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संजीव कुमार : एक ऐसा खिलौना जिसकी कोशिश ने अभिनय को नई दस्तक दी

विमल अनुराग

जयंती पर विशेष

संजीव कुमार भारतीय सिनेमा का एक ऐसा नाम हैं जिसपर भारतीय सिनेमा जगत और उसके चाहने वालों को नाज है। जब भी कभी संजीव कुमार का चेहरा सामने आता है तो एक साथ खुशी, गम, मनोरंजन, गंभीरता और ऐसे ही ना जाने कितने मनोभावों से सजी उनकी फिल्मों से रोचक जुड़ाव के किस्से उभर आते हैं।

वैसे तो उनके महान अभिनय और व्यक्तित्व को किसी लेख में समेटना मुश्किल है लेकिन जिन बातों ने हरी भाई को दि ग्रेट संजीव कुमार बनाया उनमें से कुछ की चर्चा की जा सकती है और स्मृति के इन्हीं झरोखों में जाकर उन्हें श्रद्धांजलि भी दी जा सकती है। अभिनय में एकरूपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप में भी स्थापित करने के लिए संजीव कुमार ने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में पेश करने की कोशिश की।

स्टेज एक्टर के रूप में संजीव ने अपने अभिनय की शुरुआत की। इंडियन नेशनल थियेटर के नाटक ‘दो जहान के बीच’ जो कि आर्थर मिलर के ‘ऑल माई संस’ का हिंदी संस्करण था, में संजीव कुमार ने महज 22 साल की अवस्था में एक बुजुर्ग का पात्र निभाया था। इससे उनके अभिनय के प्रति प्रेम और आस्था का पता लगा। इस अभिनय के लिए उन्हें खुद पृथ्वीराज कपूर ने बधाई दी जो संजीव के इस अभिनय से बेहद खुश हुए थे। संजीव कुमार के उत्थान में दिलीप कुमार की अहम भूमिका रही।

1968 में संघर्ष के रिलीज होने के पहले एच एस रवेल जो इसके निर्माता निर्देशक थे, अपनी इस फिल्म के एक पात्र द्वारका के लिए किसी प्रभावशाली अभिनय कर सकने वाले की तलाश में थे और इसी बीच वो मुंबई के थियेटर में फिल्म निशान देखने गए और वहां उस फिल्म में संजीव कुमार का अभिनय देखकर उन्हें अपनी फिल्म का एक नया अभिनेता मिल गया। संघर्ष में दिलीप कुमार और संजीव कुमार के बीच शतरंज के खेल के एक दृश्य में संजीव ने अपनी अदाकारी का जो जौहर दिखाया, उसे देखकर दिलीप साब ने कह दिया कि संजीव तुम फिल्मों की दुनिया में बहुत आगे जाने वाले हो। संजीव ने इस प्रशंसा को अपनी अभिनय तन्मयता का भाग बना लिया। फिर क्या था एक से एक नायाब किरदार निभाते गए संजीव कुमार। उनके अभिनय से कई अभिनेता तो खौफजदा तक हो जाते थे और कईयों पर अच्छे अभिनय का दवाब पड़ने लगा था। इनके संवाद के सामने टिक पाने की क्षमता सबमें नहीं थी।

उनकी इस कोशिश से उन्हें उनकी फिल्म कोशिश में गूंगे ( मूक ) की भूमिका निभाने और लाजवाब अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। बगैर संवाद बोले सिर्फ आंखों और चेहरे के भाव से दर्शकों को सब कुछ बता देना संजीव कुमार की अभिनय प्रतिभा का ऐसा उदाहरण था जिसे शायद ही कोई अभिनेता दोहरा पाए।

‘कोशिश’ में संजीव कुमार अपने लड़के की शादी एक गूंगी लड़की से करना चाहते हैं और उनका लड़का शादी के लिए राजी नहीं होता है। तब वह अपनी मृत पत्नी की दीवार पर लटकी फोटो को उतार लेते हैं। उनकी आंखों में विषाद की गहरी छाया और चेहरे पर क्रोध होता है। इस दृश्य के जरिए उन्होंने बिना बोले ही अपने मन की सारी बात दर्शकों तक बड़े ही सरल अंदाज में पहुंचा दी थी।

हामिद ( संजीव कुमार ) और सलमा ( रेहाना सुल्तान ) की अदाकारी से सजी फिल्म दस्तक में बेजोड़ अभिनय से फिर सफलता ने दस्तक दी और संजीव फिर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजे गए।

दस्तक की कहानी उन दो युगल की कहानी है जो मुंबई के रेड लाईट एरिया में किराए का घर लेकर रहते हैं और ऐसी परिस्थिति में अपने मनोभावों को प्रकट करते हैं। माई री मैं कैसे कहूं, गीत में सलमा ( रेहाना) ने अपनी मनोदशा के बारे में बताया है।

संजीव कुमार को भारतीय फिल्मों का नवाचार कहें तो बिल्कुल ठीक रहेगा। हर समय देशकाल, उम्र के अभिनय को बड़ी संजीदगी के साथ उनके द्वारा जिया गया। ए भीमसिंह द्वारा निर्देशित ‘नया दिन नई रात’ में एक या दो नहीं बल्कि नौ अलग-अलग भूमिकाएं निभाकर दर्शकों को रोमांचित कर दिया था। फिल्म में संजीव कुमार ने लूले-लंगड़े, अंधे, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, किन्नर, डाकू, जवान और प्रोफेसर के किरदार को निभाकर जीवन के नौ रसों को रूपहले पर्दे पर साकार किया था।

बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री में हॉलीवुड से प्रशिक्षित मेक अप मैन सरोश मोदी ने संजीव कुमार को नौ अलग अलग रसों के अभिनय में जीवंत दिखने के लिए उनका मेक अप किया था। यूं तो यह फिल्म उनके हर किरदार की अलग खासियत की वजह से जानी जाती है, लेकिन इस फिल्म में उनके द्वारा निभाया गया किन्नर का किरदार सबसे संजीदा किरदारों में से एक था। यह फिल्म 1964 में रिलीज हुई तमिल फिल्म नवरात्रि का हिंदी संस्करण था जो नया दिन और नई रात के नाम से आया। नवरात्रि में महान अभिनेता शिवाजी गणेशन ने नौ अगल अलग किरदार निभाए थे। यहां एक दिल को खुश कर देने वाली बात का भी जिक्र होना जरूरी है। नया दिन और नई रात के लिए सबसे पहले अभिनय के लिए दिलीप कुमार के सामने प्रस्ताव किया गया था, लेकिन दिलीप कुमार ने ना केवल इसे अस्वीकार ही किया बल्कि इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने के लिए संजीव कुमार के नाम की सिफारिश की। इस फिल्म को दिलीप कुमार ने प्रोमोट भी किया था और वह भी यह कहते हुए कि 9 रोल्स और वो भी अलग अलग होने के बावजूद संजीव ने सबके साथ न्याय किया।

उनके जीवन के शुरुआती दिनों की बात करें तो इस अभिनय के उस्ताद की जिजीविषा के बारे में पता चलता है। 9 जुलाई 1938 को एक मध्यम वर्गीय गुजराती परिवार में संजीव कुमार का जन्म हुआ था। वो बचपन से ही फिल्मों में नायक बनने का सपना देखा करते थे। वर्ष 1962 में निर्मित फिल्म ‘आरती’ के लिए उन्होंने स्क्रीन टेस्ट दिया जिसमें वह पास नहीं हो सके। संजीव कुमार को सर्वप्रथम मुख्य अभिनेता के रूप में उन्हें 1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘निशान’ में काम करने का मौका मिला।

वर्ष 1960 से 1968 तक संजीव कुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फिल्म ‘हम हिंदुस्तानी’ के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उन्हें स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने ‘स्मगलर पति-पत्नी’, ‘हुस्न’ और ‘इश्क’, ‘बादल’, ‘नौनिहाल’ और ‘गुनहगार’ जैसी कई बी ग्रेड फिल्मों में अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई।

1968 मे प्रदर्शित फिल्म ‘शिकार’ में संजीव कुमार पुलिस ऑफिसर की भूमिका में दिखाई दिये। यह फिल्म पूरी तरह अभिनेता धर्मेन्द्र पर केन्द्रित थी फिर भी संजीव अपने अभिनय की छाप छोड़ने में वह कामयाब रहे।

इस फिल्म में दमदार अभिनय के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर अवॉर्ड भी मिला। सत्यकाम, शोले, त्रिशूल, मनचली, अंगूर, परिचय, सिलसिला जैसी फिल्मों ने संजीव कुमार के दमदार अभिनय के चलते उन्हें सर्वकालिक अभिनेता की श्रेणी में रख दिया था। 6 नवंबर, 1985 को उनका निधन हो गया था लेकिन शोले का ठाकुर आज भी जिंदा है।

(लेखक संगीत, साहित्य, कला संबंधी मामलों के जानकार हैं)

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