनाव में समाजवादी पार्टी का परचम लहराया हो, लेकिन इससे समाजवादियों का विश्वास नहीं बढ़ा है। उन्हें पता है कि पंचायत चुनाव में जीत वोट बैंक के सहारे नहीं ताल तिकड़म से मिलती है। सपा के रणनीतिकारों को इस बात की बेहद चिंता सता रही है कि पार्टी के वोट बैंक में बिखराव हो रहा है। समाजवादी पार्टी को मुस्लिम वोट बैंक के बिखराव की तो चिंता है ही इसके अलावा पार्टी जिन पिछड़ों को अपनी सियासी पूंजी मानती थी, उसमें से यादवों को छोड़कर करीब-करीब अन्य सभी का सपा से मोहभंग होता दिख रहा है। समाजवादी पार्टी के नेता जानते हैं कि भले ही 2012 के विधानसभा चुनाव में उनके खाते में 224 और बसपा के खाते में 80 सीटें आईं थीं, लेकिन दोनों पार्टिंयों को मिलने वाले वोट प्रतिशत में मात्र तीन प्रतिशत का अंतर था। समाजवादी पार्टी को 29.2 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि 80 सीटें जीतने वाली बसपा का वोट प्रतिशत 25.9 था। भाजपा 15 प्रतिशत वोटों के साथ तीसरे और कांग्रेस 11.6 प्रतिशत वोट हासिल कर चौथे स्थान पर रही थी। दो वर्षों के भीतर ही 2014 के लोकसभा चुनाव आते-आते समाजवादी पार्टी का जनाधार 07 प्रतिशत घट गया। सपा को मात्र 22.2 प्रतिशत वोट मिले। वहीं बसपा को 2012 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा से कम करीब 06 प्रतिशत वोटों का ही नुकसान हुआ था। बसपा 20 प्रतिशत वोट ही हासिल कर सकी, यह उसका दुर्भाग्य था। लोकसभा चुनाव के समय यूपी में भले ही बसपा का वोट बैंक घटा था, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वह सबसे अधिक वोट पाने वाले दलों में तीसरे नंबर पर रही थी। बसपा को पूरे देश में 4.1 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि समाजवादी पार्टी 3.4 प्रतिशत वोटों के साथ तृणमूल कांग्रेस के बाद पांचवें स्थान पर रही थीं। हां, यह जरूर था कि सपा से अधिक वोट पाने के बाद भी बसपा का एक भी सांसद नहीं जीता था,जबकि सपा पांच सीटों पर जीतने में कामयाब रही थी।
वजह पर जाया जाये तो 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी यूपी में अपने आप को पिछड़ों के नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने में कामयाब रहे थे, जिससे सपा को काफी नुकसान हुआ था। भाजपा के बाद अब बसपा भी गैर यादव पिछड़ों पर डोरे डालने लगी है। वहीं प्रदेश का मुसलमान भी नहीं समझ पा रहा है कि समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया मुलायम सिंह पर कितना भरोसा किया जाये। इसकी वजह भी हैं। 2012 में समाजवादी पार्टी ने चुनाव के समय मुसलमानों से जो वायदे किये थे, उन्हें अखिलेश सरकार भले ही पूरे कर देने की बात कर रही हो, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। मुसलमानों को इससे कोई खास फायदा नहीं हुआ है। इसके अलावा अखिलेश कैबिनेट में भी उस अनुपात में मुस्लिम नेताओं को नहीं लिया गया है, जिस अनुपात में वह जीतकर आये थे। खासकर शिया मुसलमान अखिलेश सरकार से कुछ ज्यादा ही नाराज चल रहे हैं। शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जवाद और सपा के मंत्री आजम खान के बीच के विवाद में भले ही सत्तारूढ़ होने के कारण आजम का पलड़ा भारी रहा हो, परंतु इस विवाद से हुए नुकसान की भरपाई करना सपा के लिए आसान नहीं होगा। बात यहीं तक सीमित नहीं है। इसी प्रकार मुलायम सिंह का बार-बार दादरी के बिसाहड़ा में भीड़ द्वारा अखलाक नामक व्यक्ति की हत्या के लिए बीजेपी के तीन नेताओं को जिम्मेदार ठहराया जाना और यह कहना कि अगर प्रधानमंत्री कहें तो वह उन तीनों के नाम बताने को तैयार हैं, वाली बात मुसलमानों को रास नहीं आ रही है। वह सवाल पूछ रहे हैं कि ऐसी कौन सी मजबूरी है जो मुलायम उक्त बीजेपी नेताओं का नाम सार्वजनिक नहीं करके उन्हें बचा रहे हैं। ऐसी ही तमाम बातों और बीजेपी के प्रति नेताजी का अक्सर दिखता झुकाव मुसलमान वोटरों को रास नहीं आता है। यह परेशानी का सबब न बन जाये इसी चिंता में डूबे मुलायम और समाजवादी सरकार ने नुकसान की भरपाई के लिये हिंदू कार्ड चला है।
2012 के विधानसभा चुनाव के समय सपा को मुस्लिम वोटों की चिंता सता रही थी तो 2017 में उसे हिंदू वोट बैंक की भी चिंता सताने लगी है। संभवत: इसीलिये पिछले वर्ष सितंबर के महीने में अखिलेश सरकार द्वारा हिंदुओं की सबसे पवित्र धार्मिक मानसरोसवर यात्रा पर जाने वाले भक्तों के लिए सब्सिडी 25 हजार से बढ़ाकर 50 हजार कर दी गई थी। इससे पूर्व अखिलेश सरकार द्वारा शुरू की गई ‘समाजवादी श्रवण यात्रा’ भी इसी कड़ी का एक हिस्सा था, जिसके माध्यम से प्रदेश के बुजुर्ग श्रद्धालुओं को यूपी सरकार के खर्च पर पूरे देश के धार्मिक स्थलों की यात्रा कराई जा रही है।
अब तक हजारों बुजुर्ग इस यात्रा का फायदा उठा चुके हैं। इसी तरह से अखिलेश सरकार 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले राज्यभर के मंदिरों का जीर्णोद्धार भी करने जा रही है। यूपी सरकार की कोशिश है कि हर जिले में कम से कम एक मंदिर का जीर्णोद्धार हो। इस सिलसिले में राज्य सरकार की धार्मिक मामलों के विभाग ने हर जिले के जिलाधिकारी को अपने जिले से एक महत्वपूर्ण मंदिर का ब्यौरा उपलब्ध कराने के लिए कहा है।
विभाग के निर्देश के बाद अब तक 34 जिलों से सरकार को प्रस्ताव भेजा जा चुका है। इसी प्रकार अखिलेश सरकार की सवर्ण समाज के वोटों पर भी नजर है। उत्तर प्रदेश में अधिकतर मंदिरों का प्रबंधन पंडों और मठाधीशों के हाथ में है। यहां आने वाले दर्शनार्थियों को पंडों और मठाधीशों के कारण ठगी का शिकार होना पड़ता है। कदम-कदम पर श्रद्धालुओं को धर्म के नाम पर लूटा जाता है। इसीलिए अखिलेश सरकार वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर की तर्ज पर मथुरा और विध्यांचल मंदिर में भी रिसीवर नियुक्त कर न्यास बनाये जाने पर विचार कर रही है ताकि यहां आने वाले भक्तों को सुविधाएं मिल सकें।
खैर, कारसेवकों पर गोली चलाने के लिए मुलायम सिंह द्वारा दु:ख व्यक्त करने की बात की जाये तो मामला यहीं तक सीमित नहीं है। अयोध्या को लेकर समाजवादी सरकार काफी नरम रुख अपनाये हुए है। बीते साल के मध्य में राजस्थान से जब पत्थरों की खेप अयोध्या पहुंची तो ऐसा लगा कि अखिलेश सरकार इस पर कोई सख्त कदम उठाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ,बल्कि समाजवादी पार्टी के नेता बुक्कल नवाब स्वयं अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण की वकालत करते हुए मीडिया में दिखाई देने लगे। वह मंदिर निर्माण के लिये दान देने की भी बात कर रहे थे।
नवाब साहब की बातों को गंभीरता से इसलिए लिया जा रहा है क्योंकि उनकी गिनती मुलायम सिंह के करीबियों में होती है। अयोध्या में मंदिर निर्माण की वकालत करने के चलते अखिलेश सरकार के राज्य मंत्री ओमपाल नेहरा को भले ही पद गंवाना पड़ गया था,लेकिन बुक्कल नवाब पर आंच तक नहीं आई। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए राजस्थान से पत्थर आ रहे थे और अखिलेश सरकार चुप्पी साधे हुए थी। इस संबंध में जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से पूछा गया तो उन्होंने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि ‘‘अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर में हर हाल में न्यायालय के निर्देशों का पूरी सख्ती से कार्यान्वयन एवं अनुपालन सुनिश्चित कराया जाएगा। प्रदेश में कानून व्यवस्था को खराब करने की किसी को इजाजत नहीं दी जाएगी क्योंकि अयोध्या का यह मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है।’’जबकि इससे पूर्व गृह विभाग में प्रमुख सचिव देवाशीष पांडा ने कहा था कि राज्य सरकार राम मंदिर के लिए अयोध्या में पत्थर नहीं आने देगी। ‘‘चूंकि मामला न्यायालय में विचाराधीन है, लिहाजा सरकार अयोध्या मुद्दे के बाबत कोई नई परंपरा शुरू करने की इजाजत नहीं देगी।’’वहीं एडीएम सिटी आरएन शर्मा ने भी कहा था कि पत्थर दान व राजस्थान से पत्थर मंगाए जाने की न कोई अनुमति ली गई है, न ही उनके संज्ञान में मामला है। अयोध्या में भगवान राम के मंदिर का निर्माण ऐसा मसला है जिसपर हमेशा वोट बैंक की सियासत होती रहती है।
अयोध्या में पत्थर लाये जाने की घटना पर अखिलेश सरकार ने भले ही (हिन्दुत्व के एजेंडे को धार देने के लिए) चुप्पी साध ली थी, लेकिन बसपा सुप्रीमों मायावती ने इसके सहारे मुसलमानों को रिझाने का मौका नहीं खोया। माया ने अखिलेश सरकार पर पत्थरों को अयोध्या आने से नहीं रोकने के लिए तंज कसते हुए इसे समाजवादी पार्टी और भाजपा की सांठगांठ बता कर राजनैतिक चाल चल दी। बसपा सुप्रीमो मायावती बीजेपी-सपा के बीच गठजोड़ की बात करके मुस्लिम वोटरों में संशय पैदा करने का कोई भी मौका छोड़ती नहीं हैं। बहरहाल, तमाम किन्तु-परंतुओं के बीच 2017 में राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा, कोई नहीं जानता है।

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