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अचूक टाइमिंग के बादशाह सहाराश्री टाइमिंग से चूके

saharasri1-56c19438837cc_exlstदस्तक टाइम्स एजेंसी/अपने चढ़ते दिनों में नई योजनाएं शुरू करते वक्त सहारा इंडिया के संस्थापक चेयरमैन सुब्रत रॉय सहारा की टाइमिंग अचूक हुआ करती थी। लेकिन कामयाबी के नुस्‍खे बताने वाली अपनी ताजा किताब “लाइफ मंत्रा” के मामले में वक्त का ख्याल नहीं रखा गया है।

हताशा में इस तथ्य की भी परवाह नहीं की गई है कि उस किताब से कौन प्रेरित होना चाहेगा, जिसका लेखक गरीब निवेशकों से धोखाधड़ी के आरोपों में दो साल से जेल में है? जमानत की बड़ी रकम का इंतजाम करने में हलकान कंपनी में कर्मचारियों को वेतन के लाले पड़े हुए हैं। हमेशा विश्वस्त समझे जाने वाले व्यापारिक साझेदार और राजनेता पल्ला झाड़ चुके हैं।

ऐसे में किताब की जानकारी रखने वाले साधारण पाठकों के मुंह से “खुद मियां फजीहत, औरों को नसीहत” कहावत सुनाई दे रही है। लखनऊ में हर कोई सुब्रत रॉय को जानता है क्योंकि वे कभी खुली गाड़ी में अपने वक्त के सबसे बड़े फिल्मी सितारों के साथ हजरतगंज में शॉपिंग किया करते थे। उनके पारिवारिक आयोजनों में प्रधानमंत्री आया करते थे। इसके अलावा 370 एकड़ का सहारा शहर किवदंती था, जहां शपथ लेने के बाद यूपी की सरकार नाश्ता करने जाया करती थी।

अब सहारा शहर के उपेक्षित बगीचों में लंबी घास उग आई है, जहां जानवर चरते दिखते हैं। व्यवस्था की जगह अनिश्चित भविष्य की आशंकाएं हैं, डेढ़ साल से कर्मचारी काम चलाऊ एडवांस पर काम कर रहे हैं। यह एडवांस भी कई महीने बाद मिलता है। कर्मचारी कंपनी के मालिकों के सब कुछ समेटने, बांधने और भागने की योजनाओं के किस्से सुनते-सुनाते दिन काटते हैं। उनकी सुरक्षा के लिहाज से यहां यह सब लिखना ठीक नहीं होगा।

सुब्रत रॉय सहारा के करीबी लोगों और कर्मचारियों में एक राय है कि उनका पतन सिर्फ अहंकार के कारण हुआ है। जब सिक्योरिटीज एंज एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) और अदालत से निर्देश आते थे, वे अखबारों में लाखों के विज्ञापन देकर बताया करते थे कि उन्हें कानून न सिखाया जाए, यह कि उन्हें बेवजह प्रताड़ित किया जा रहा है जबकि वे कट्टर देशभक्त हैं।

मुकदमा जब निर्णायक दौर में पहुंच गया तब भी वे बहाने कर अदालत में हाजिर होने से बचते रहे। कई मौक़ों पर उन्होंने ऑन रिकार्ड कहा कि वे खुद जजों को बहस में हरा सकते हैं। इन सब वजहों से अपनी साख बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए मजबूर हो गया। जिन दिनों मुसीबत की शुरूआत हो रही थी, मुझे सुब्रत रॉय सहारा का एक लंबा इंटरव्यू करने का मौका मिला था। मेरे लिए यह दुर्लभ मौका था। मैं उनकी जीवनी लिखना चाहता था।

सुब्रत रॉय ऐसे विलक्षण आदमी थे जिन्होंने लोकतंत्र और कानून के सुराख़ों से गुज़रने वाली व्यावहारिक सच्चाइयों के सहारे विशाल आर्थिक साम्राज्य ही नहीं खड़ा किया, वरन राष्ट्रवाद, देशभक्ति और परोपकार की छौंक लगाकर उसके चारों ओर एक नैतिक आभामंडल भी गढ़ने में कामयाब थे।

 

 

सब कुछ जानने के बावजूद देश का सबसे बड़ा अर्थशास्त्री भी उनकी कामयाबी का राज लिखकर नहीं बता सकता। साल 2005 में बहुत दिनों तक किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में नहीं दिखे। अफवाह उड़ी कि वे एड्स से मर गए, उनकी डमी से काम चलाया जा रहा है।

इसका नतीजा यह हुआ कि निवेशक अपना पैसा वापस मांगने लगे, कुछ कलेक्शन सेंटरों पर पथराव हुआ था। उन्होंने अपनी मौजूदगी और कंपनी पर नियंत्रण का सबूत देने के लिए एक पूरे दिन का फोटो सेशन रखा था। वे इसमें योग करते, गोल्फ खेलते और दौड़ते हुए दिखाए गए थे। सुब्रत रॉय ने यह इंटरव्यू प्रायोजित किया था।

वह इंटरव्यू कभी नहीं छपा, क्योंकि कंपनी के काबिल अफसरों ने उसे कई दिनों तक पढ़ा और आखिरकार विज्ञापनों की ताजा खेप के साथ अखबार में छापने के लिए एक नया इंटरव्यू थमा दिया।सहारा शहर के उनके ड्राइंग रूम में 66 लाख के जगमग, डेढ़ टन के विदेशी झूमर के नीचे, फिरकी बनी सुंदर सेक्रेटरियों के बीच मुलाकात निराशाजनक थी, क्योंकि वे जीवनी लिखने का बयाना किसी और को दे चुके थे। उन्होंने ठहाका लगाते हुए पहली बात कही, “हिंदुस्तान में तो मेरा रामनाम सत्य ही कर दिया गया था, एचआईवी का भी टेस्ट करा लिया है, कुछ नहीं निकला।” वे मुकदमेबाजी और कंपनी की माली हालत पर छपी खबरों से खासा खफा थे।

 

 

उन्होंने कहा, “आज इतनी मीडिया कंपनियां हो गई हैं कि सिर्फ साक्षर लोगों को पकड़ कर काम चलाना पड़ रहा है। इसलिए ऐसी गप्पें छपती हैं।”सुब्रत रॉय ने इसके बाद विस्तार से बताया कि उनकी सेहत रोज 20 घंटे काम करने से बिगड़ गई थी, सुबह चार-पांच बजे से पहले नहीं सो पाते थे। समय की इतनी कमी है कि झल्लाकर घड़ी तोड़ देने का जी करता है। लेकिन अब उन्होंने जिंदगी में पहली बार पूरी तरह फिट होने की ठान ली है।

साल 1988 से बेलगाम ब्लड प्रेशर योग से काबू में आ गया है, वजन 101 किलो से घटाकर 87 कर लिया है जिसे 82 तक लाना है, नब्बे प्रतिशत से अधिक शाकाहारी हो गए हैं, शराब बिल्कुल छोड़ दी है, खाने के शौक और समय की कमी के घालमेल के कारण ज्यादा खा जाते थे। लेकिन अब पेट को पहले से काफी छोटा कर लिया है। वे कह तो यह रहे थे कि बेटे बड़े हो गए हैं और वे संन्यास लेकर हिमालय जा सकते हैं। लेकिन साथ ही वे 2 लाख करोड़ की अनुमानित लागत वाले 25 नई परियोजनाओं का ब्यौरा देते हुए दूसरी पारी खेलने के मूड में लग रहे थे।

वे सुंदरवन को अमीर पर्यटकों का स्वर्ग बनाना चाहते थे और प्रवासी भारतीयों के यहां छूट गए मां-बाप के लिए एक केयर सर्विस लॉन्च करने वाले थे। सहारा एयरलाइन्स की नाकामी पर उन्होंने कहा, हमने सरकार से कहा, “हमको जमाई बोलो, टांग खिंचाई मत करो, भारत को एविएशन में अग्रणी बना देंगे। लेकिन राजनेताओं में जिगरा नहीं है, वे दृढ़ निश्चय से कुछ नहीं कर पाते।”

 

 

उनकी कई परियोजनाओं से पर्यावरण को खतरा बताया गया था, लिहाजा वे पर्यावरणविदों से भी खफा थे। उन्होंने कहा, “पर्यावरण के लिए चिल्लाने वालों को बाहर से पैसा मिलता है।

वे अपनी दुकान चलाने के लिए कुछ भी लिख सकते हैं, उन्हें तो फांसी पर लटका देना चाहिए।” बीच बीच में उन्हें अपने जगजाहिर वफादार दोस्तों की याद आती रही। वे बताते रहे कि कैसे रवीना टंडन ने सहारा ग्रुप में आने के लिए पिछली कंपनी से इस्तीफा दे दिया था।

शाहरुख खान का पैर टूटने पर उन्हें सारी व्यस्तताओं के बीच इलाज के लिए लंदन से डा. अली को भेजना याद रहा। अफसोस कि अमर सिंह के बच्चों के मुंडन में नहीं जा पाये। एक जगह जाता तो हर ऐसे आयोजन में जाना पड़ता, जिसके लिए समय नहीं है।

 

 

तीन घंटे के इंटरव्यू और डिनर के बीच मैंने अचानक देखा कि वे एक खंभे से टेक लगाए बांग्ला में कुछ अंसबद्ध सा बड़बड़ा रहे हैं। मैंने करीब जाकर कहा, कुछ अपने बारे में बताइए। उन्होंने जो कहा, वह संसार का आठवां आश्चर्य था। पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। लेकिन वे कह रहे थे- “इतना ग्लैमर हर कोई नहीं झेल सकता। कोई बिजनेस प्रतिद्वंदी नहीं है। मैंने लड़कों से कहा है कि ऐसा काम करो कि राइवल नहीं, फॉलोअर पैदा हों। हम लोग थोड़ा अक्खड़पन, क्वालिटी और क्लास मेन्टेन करते हैं।”

उन्होंने इसके आगे कहा, “मैं पॉलिटेक्निक कॉलेज के होस्टल में था तो मेरे पास चार कारें थीं। घर में टाटा बिड़ला डिनर पर आते थे। पिताजी को अगर डोंगे में एक क्रैक दिख जाए तो पूरा डिनर सेट तोड़ देते थे।” मुझे अचानक संतोष हुआ कि अच्छा हुआ उनकी जीवनी कोई और लिखेगा। उन्हें इतनी भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं कि वास्तविकता ही भूल गए हैं, उन्होंने एक नया अतीत भी बना डाला है।

सभी जानते हैं कि गोरखपुर में सहारा की शुरूआत एक मेज, एक लम्ब्रेटा स्कूटर और दो हजार की पूंजी से हुई थी। इस किवदंती पर यकीन दिलाने के लिए कंपनी ने वह स्कूटर और मेज आज तक एक शो केस में सजा रखी है।

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