16 नवंबर 2022 को है काल भैरव जयंती, जाने कैसे हुई उत्पत्ति
नई दिल्ली : भैरव के दो स्वरूप हैं एक बटुक भैरव, जो शिव के बालरूप माने जाते हैं. यह सौम्य रूप में प्रसिद्ध है. वहीं दूसरे हैं Kaal Bhairav जिन्हें दंडनायक माना गया है. अनिष्ट करने वालों को काल भैरव का प्रकोप झेलना पड़ता लेकिन जिस पर वह प्रसन्न हो जाए उसके कभी नकारात्मक शक्तियों, ऊपरी बाधा और भूत-प्रेत जैसी समस्याएं परेशान नहीं करती. मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को काल भैरव जयंती मनाई जाती है. काल भैरव की उत्पत्ति कैसे हुई. आइए जानते हैं.
शिव महापुराण में वर्णित ब्रह्माजी और भगवान विष्णु के बीच हुए संवाद में भैरव की उत्पत्ति से जुड़ा उल्लेख मिलता है. एक बार देवताओं ने भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी से पूछा कि इस संसार का सर्वश्रेष्ठ रचनाकर, विश्व का परम तत्व कौन है? ब्रह्माजी ने अपने द्वारा इस सृष्टि के सृजन की बात कहते हुए स्वयं को सबसे श्रेष्ठ बताया. वहीं भगवान श्रीहरि विष्णु ने कहा कि इस जगत का पालन हार मैं हूं इसलिए मैं ही परम अविनाशी तत्व हूं. ब्रह्मा और विष्णु खुद को ही श्रेष्ठ बता रहे थे ऐसे में देवताओं को जब इस सवाल का सही उत्तर नहीं मिला तो यह काम चारों वेदों को सौंपा गया.
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद चारों ने एक मत में कहा कि जो सर्वशक्तिमान हैं, सारे जीव-जंतु जिनमें समाहित है, भूत, भविष्य और वर्तमान जिनमें समाया है, जिनका न कोई आदि है न अंत, जो अजन्मा है, जन्म-मरण के दुख से जिसका कोई नात नहीं, जिसकी पूजा से देवता, दानव, योग सभी पाप मुक्त हो जाते हैं. वह शंकर ही सबसे श्रेष्ठ है. भगवान विष्णु ने तो वेदों की बात सहर्ष स्वीकार कर ली, लेकिन ब्रह्मा जी का अहंकार शांत नहीं हुआ और वह खुद को सृष्टि का रचयिता मानने पर ही डटे रहे.
वेदों की वाणी सुनकर ब्रह्मा जी के पांचवे मुख ने शिव के निमित्त अपशब्द बोलना शुरू कर दिया. इस दौरान एक दिव्यज्योति प्रकट हुई, यह कोई और नहीं महादेव के ही रौद्र अवतार काल भैरव थे. शिव के इस रूप ने ब्रह्मा जी का पांचवा मुख धड़ से अलग कर दिया. उस दिन मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि थी. काशी में जहां ब्रह्मा जी का सिर गिरा उसे कपाल तीर्थ कहा जाता है.
काल भैरव को ब्रह्महत्या का पाप लगा. काल भैरव को काशी में ही इस पाप से मुक्ति मिली. शिव ने उन्हें काशी का कोतवाल नियुक्त किया. तभी से काल भैरव यहां निवास करते हैं. इनकी पूजा के बिना भगवान विश्वनाथ की आराधना अधूरी मानी जाती है.