दस्तक टाइम्स/एजेंसी : जयपुर का यह इलाका कभी घने वृक्षों से आच्छादित वन क्षेत्र था लेकिन अब यहां घनी आबादी है। दुर्गा माता के मंदिर की स्थापना के समय यहां दूर-दूर तक कोई बस्ती नहीं थी। मंदिर बनने के बाद महाराजा ने यहां एक गांव बसाया जिसका नाम माता के नाम पर दुर्गापुरा रखा था। वन में जंगली जानवरों का डेरा रहता था। शाम के समय कई बार मंदिर के निकट शेर आ जाया करते थे। माता की सेवा महाराजा ने जागीर के रूप में मदरामपुरा में 729 बीघा जमीन दी थी जिसके लगान से मंदिर का खर्च चलता था। 1960 में जागीर खालसा हो गई।
दुर्गा माता की प्रतिमा को महाराजा मानसिंह जसोर से महिषासुर मर्दिनी की शिला माता सहित तीन प्रतिमाएं साथ लेकर आए थे। पहले ये प्रतिमाएं दूसरी जगह रखी हुई थीं, जिसकी बाद में महाराजा प्रताप सिंह ने संवत् 1871 में स्थापना करवाई थी। मंदिर के पुजारी पंडित महेंद्र भट्टाचार्य बताते हैं कि महाराजा दुर्गा मां की प्रतिमा को जसोर से लेकर आए थे।
मंदिर को जागी
र के रूप में मदरामपुरा गांव एवं 729 बीघा जमीन एवं उतना ही हांसल माता के पोशाक चढ़ाने वाले भक्तों को दो साल तक इंतजार करना पड़ता है। नवरात्र के लिए दो साल पहले ही एडवांस बुकिंग हो जाती है। नवरात्र में देश के कोने-कोने से भक्त आते हैं। आमेर की शिला देवी के छठ पर एवं यहां सप्तमी के दिन मेला लगता है।
मंदिर का निर्माण प्रताप सिंह ने करवाया था, उसके बाद महाराजा माधोसिंह के शासनकाल में मंदिर का जीर्णोद्धार बालाबक्स कवास ने करवाया था। बाद में भक्तों ने माता के मंडप पर सोने के पानी से काम करवाया। महाराजा माता की पूजा करने के लिए बंगाल से पंडित लेकर आए थे। जिनकी 11वीं पीढ़ी के महेन्द्र भट्टाचार्य वर्तमान में सेवा-पूजा कर रहे हैं।