दस्तक-विशेष

आपातकाल: एक आपबीती कहानी

आपातकाल। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय इतिहास का संक्रमण काल। एक निरंकुश सत्तालोलुप शासक द्वारा लोकतंत्र पर कुठाराघात और अधिनायकवादी व्यवस्था थोपने का काल। लाखों निरपराध नागरिकों के बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया या उपचार के अनिश्चितकाल तक कारागार में बन्द होने का काल। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्पूर्ण दमन का काल। 25 जून को आपातकाल थोपे जाने के दिन की सालगिरह है। इस महत्वपूर्ण अवसर पर आपातकाल के समय लगभग सोलह महीने तक कारागार में बंद रहे तब उन्नीस वर्ष के युवक और अब युनाइटेड किंगडम में एक वरिष्ठ गैस्ट्रोएंटरलॉजिस्ट के पद पर कार्यरत डॉक्टर प्रदीप सिंह की कलम से उनकी आँखों देखी कहानी की पहली किश्त, उस काले समय का एक प्रमाणिक दस्तावेज। हम चाहते हैं कि जो इतिहास के पन्नों पर जो ठीक से दर्ज  न हुआ से भी आप रूबरू हों।))

डॉ. प्रदीप सिंह

२६ जून 1975 की सुबह। मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एमबीबीएस के तीसरे वर्ष का छात्र था। गर्मी की छुट्टियों में अपने घर, बिहार के एक कस्बे भभुआ में था। सुबह रेडियो पर खबर आई कि पिछली रात अराजकता की स्थिति से निपटने के लिए और विदेशी शक्तियों के षड़यंत्र से देश को बचाने के लिए सारे देश में आपातकाल लागू हो गया है। आपातकाल क्या होता है- यह किसी को पता नहीं था। लोग तरह-तरह के अनुमान लगा रहे थे। अभी बड़े पैमाने पर हुई और हो रही गिरफ्तारियों का खुलासा नहीं हुआ था। मैं अकेले ही निकल गया झंझरिया पुल की तरफ जहाँ चाय की दुकानों पर जेपी आंदोलन से जुड़े लोग, खासतौर पर नौजवान (और प्रौढ़ भी), जमावड़ा लगाया करते थे और देश, राजनीति, विचारधारा, दर्शन जैसे विषयों पर बहसें किया करते थे। वे जोश और मासूमियत के दिन थे। गांधी, लोहिया, जयप्रकाश, पूँजीवाद, माक्र्सवाद से लेकर मंडेला, हिंदी साहित्य और शास्त्रीय संगीत तक पर बहसें (अधिकतर अधकचरी) हुआ करती थीं। वहीं मुझे उस कस्बे के मुझसे काफी वरिष्ठ पर तब भी नौजवान विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी तिवारी जी मिल गए। दोहरा शरीर, गौर वर्ण, रोबीला चेहरा, अद्घी का धवल श्वेत कुर्ता और धोती, नाचती हुई सी पिछली रात के भांग के सेवन से लाल आँखें। मैंने उनसे एक अज्ञानी छात्र की भाँति इमरजेंसी का अर्थ पूछा। उन्होंने अपने चिरपरिचित और चिरउपस्थित आत्मविश्वास के साथ बताया ‘‘इस्तीफा देगी। इस्तीफा देने के पहले इमरजेंसी लगाने का प्रावधान है’’! ध्यान रहे कि 12 जून को ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी की संसद की सदस्यता समाप्त कर दी थी और देश भर से इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र की माँगें उठ रही थीं।
वहीं झंझरिया पुल पर ही उड़ती-उड़ती सी खबर मिली कि दिल्ली और पटना में गिरफ्तारियाँ शुरु हो गई हैं और अखबार और रेडियो पर सेंसरशिप लग गई है। वहाँ बैठे हम नौजवानों को लगा कि हमें तुरंत ही किसी न किसी रूप में अपना विरोध दर्ज करना चाहिए। विरोध दर्ज करने के क्या परिणाम हो सकते हैं – इसका आभास हममें से किसी को नहीं था। ऐसी स्थिति इसके पहले देश में कभी आई नहीं थी। विरोध के लोकतांत्रिक अधिकार पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं लगा था। यह हमारे लिए और मुझे लगता है एक दो दिनों तक प्रशासन के लिए भी, नई स्थिति थी। हाँ, जब एक बार मुँह में खून का चस्का लगा तो फिर बात बदली। और हम लोग जोश में ज्यादा, होश में जरा कम थे।
बहरहाल हम नौजवानों ने कुछ लोगों को इकट्ठा किया और हम कचहरी की तरफ नारे लगाते हुए बढ़े। कचहरी का रास्ता कस्बे की मुख्य सड़क से जाता था और वहाँ से कोई आधा एक किलोमीटर लंबा था। हमारे लिए उस कस्बे में वहाँ की कचहरी ही हमारा जंतर-मंतर थी। ‘लोकनायक जयप्रकाश जिन्दाबाद’, ‘सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, सारा आकाश (या इतिहास!) हमारा है’ जैसे नारे लगाते हुए हम बढ़े और धीरे-धीरे रास्ते में और लोग भी जुड़ते गए। तब तक करीब दस बज चुके थे। मैं तो शुरू से ही मूर्खता की हद तक जोशीला (और गुस्सैल भी) था, सो सबसे आगे आगे था। कचहरी में जमकर नारेबाजी हुई और हमने संदेश भेजा कि हम कलेक्टर से मिलना चाहते हैं। थोड़ी देर में नौजवान सा कलेक्टर आया और उसने बावेला मचाने के लिए हमें धमकी दी। हम लोगों ने कहा कि हमें आपसे कुछ लेना देना नहीं है, हम लोकतंत्र पर इस प्रहार के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करने आए हैं। लेकिन बातों ही बातों में काफी गरमा-गरमी हममें (खास तौर पर मुझमें) और कलेक्टर में हुई। हम लोगों ने उसे हमें गिरफ्तार करने के लिए ललकारा। एक छोटे शहर में कलेक्टर का वही रुतबा होता है जो एक जमाने में मुगल बादशाहों का होता होगा। एक कलेक्टर की तौहीन इस्कुलिया लड़के करें, यह उसके लिए बर्दाश्त के बाहर था। थोड़ी देर में मामला हाथ से निकलने ही वाला था कि पता नहीं कहाँ से मेरे बड़े चाचा जी (बाबूजी के बड़े भाई) वहाँ अवतरित हुए और मेरा हाथ खींचकर वहाँ से ले गए। मेरे चाचा जी, जिन्हें हम सब लोग (मेरे पिताजी भी) दादा कहा करते थे, अक्सर मुकदमों वगैरह के सिलसिले में कचहरी जाने के लिए भभुआ आते थे और उस समय संयोग से वहीं थे। उनका बड़ा रोब था। मेरे जैसे लोगों की तो उनसे बात करने की हिम्मत का सवाल ही नहीं था, बाबूजी भी उनसे कभी मजबूरी में ही बात करते थे और उन्हें सरकार कह कर बुलाते थे। ‘आप क राउर का विचार बा’ की जगह ‘अपने के का सोचल जात ह’ वाला लिहाज का जमाना था ।
दादा मुझे घर ले गए (बाद में पता चला उस कलेक्टर को वे जानते थे), पढ़ने लिखने की सलाह दी और फालतू के चक्करों में न पड़ने के लिए आगाह किया। बाबूजी ने कुछ नहीं कहा। तबतक आपातकाल का मतलब क्या हो सकता है थोड़ा बहुत समझ में शायद आया और मेरे घर वालों ने मुझे बनारस रुइया छात्रावास (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) वापस भेज दिया ।
मैं भभुआ में गिरफ्तार होते होते बचा और वापस रुइया छात्रावास पहुँच गया। मेडिकल स्कूल की उबाऊ पढ़ाई-लिखाई का दौर शुरु हुआ। मुझे यह पढ़ाई लिखाई ज्यादा रास न आई खासकर एक ऐसे समय में जब देश में आदमी का आदमी की तरह जीना मुहाल हुआ हो। हम दिनमान और सारिका वाले लोग थे, ॅ१ं८’२ अल्लं३ङ्मे८ से अधिक दिलचस्पी मार्टिन लूथर किंग की आत्मकथा में थी। अंधेरे बंद कमरे जैसे उपन्यास हाई स्कूल के पहले पढ़ चुके थे। स्पेन के गृहयुद्घ के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी हो गई थी। साथ में ळँङ्में२ ऌं१८ि से लेकर। अ’्र२३ं्र१ टूछींल्ल और कर्नल रंजीत तक में भी घुसपैठ थी। दिल में दर्द था। हृदय उद्वेलित था। मुझे याद है मेरी अपने पढ़ाकू सहपाठियों से जो ‘छात्रों को राजनीति से क्या मतलब, हमारा काम पढ़ना है’ टाइप जीवन दर्शन को अपना धर्म मानते थे और मेरे जैसों को देहाती भुच्चड़ मानते थे, अक्सर बहस हो जाती थी। मुझे समझ ही नहीं आया कि कोई कैसे अपने पड़ोसी पर हो रहे अत्याचार से बिल्कुल अछूता निर्लिप्त भाव से ‘अपने काम से काम’ रख सकता है? जयप्रकाश जी के लिए श्रद्घा का भाव था। वही पुराना भारतीय शब्द जो इतना पवित्र है और जो आज धूल में मिला दिखता है। चारों तरफ छाए अंधेरे में जयप्रकाश जी मेरे जैसों की दृष्टि में प्रकाशपुंज की तरह हमारे आकाश में उतरे थे। एक ही रास्ता दिखता था। और उस रास्ते के सामने पढ़ाई-लिखाई, घर परिवार, कैरियर सब फीके थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बचपन से रिश्ता था। रिश्ता ऐसा था कि एमबीबीएस के प्रथम वर्ष में मैंने हाफ पैंट पहन कर और डंडा लेकर रुइया छात्रावास में शाखा लगानी शुरू की थी। यह कैसी हास्यास्पद होने की हद तक अजीब बात है और ऐसा करने के लिए कितने मूर्खतापूर्ण हठ की जरूरत है – इसका अनुमान कोई मेडिकल छात्र ही लगा सकता है। प्रथम वर्ष के छात्र की हैसियत वही होती थी जैसे पुराने जमाने में वेदपाठी ब्राह्मण के सामने अस्पृश्य शूद्र की। जनूनी दिन थे ।
हम आठ दस लोग इकट्ठा हुए। हममें से कोई भी जाना-पहचाना छात्र नेता नहीं था। जाने पहचाने चेहरे या तो पहले ही अंदर थे, या भूमिगत थे, या फिर पाला बदल कर युवा कांग्रेस के पंच सूत्री कार्यक्रम में जोर शोर से हिस्सा लेने लग गए थे, या फिर ‘हमें राजनीति से क्या, हम तो पढ़ने लिखने वाले लोग हैं’ वाली विचारधारा को स्वीकार कर जीवन में आगे बढ़ रहे थे। मेरे जैसों और मेरे अधिकांश मित्रों के चेहरे जाने पहचाने न थे क्योंकि हमारा नेतागिरी (कितना घटिया लेकिन कुछ हद तक सही शब्द है) का कोई रेकार्ड नहीं था। और उसके अतिरिक्त किंवदंती थी कि मेडिकल और इंजीनियरिंग वाले लड़के सीधे होते हैं, पढ़ाई लिखाई से सरोकार रखते हैं और फालतू के बवाल में नहीं फँसते। ऐसे पढ़ाकू छात्रों का रुइया छात्रावास ऊल-जलूल हरकतों का केन्द्र बन सकता है – यह अभी तक विश्वविद्यालय प्रशासन और पुलिस के ध्यान में न था। फिर भी हमारे पुराने मित्र जो छात्र राजनीति में जाने पहचाने चेहरे थे और अब जिनका कायाकल्प हो गया था और जो पढ़ाई लिखाई में लग गए थे, उन्हें हमारी हरकतों का भान था। लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि हम उनसे किनारा नहीं करते थे, वही हमें देख कन्नी काट लेते थे हालाँकि हम लोगों को कोई जानता नहीं था और उनके साथ देखे जाने से खतरा हमें अधिक था।
जब मैं वापस अपने छात्रावास पहुंचा तो मैंने देखा कि विश्वविद्यालय परिसर एक कारागार में तब्दील हो रहा था। एक मुख्य द्वार के अतिरिक्त सारे द्वार बंद कर दिए गये थे और रात में एक समय के बाद विश्वविद्यालय में घुसने वालों की जाँच होने लग गई थी। पुलिस, विश्वविद्यालय प्रशासन और युवा कांग्रेस के नेताओं में अच्छा तालमेल दिख रहा था। उस समय विश्वविद्यालय के कुलपति इरफान हबीब और रोमिला थापर के हमबिरादर प्रसिद्घ इतिहासविद कालूलाल श्रीमाली थे। श्रीमाली जी प्रगतिशील जनवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्घता के लिए जाने जाते थे। परिसर में स्थित संघ भवन को रातों रात तुड़वा वहाँ लॉन बनाकर उन्होंने तत्कालीन सरकार में अपनी साख और पुख्ता की थी। जयप्रकाश जी जैसों को वे पूँजीपतियों का दलाल और प्रतिगामी राजनीति का अगुआ मानते थे। ऐसा माना जाता है कि श्रीमाली कम्युनिस्ट थे लेकिन कांग्रेस सरकार में भी उनकी ऊँची पैठ थी। ध्यान रहे कम्युनिस्ट उस जमाने में कांग्रेसियों से बढ़-चढ़ कर इंदिरा गांधी का समर्थन करते थे। सीपीआई के स्टूडेंट्स फेडरेशन और कांग्रेस के छात्र संगठन में बड़ा याराना था। विश्वविद्यालय के भारी भरकम गुंडे इन दोनों संगठनों में अगुआ थे और कई बार यह तय करना मुश्किल था कि कौन शख्स कम्युनिस्ट है और कौन कांग्रेसी। और बुद्घिजीवियों की तरह यह तय करना मुश्किल था कि कालूलाल श्रीमाली कांग्रेसी थे या कम्युनिस्ट। ऐसा घनघोर याराना था दोनों पार्टियों में। जिन लोगों ने वह दौर नहीं देखा है उन्हें मेरी बात कपोल कल्पित लग सकती है।
बहरहाल, अपनी आदत से मजबूर मैंने अपने मित्रों को इकट्ठा किया और विश्वविद्यालय के अंदर और बाहर गुप्त बैठकों का दौर शुरू हुआ। विश्वविद्यालय के बाहर की सारी बैठकें संघ के कुछ लोग चलाते थे। जैसा मैंने पहले कहा अधिकांश छात्रनेता या तो पाला बदल चुके थे, या पढ़ाई लिखाई में गंभीरता से लग गये थे। थोड़े से अंदर हो गए थे और कुछ भूमिगत थे। रणभेरी नाम का एक साइक्लोस्टाइल्ड एक पन्ने का ‘अखबार’ छपता था जिसमें भूमिगत गतिविधियों के बारे में कुछ जानकारी रहती थी जिसे मुख्यत: मनोबल कायम रखने के लिए जनता में बाँटने का कार्यक्रम था। कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यह काम कितना खतरनाक था। ध्यान रहे उस जमाने में हर जगह फोटोकापियर नहीं थे कि उसकी कापियाँ कहीं भी बना ली जायँ। यह ‘अखबार’ हाथ से लिखा होता था जिसकी प्रतियाँ शहर में किसी जगह भूमिगत साइक्लोस्टाइल मशीन से छापी जाती थीं। इनको कारागार जैसे विश्वविद्यालय में लाना कोई मामूली काम न था और फिर उन्हें विश्वविद्यालय परिसर में लाकर वितरित करने तक कहाँ रखा जाय – यह भी एक समस्या थी। हर तरफ जासूसों और मुखबिरों का जाल था। हमने सोचा कि रुइया चूँकि पढ़ाकू, अपने काम से काम रखने वाले मेडिकल छात्रों का छात्रावास था इसलिए वहाँ वितरित करने तक उसकी कापियाँ रखने पर शायद पुलिस को शक न हो। और मैं क्योंकि बहुत मरियल सा जूनियर विद्यार्थी था तो मेरा कमरा ही उसके लिए उचित स्थान समझा गया। एक समस्या यह थी कि मेरे रूममेट से यह बात कैसे छिपाई जाय। लेकिन यह कोई मुश्किल बात नहीं साबित हुई। मेरे रूममेट बहुत ही सीधे सज्जन अपने काम से काम रखने वाले एक व्यक्ति थे जिन्हें उनकी बढ़ी हुई उम्र के कारण (कई साल बड़े थे, विवाहित थे, और मेडिकल स्कूल में दाखिले के पहले किसी स्कूल में शिक्षक थे) हम सब, यहाँ तक कि उनसे वरिष्ठ छात्र भी मास्टरजी कहकर बुलाते थे। तो साहब, मास्टरजी की गैर जानकारी में मेरा कमरा भूमिगत साहित्य का स्टोर सा बनने लग गया। शहर से कोई नौजवान तय समय पर सामग्री लाता था और मास्टरजी की आँख चुराकर मेरे कमरे में सामान छुपा कर रख दिया जाता था। मेरे छात्रावास में मुझसे सीनियर एक सज्जन अवश्य थे जो मुखबिरों में शायद शामिल थे। उनका युवा कांग्रेस, छुटभैए गुंडे और कम्युनिस्टों से बड़ा याराना था। मजेदार बात यह है कि इन्हीं सज्जन ने आपातकाल समाप्त होने के बाद समाजवादी युवजन सभा के टिकट पर छात्रसंघ के अध्यक्ष का चुनाव लड़ा और बाद के दिनों में विश्व हिन्दू परिषद के सम्मानित नेता बने। गनीमत यह थी कि उनका कमरा जो तरह-तरह के लोगों की बैठकी का स्थान था, मेरे कमरे से दूर छात्रावास के दूसरे कोने पर था। यहाँ यह भी बताता चलूँ कि बाबूजी को मेरी हरकतों के बारे में मालूम था। कहने की जरूरत नहीं है कि इन हरकतों के क्या परिणाम हो सकते थे उससे वे नावाकिफ न थे। उनके लड़के का कैरियर भस्म हो सकता था । बेरोजगारी के उन दिनों में एक मामूली परिवार के लिए मेडिकल स्कूल में दाखिले का क्या महत्व था यह समझने में उस जमाने के लोगों को शायद ज्यादा दिक्कत नहीं आनी चाहिए। एक बार मेरी माँ ने चिन्ता जाहिर की तो उनका उत्तर था : ‘जवन ऊ करत होइहं ठीके करत होइह’ ।
विश्वविद्यालय परिसर में पूरे देश की तरह सन्नाटा छाया था। सारे अखबार विरुदावली गा रहे थे। रेडियो (उस जमाने में बनारस जैसे शहर में टेलीविजन नहीं था) उत्तर कोरियाई तर्ज पर महान नेता की अगुवाई में शांति और प्रगति के राजपथ पर देश के मार्च के बखान में लग गया था। महान संत विनोबा भावे ने, जिनके शिष्यत्व में जयप्रकाश जी ने जीवन का एक बड़ा हिस्सा समर्पित किया था, अपने आश्रम में मौन व्रत धारण कर लिया था। जनवादी बुद्घिजीवी समवेत स्वर में आपातकाल को सर्वहारा क्रांति का पहला कदम सिद्घ करने में लग गए थे। उनका दावा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वायत्तता जैसी अवधारणाएँ खाए पिए बुर्जुवा वर्ग के शुगल ही नहीं बल्कि पूँजीवादी प्रतिक्रांति के हथियार हैं और सर्वहारा के रोटी, कपड़ा, मकान की जद्दोजहद में रोड़ा हैं। देश में आयी महान क्रांति के आदर्शों के प्रति प्रतिबद्घता बुद्घिजीवियों का धर्म बना। हर क्षेत्र में प्रतिबद्घता, खास तौर पर न्यायपालिका की इन नये आदर्शों के प्रति प्रतिबद्घता, पर हमारे बुद्घिजीवियों ने बहुत बल दिया। उनकी दृष्टि में जो प्रतिबद्घ नहीं था वह पूँजीपतियों का दलाल और सर्वहारा का दुश्मन था। दिनमान जैसा प्रखर पत्र जिसके सम्पादक एक जमाने में सच्चिदानंद हीरानंद अज्ञेय और रघुवीर सहाय हुआ करते थे, अब चुप था। सारे नियमों की ऐसी की तैसी कर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर प्रतिबद्घ जज ए एन रे को नियुक्त कर दिया गया। यही वे रे थे जिनकी अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय की बेंच ने संविधान में दिए गए नागरिक के जीवन के अधिकार के छीने जाने को सही करार दिया और यहाँ तक कहा कि यदि सरकार चाहे तो बिना कारण बताए किसी भी नागरिक का जीवन ले सकती है। यही था देश का वह शांत परिदृश्य जिसमें लोगों का दावा है कि अधिकारी समय पर दफ्तर जाते थे और रेलगाड़ियाँ समय पर चलती थीं।
बेचारे मास्टरजी को मेरी गतिविधियों का गुमान न था। हम लोग रात के अंधेरे मे चुपके से रणभेरी की प्रतियाँ खास-खास स्थानों पर चिपकाते थे। एक खास समय तय कर और अपनी घड़ियाँ मिलाकर हमलोग किसी चौराहे पर इकट्ठा होकर ‘लोकनायक जयप्रकाश जिन्दाबाद’, ‘सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है’ जैसे नारे लगाते थे और पाँच मिनट के अंदर वहाँ से भाग जाते थे । पाँच मिनट से अधिक समय हमारे पास न होता था क्योंकि इतने समय में तो पुलिस की सायरन बजाती गाड़ी हमारी तरफ आ रही होती थी। हम गिरफ्तारी नही चाहते थे क्योंकि हमारी संख्या कम थी और हम यह कार्यक्रम कुछ दिनों तक चलाना चाहते थे। फिर भी हममें से एक थोड़ी गलत फहमी के कारण भागते भागते गिरफ्तार हो ही गया – यह सज्जन इस समय लोकसभा सांसद और केन्द्रीय सरकार में मंत्री हैं। एक और मजेदार बात यह थी कि इस गिरोह में मेरे अतिरिक्त मेरा हमनाम एक सहपाठी भी था जो लिहाज के मारे इन हरकतों में भाग लेता था। उसकी खुद राजनीति में इतनी दिलचस्पी न थी, लेकिन वह मुझे मना नहीं कर सकता था। इस चक्कर में वह खुद जेल चला ही गया होता – जिसकी चर्चा अगली बार।
विश्वविद्यालय परिसर पुलिस छावनी में तब्दील हो चुका था। पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन को शक था कि पंद्रह अगस्त को कुछ बावेला मच सकता है। घुसने का एक ही द्वार – मुख्य द्वार। रिक्शे वालों, साइकिल सवारों तक की जाँच। हमें लगा कि स्वतंत्रता दिवस अब परतंत्रता दिवस में बदल गया है और हमें किसी भी सूरत में यह दिन सांकेतिक ही सही पर बिना विरोध प्रदर्शन के नहीं निकलने देना चाहिए। लेकिन विरोध कैसे और किस तरीके से हो यह तय करना आसान नहीं था। राष्ट्रध्वज उपकुलपति श्री कालूलाल श्रीमाली द्वारा पुलिस के भारी बंदोबस्त में एम्फीथिएटर में फहराया जाना था। हमारे पास लोग कम थे। किसी निर्धन के एकाउंट की तरह हमें इन थोड़े से लोगों को कम से कम खर्च कर उनसे अधिक से अधिक मूल्य वसूलना था। लेकिन हम यह भी चाहते थे कि हमारे प्रदर्शन का नेतृत्व कोई जाना पहचाना चेहरा करे जिससे छात्रों पर उसका धमाकेदार असर पड़े। ऐसा ही एक नाम हम सब लोगों ने सोचा। छात्रसंघ के भूतपूर्व उपाध्यक्ष और दबंग और बहादुर छात्र नेता महेन्द्रनाथ सिंह। उनके नाम से पहले से ही वारंट था और वे भूमिगत थे। हमलोगों ने तय किया कि महेन्द्रनाथ सिंह एम्फीथिएटर में भारी भीड़ की मौजूदगी में और उपकुलपति के सामने सत्याग्रह कर गिरफ्तारी देंगे।
महेन्द्रनाथ सिंह जैसे जाने माने चेहरे को विश्वविद्यालय परिसर के अंदर ले आना और वह भी पंद्रह अगस्त के दिन-बड़ी चुनौती थी। हमने सोचा कि पंद्रह अगस्त के दिन शायद वे घुसने में सफल न हो पाएँ और हमारी योजना पर पानी फिर जाए। इसलिए 14 अगस्त की रात को ही हम लोगों ने बस मे बिठा कर और थोड़ा बहुत वेशभूषा में परिवर्तन कर उन्हें परिसर में सफलतापूर्वक २े४ॠॠ’ी कर लिया। वे हमेशा कुर्ता पायजामा पहनने वाले व्यक्ति थे, उन्हें पैंट शर्ट पहनाया गया, मूँछें उन्होंने साफ कीं, सर पर गमछा लपेटा और बस से रुइया छात्रावास के सामने उन्हें उतार दिया गया। रुइया इसलिए कि वह घोर अराजनीतिक मेडिकल लड़कों का छात्रावास था और वहाँ पुलिस को शुबहा होने का खतरा कम था। उन्हें मेरे कमरे में बिठा दिया गया। अब उनको सुबह होने तक रात भर कहाँ रखा जाय- यह एक बड़ी समस्या थी। कोई पहचान न ले, प्रशासन को खबर न लग जाए और हमारा सारा खेल न बिगड़ जाए। मेरा कमरा किनारे था, वहाँ देखे जाने का खतरा कम था। लेकिन मेरे कमरे में मास्टरजी थे और हालाँकि मेरा चेहरा बहुत पहचाना हुआ नहीं था, फिर भी मेरे राजनीतिक विचारों के कारण लोगों को मेरे बारे में शक की चिन्ता थी। मेरे दिमाग में मेरे हमनाम सहपाठी के कमरे का ख्याल आया। आप सोच सकते हैं कि ऐसे वक्त में इस तरह के आदमी को अपने कमरे में रखना कितनी खतरनाक और कितनी मूर्खतापूर्ण हरकत थी खास तौर पर तब जब कि मेरे मित्र की राजनीतिक घटनाक्रम में उतनी दिलचस्पी नहीं थी। यह भी सोचिए कि ऐसी बात पूछने के लिए किस तरह का विश्वास चाहिए। लेकिन मेरा वह दोस्त ऐसा वैसा दोस्त न था और न है। मेरे कहते ही मान गया और मुझे चाबी थमा दी। वह अपने कमरे में अकेला ही था। लेकिन उसके कमरे के साथ दो बड़ी समस्याएँ थी। पहली तो यह कि उसका कमरा मुख्य सड़क के सामने था, हर एक आते जाते को दिखता था। और दूसरा खतरा यह कि उसके ठीक बगल का कमरा अड्डेबाजी का ठिकाना था जहाँ करीब-करीब रोज विश्वविद्यालय के छोटे-मोटे छुटभैए गुंडे, राष्ट्रीय छात्र कांग्रेस के नेता और ऐसे तमाम मुखबिर टाइप के लोग बैठकी लगाते थे। हम लोगों ने धीरे से उन्हें उस कमरे में अंदर कर बाहर से ताला लगा दिया। मेस से कुछ भोजन लाकर भी धीरे से अंदर किया।
स्वतंत्रता दिवस पन्द्रह अगस्त की सुहानी सुबह।
रात भर महेन्द्रनाथ सिंह मेरे मित्र के कमरे में बंद रहे। अंदर रोशनी बुझा दी थी, बाहर से ताला लगा दिया था ताकि सबको लगे कि कमरे में कोई नहीं है। खाना अन्दर करने में बगल के मुखबिरी कमरे में कुछ सुनगुन हुई लेकिन भाग्यवश उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया ।
सुबह एक रिक्शा बुलाया। थोड़ा वेश बदल कर पैंट शर्ट पहन कर वे रिक्शे पर बैठे और समारोह स्थल की तरफ रवाना हुए। भाग्य ऐसा था कि इतने मशहूर चेहरे को किसी ने नहीं पहचाना। हम पाँच-छ: लोग अलग से समारोह स्थल पर घुसे और अलग-अलग बैठ गए। हम अपने साथ ढेर सारे पैम्पलेट (रणभेरी) छुपा कर अंदर ले गए थे। भीड़ शायद पिछले वर्षों के मुकाबले कम थी। पुलिस के लोग भारी संख्या में थे क्योंकि उन्हें शायद गड़बड़ी का अंदेशा था। शांतिपूर्ण अनुशासित माहौल में कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। बच्चों ने कोई कार्यक्रम किया। फिर जैसे ही उपकुलपति श्री कालूलाल श्रीमाली झंडा फहराने के लिए खड़े हुए पीछे से नारा गूंजा – लोकनायक जयप्रकाश जिन्दाबाद जिन्दाबाद। यह नारा हमारा मंत्र या फिरुं३३’ीू१८ हुआ करता था। महेन्द्रनाथ सिंह ने ऊंचे स्वर में नारा लगाया – लोकनायक जयप्रकाश और हमने जवाब दिया – जिन्दाबाद जिन्दाबाद। हमने हवा में रणभेरी की प्रतियाँ उछालीं। यह सिलसिला कोई दो तीन मिनट तक ही चल पाया होगा। चारों तरफ अफरा-तफरी मच गई। लोग सन्नाटे में आ गए कि इतनी पुलिस के होते हुए और इतने भय के माहौल में और ऐसे मौके पर ऐसा कैसे हुआ। भगदड़ मच गई। पुलिस वालों ने महेन्द्रनाथ सिंह को धर दबोचा। पुलिस की गाड़ियों के सायरन से वातावरण गुंजायमान हो गया और उसी भगदड़ में हम बाकी लोग भाग निकले। हम लोग मामले के शांत होने की प्रतीक्षा में दो तीन घंटे परिसर में ही रहे। फिर हम धीरे से शहर निकल गए। हमें मालूम था कि इस घटना के बाद हमारी गिरफ्तारी किसी भी वक्त हो सकती है।
फिर शुरू हुआ भूमिगत होने का सिलसिला। शहर की एक गली में एक पुराने मकान में एक तमिल परिवार के साथ लंबा समय बीता। महेन्द्रनाथ सिंह का सत्याग्रह और उनकी गिरफ्तारी तो शानदार तरीके से हो गई । विश्वविद्यालय परिसर में सायरन बजाती पुलिस की गाड़ियों की आवाज थोड़ी देर गूँजी। मुख्य द्वार पर चौकसी बढ़ा दी गई। ऐसे में वापस छात्रावास जाना भी मुश्किल था, गिरफ्तारी का अंदेशा था। परिसर से बाहर निकलना भी पुलिस छावनी के घेरे से बाहर निकलने जैसा था। लेकिन मैं मामूली छात्र था, नेतागिरी में नहीं था, चेहरा इतना जाना पहचाना नहीं था। सो तीन चार घंटे परिसर में इधर-उधर घूमने के बाद धीरे से मुख्य द्वार से बाहर निकल शहर की ओर रुख किया । कोई सामान वगैरह था नहीं क्योंकि छात्रावास के अपने कमरे में तो जा नहीं पाया था। शहर में जिन लोगों से सम्बन्ध था, उन्होंने मेरे और मेरे एक और साथी के लिए जो उस समय विश्वविद्यालय के छात्र संघ के धाकड़ महामंत्री थे और आपातकाल घोषित होने के समय से ही जिन्हें पुलिस तलाश रही थी (और जो अब इस लोकसभा के सदस्य हैं) पक्के महाल में एक दक्षिण भारतीय परिवार के घर में ऊपरी मंजिल पर एक कमरे में रहने का इंतजाम कर दिया था। यह परिवार संघ से जुड़ा था, लेकिन मुझसे इनकी पहले से कोई जान पहचान नहीं थी। तुलसी सुब्रह्मण्यम जोशी नाम था उस घर के युवा मित्र का जिन्होंने बड़े प्रेमपूर्वक भारी खतरा मोल लेते हुए हमारी वहाँ छिपने की व्यवस्था की थी। परिवार के साथ बैठकर हम दोनों ने भोजन किया और रात उस कमरे में सोये। ज्यादा और अनावश्यक आवाजाही की मनाही थी। तड़के सुबह चाय के बाद मैंने डरते-डरते विश्वविद्यालय की तरफ रुख किया। मन में शंका तो थी कि कहीं मेरे बारे में पुलिस को पहले से ही पता न चल गया हो। मेरे छात्रावास में एक सज्जन थे जिनके यहाँ तरह-तरह के लोगों की बैठकी लगती थी और उनका पुलिस, प्रॉक्टर आफिस, कांग्रेस और कम्युनिस्ट छात्र नेताओं से बड़ा याराना था। मैं पैदल ही परिसर में घुसा। रुइया छात्रावास के थोड़ा पहले ही कुलपति निवास था। वहाँ मैंने देखा कि कुलपति श्री कालूलाल श्रीमाली कुछ पुलिस अधिकारियों के साथ अपने लॉन में टहलते हुए गुफ्तगू में मशगूल थे। यहाँ यह भी बताता चलूँ कि महान वामपंथी बुद्घिजीवी और इतिहासविद श्रीमाली उस जमाने में कुलपति कम थे, एसपी या डीआईजी अधिक थे। वे उस पद पर थे जिस पर आचार्य नरेन्द्रदेव और सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन जैसे लोग पहले बैठ चुके थे।
उनको पुलिस के साथ बातचीत करते देख मुझे कुछ शंका हुई कि शायद मेरा भांडा फूट न गया हो। जैसे ही मैं रुइया छात्रावास में बगल वाले छोटे दरवाजे से घुसा, किसी छात्र ने, जिसका नाम मुझे अब याद नहीं है, अन्दर न घुसने के लिए इशारा किया। मैं उलटे पाँव वहीं से लौट गया। बाद में मालूम हुआ कि भोर में तीन बजे मेरे कमरे पर पुलिस का छापा पड़ चुका था। मेरे रूममेट बेचारे मास्टर जी को मेरी कारस्तानियों का कोई अंदेशा नहीं था। पुलिस ने जब दरवाजा खटखटाया तो बेचारे स्वाभाविक रूप से डर गए। उनको पुलिस ने बहुत डाँटा फटकारा, जैसी कि प्रथा है गाली-गलौज से सम्मान किया, पूछताछ की, कमरे की तलाशी ली और मेरा सारा सामान उठा कर ले गई। मुझे इस बात का अंदेशा पहले से था, इसलिए भूमिगत साहित्य तो मैं अपने कमरे में रखता नहीं था, मेरे नादान हमनाम गैर राजनीतिक मित्र का कमरा उसके लिए इस्तेमाल होता था।
मैं धीरे से वापस शहर निकल गया। मेरे नाम वारंट निकल चुका था। फिर शुरू हुआ भूमिगत जीवन का सिलसिला। मैं और मेरे मित्र, जो उस समय छात्र संघ के महामंत्री थे, पक्के महाल के उस दक्षिण भारतीय परिवार के मकान में ऊपर के एक कमरे में रहने लगे। उसी परिवार के साथ भोजन। बाहर कम ही और सावधानी से निकलना। थोड़ा बहुत पढ़ना लिखना। शहर में कभी जो बैठकें होती थीं, उनमें हिस्सा लेना जारी था। मुझे याद है उस समय श्री अशोक सिंहल संघ के भूमिगत कार्य और उसके अन्य संघटनों से को-आर्डिनेशन के काम के सिलसिले में बनारस आए थे और विजया सिनेमा के पास एक मकान में बैठक हुई थी और मैं वहाँ गया था। अपने छात्रावास जाना तो संभव नहीं था किन्तु हिम्मत करके मैं कभी-कभी परिसर में जाता था। वहाँ आइटी (इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी) छात्रावास में मेरे जैसे जो मित्र थे, उनके साथ बैठकर हम लोग आगे की योजनाएँ बनाते थे। रात के अंधेरे में हाथ से लिखे पोस्टर चिपकाना, रणभेरी की कापियाँ छात्रावासों में ऐसी जगहों पर रखना जहाँ लोगों को दिखे और लोग पढ़ें- यह काम चलता रहा। रात को हम- लोगों का किसी चौराहे पर एक निश्चित समय पर लोकनायक जयप्रकाश जिन्दाबाद के नारे लगाना और पुलिस के आने के पहले तितर-बितर हो जाना- यह सब बदस्तूर जारी था। इसी में एकदिन कन्फ्यूजन में हमारे एक साथी की गिरफ्तारी हो गई। इन सज्जन ने आपातकाल समाप्त होने के बाद विद्यार्थी परिषद के टिकट पर छात्रसंघ के महामंत्री का चुनाव जीता और अब लोकसभा सांसद और केंद्रीय सरकार में मंत्री हैं। खबर फैली कि जयप्रकाश जी करीब करीब मृतप्राय स्थिति में रिहा किए जाने वाले हैं। हमलोग इस बात से बहुत उद्वेलित थे और फिर कोई जोरदार विरोध दर्ज करना चाहते थे। इस बीच भूमिगत जीवन के मेरे साथी शहर में या कहीं और, अब याद नहीं है, पकड़ लिए गए और जेल चले गये।
तय हुआ कि हम तीन – मैं और आइटी के दो मित्र सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तारी देंगे।
जयप्रकाश जी के जेल से रिहा होकर जसलोक अस्पताल बंबई में मरणासन्न स्थिति में भर्ती होने की खबर फैल चुकी थी। देश में सन्नाटा छाया था। बीस सूत्री कार्यक्रम की विरुदावली गायी जा रही थी। कम्युनिस्ट (सीपीआई) लोग कांग्रेसियों की गलबहियां लेते हुए अदृश्य फासिस्ट, प्रतिक्रियावादी और अराजक ताकतों के खिलाफ मोर्चा खोल रहे थे। प्रगतिशील साहित्यकार (बहुत से नाम हैं, प्रतिष्ठित हैं आज भी) इस अदृश्य फासिस्ट खतरे से देश को बचाने की मुहिम में प्रधानमंत्री के कंधे से कंधा मिलाकर पर्चों, पत्रिकाओं, गोष्ठियों में जनवादी संघर्ष में लग गए थे। जयप्रकाश जी मरणासन्न थे। कारागर से छोड़ने के पहले उनके परिवार की- वे जीवित हैं या मृत, कहाँ हैं – जैसे फासिस्ट प्रश्नों का उत्तर देने की जहमत इंदिरा गांधी ने – वही इंदिरा गांधी जो जयप्रकाश जी को चाचा कह कर बुलाती थीं और जिनसे उनके पुराने पारिवारिक सम्बन्ध थे – नहीं उठाई। जयप्रकाश जी के भूदान आंदोलन के दशकों से रहे गुरु संत विनोबा भावे मौन व्रत में थे। रेलगाड़ियाँ ‘समय से चल रही थीं’। लोग ‘समय से दफ्तर जा रहे थे’। देश में घनघोर और भयावह शान्ति का साम्राज्य था। प्रतिबद्घ साहित्य, पत्रकारिता, न्यायपालिका के नारे हवाओं में बुलंद थे। न्यायपालिका महान नेता के चरणों में आत्मसमर्पण कर चुकी थी । उनकी दृष्टि में अब एक नागरिक का जीवित रहने का अधिकार भी संविधान के मुताबिक सरकार की दया पर निर्भर था ।
यह थी वह पीठिका उस समय की जब हम काशी हिन्दू विश्विद्यालय के तीन छात्रों ने सत्याग्रह कर गिरफ्तारी देने का निर्णय किया। हमें मालवीय जी की प्रज्ञावान धरती को, जो सदा राजनीतिक और बौद्घिक जीवंतता का केन्द्र रही, कायरता की लज्जा से उबारना था।
जाड़ों का सुन्दर दिन। खिली हुई धूप। दोपहर का समय। मैं और आइटी के मेरे दो मित्र कला संकाय की बिल्डिंग में घुसे। कला संकाय का चयन इसलिए किया कि हमें लगा कि कला संकाय विश्वविद्यालय में सबसे प्रबुद्घ जगह है और वहाँ हुए हंगामे का सबसे अधिक प्रभाव पड़ेगा। हमारे पास पूँजी कम थी और उसे हमें संभाल कर खरचना था।
हम तीनों सीढ़ियों से ऊपर की मंजिल में गए। वहाँ एक क्लास चल रही थी। एक शिक्षक महोदय छात्रों को कुछ पढ़ा रहे थे। हम दरवाजे पर खड़े हुए। मैंने उनसे निवेदन किया कि हमें छात्रों से बात करने का मौका दिया जाय। इस प्रकार की बात अभूतपूर्व अनुशासन और शांति के उस दौर में एक अजूबा थी। 

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