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श्रीराम लल्ला का अनुष्ठान रामानंद संप्रदाय पद्धति से होगा, जानें क्यों खास है यह संप्रदाय?

अयोध्या (गौरव ममगाई): अयोध्या के भव्य राम मंदिर में 22 जनवरी को श्रीराम लल्ला की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। इस पावन क्षण का हर हिंदू को बेसब्री से इंतजार है। तैयारियां जोरों पर हैं। खास बात ये भी है कि श्रीराम लल्ला के मंदिर में अनुष्ठान व निमित्त उत्सव रामानंद पध्दति से किये जाएंगे। इसके लिए श्रीराम जन्मभूमि ट्रस्ट ने रामानंद संप्रदाय के अनुसार पूजा पध्दति की रूपरेखा तय करने के लिए एक विशेष समिति का गठन भी किया है। आइये जानते हैं रामानंद संप्रदाय क्यों विशेष है? और इसका क्या इतिहास रहा है?

दरअसल, रामानंद संप्रदाय वैष्णव व संन्यासियों का सबसे बड़ा संप्रदाय है। इसकी स्थापना मध्यकाल में संत रामानंद ने की थी। यह संप्रदाय में विशिष्टाद्वैतवाद का सिध्दांत दिया है। इसमें मुक्ति के लिए भगवान राम व विष्णु की कृपा को आवश्यक बताया है। इसमें कर्मकांड को अधिक महत्व भी नहीं दिया है। संप्रदाय के अनुयायी रामानंद को भगवान राम का अवतार मानते हैं। मान्यता है कि रामानंद को जन्म इलाहाबाद में हुआ और छोटी उम्र में ही माता-पिता ने धर्मशास्त्रों के अध्ययन के लिए उन्हें काशी में पंचगंगाघाट स्थित मठ भेज दिया था, जहां स्वामी राघवानंद के मार्गदर्शन में उन्हें ज्ञान प्राप्त किया। साधना एवं ज्ञान का चक्र पूरा करने के बाद वे तीर्थाटन पर निकल गए थे। इसके बाद उन्होंने पुरी व दक्षिण भारत में रामभक्ति का प्रचार-प्रसार किया।

उत्तर भारत में रामभक्ति का प्रचार करने वाले पहले संत थे रामानंद:

संत रामानंद पहले संत थे, जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का प्रचार-प्रसार किया। रामानंद कई वर्षों तक उत्तराखंड के हरिद्वार में भी रहे। यहां उन्होंने राम-विष्णु भक्ति का प्रचार किया। हरिद्वार को आज धर्मनगरी के रूप में जाना जाता है, यहां सबसे अधिक संख्या में मंदिर हैं। इसका श्रेय संत रामानंद को ही दिया जाता है। हरिद्वार के अलावा भी रामानंद ने कई बड़े शहरों में समय बिताया और भक्ति आंदोलन का विस्तार किया था।

छूआ-छूत के खिलाफ समन्वयवाद का दिया सिध्दांत:
कहा जाता है कि जब संत रामानंद कई वर्षों के तीर्थाटन करने के बाद श्रीमठ लौटे तो उनके भाईयों ने रामानंद के साथ भोजन ग्रहण करने से साफ मना कर दिया था। उनके भाईयों का कहना था कि रामानंद पता नहीं किन-किन छोटे लोगों के संपर्क में आया होगा, इसलिए वे उसके साथ भोजन नहीं कर सकते हैं। इस बात से रामानंद आहत हुए। उनके मन में समाज में उपेक्षा का सामना कर रहे दलित वंचितों के प्रति दया-करूणा का भाव आया। इसके बाद उन्होंने समन्वयवाद का सिध्दांत दिया, जिसमें यह मत दिया कि ईश्वर भक्त की जात-पात में कोई भेद नहीं करते हैं। ईश्वर के सभी भक्त एक जाति के हैं। रामानंद के प्रसिध्द शिष्य़ों में कबीरदास, रैदास, नरहरिदास, अनंतदास, पद्मावती व कई अन्य थे। ये सभी प्रसिध्द समाज सुधारक हुए।

इन सब कारणों से रामानंद को भक्ति आंदोलनों के अनेक संतों में अग्रणी माना जाता है। उन्होंने न सिर्फ रामभक्ति को स्थापित किया, बल्कि समाज में छूआ-छूत को खत्म करने के लिए समन्वयवाद जैसा सिध्दांत भी प्रतिपादित किया था।

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