राममंदिर का बूटा सिंह और सिखों से रिश्ता
आर.के. सिन्हा : सरदार बूटा सिंह का निधन तब हुआ है जब अयोध्या में राममंदिर निर्माण कार्य का श्रीगणेश हो चुका है। इस प्रकार, पूर्व गृहमंत्री बूटा सिंह जी की आत्मा को शांति मिली होगी।
इस तथ्य से कम लोग ही वाकिफ हैं कि बूटा सिंह भगवान राम के अनन्य भक्त थे और सुप्रीम कोर्ट में मंदिर-मस्जिद मसले पर जो केस चला था उसमें उन्होंने हिन्दू पक्ष को महत्वपूर्ण सलाह भी दी थी। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि अगर रामलला को इस केस में पक्षकार नहीं बनाया गया होता तो फैसला अलग हो सकता था। यह जानना दिलचस्प है कि रामलला को पक्षकार बनाने के पीछे तत्कालीन राजीव गांधी सरकार में गृहमंत्री बूटा सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
जब राममंदिर आंदोलन जोर पकड़ने लगा और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ताला खुलवा दिया तो बूटा सिंह ने शीला दीक्षित के जरिए विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल को संदेश भेजा कि हिन्दू पक्ष की ओर से दाखिल किसी मुकदमे में जमीन का मालिकाना हक नहीं मांगा गया है और इसलिए उनका मुकदमा हारना तय है।
राममंदिर निर्माण में सिख
अजीब बिडबंना है कि अयोध्या विवाद को हिन्दू-मुस्लिम मसले के रूप में ही देखा जाता रहा है। पर इस सारे प्रकरण से सिख नेता भी करीबी से जुड़े रहे। बूटा सिंह की भूमिका इसी बात की पुष्टि करती है। इस पहलू की अभीतक अनदेखी हुई है या यह कहें कि यह पक्ष सही रूप से जनता के सामने नहीं आया है।
देखा जाए तो बूटा सिंह उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे थे जिसकी नींव बाबा नानक ने सन 1510-11 के बीच डाल दी थी। बाबा नानक ने अयोध्या जाकर राम जन्म मंदिर के दर्शन किए थे। प्रभाकर मिश्र ने अपनी पुस्तक “एक रुका हुआ फैसला” में लिखा है कि “बाबा नानक अयोध्या में बाबर के आक्रमण (सन 1526) से पहले आए थे। बाद में नौवें गुरु तेग बहादुर जी और दसवें गुरु, गुरु गोबिन्द सिंह जी ने भी श्रीराम मंदिर के दर्शन किए थे।”
161 साल पहले विवादित ढांचे के अंदर सबसे पहले घुसने वाला व्यक्ति एक निहंग सिख था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में 28 नवंबर 1858 को दर्ज एक शिकायत का हवाला दिया गया है जिसमें कहा गया है कि ‘इस दिन एक निहंग सिख फकीर सिंह खालसा ने विवादित ढांचे के अंदर घुसकर पूजा का आयोजन किया। 20 नवंबर 1858 को स्थानीय निवासी मोहम्मद सलीम ने एक एफआईआर दर्ज करवाई जिसमें कहा गया कि ” निहंग सिख, बाबरी ढांचे में घुस गया है, राम नाम के साथ हवन कर रहा है।”
यानी राममंदिर के लिए पहली एफआईआर हिन्दुओं के खिलाफ नहीं, सिखों के खिलाफ ही दर्ज हुई थी। अब जरा सोचिए कि ये निहंग सिख पंजाब से कितना लंबा सफर तय करके अयोध्या तक पहुंच गया होगा।
वैमनस्य पैदा करने वाले कौन
पर अफसोस यह देखिए कि आजकल बहुत से शातिर तत्व हिन्दुओं और सिखों में वैमनस्य पैदा करने की हर मुमकिन कोशिशें कर रहे हैं। भगवान राम की महिमा सिख परंपरा में भी बखूबी विवेचित है। सिखों के प्रधान ग्रंथ “गुरुग्रंथ साहब” में साढ़े पांच हजार बार भगवान राम के नाम का जिक्र मिलता है। सिख परंपरा में भगवान राम से जुड़ी विरासत रामनगरी में ही स्थित ऐतिहासिक गुरुद्वारा ब्रह्मकुंड में पूरी शिद्दत से प्रवाहमान है। गुरुद्वारा में प्रति वर्ष राम जन्मोत्सव मनाया जाता है।
पूर्वाह्न अरदास-कीर्तन के साथ भगवान राम पर केंद्रित गोष्ठी एवं मध्याह्न भंडारा आयोजित होता है। इसी तरह सभी सिख गुरु भी समस्त हिन्दुओं के लिए भी आराध्य हैं। निश्चित रूप से भगवान राम, अयोध्या में बन रहे राममंदिर और सिखों के गहरे संबंधों पर शोध और चर्चा होनी चाहिए। जाहिर है, जब इस बिन्दू पर अध्ययन होगा तो बूटा सिंह का उल्लेख भी बड़े आदरपूर्वक होगा। उन्हें सिर्फ एक राजनीतिक हस्ती या केन्द्रीय मंत्री बता देने भर से बात नहीं बनेगी। उनकी मृत्यु पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी शोक जताया है। यह इस बात का प्रमाण है कि बूटा सिंह को किसी दल का नेता कहना सही नहीं होगा।
बूटा सिंह अनुभवी प्रशासक तो थे ही, वे गरीबों के साथ-साथ दलितों के कल्याण के लिए प्रभावी आवाज थे। बूटा सिंह के देहांत से देश ने एक सच्चा जनसेवक और निष्ठावान नेता खो दिया है। उन्होंने अपना पूरा जीवन देश की सेवा और जनता की भलाई के लिए समर्पित कर दिया, जिसके लिए उन्हें सदैव याद रखा जाएगा।
वे अंतरंग बातचीत में बताते थे कि वाल्मीकि समाज में जन्म लेने के कारण उन्हें बचपन में कितने घोर कष्ट सहने पड़े। उनसे ही स्कूल के टीचर सुबह क्लास साफ़ करने को कहते थे, क्योंकि वे वाल्मीकि समाज से थे। वे उस दौर को याद करते हुए उदास हो जाते थे। बूटा सिंह लगातार सफाई कर्मियों के हक़ में बोलते रहे। वे साफ़ कहते थे कि दलितों में भी सबसे खराब स्थिति वाल्मीकि समाज की है।
उन्हें सीवर साफ करते हुए सफाई कर्मियों की मौत बहुत विचलित कर देती थी। वह इस लिहाज से सही भी थे। किसी सफाई कर्मी की मौत पर ले-देकर उसके घर वाले ही आंसू बहा लेते हैं। इनके मरने की खबरें एकदिन आने के बाद अगले दिन से ही कहीं दफन होने लगती हैं। इन बदनसीबों के मरने पर न कोई अफसोस जताता है, न ही ट्वीट करता है। कोई तथाकथित प्रगतिवादी मोमबत्ती परेड भी नहीं निकालता। चूंकि मामला किसी बेसहारा गरीब की मौत से जुड़ा है, तो उसे रफा-दफा करना भी आसान होता है। इन गरीबों का न तो कोई सही नाम पता ठेकेदार के पास रहता है न वे घटना के बाद कुछ बताने का कष्ट ही करते हैं।
बूटा सिंह जब देश के केन्द्रीय गृहमंत्री या शहरी विकास मंत्री थे, वे तब भी अपने वाल्मीकि समाज से जुड़े मसलों के प्रति बेहद सजग और संवेदनशील रहे। इससे समझा जा सकता है कि देश के असरदार और शक्तिशाली पद को पाने के बाद भी उन्होंने अपनों को अपने से दूर नहीं किया था। बूटा सिंह के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि देश के दलित और वाल्मीकि समाज की शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति में सुधार किया जाए।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)