उत्तर प्रदेशदस्तक-विशेष

उत्तर प्रदेश में दलित वोट के लिये दे दनादन

यूपी की राजनीति में बसपा का उदय ही दलित हितों के नाम पर हुआ था। चुनाव के समय हमेशा ही यह देखने को मिलता था जिधर भी करीब 22 प्रतिशत दलित वोटर झुक जाते थे उस पार्टी का पलड़ा भारी हो जाता था। जब तक दलित बसपा के साथ रहे तब तक बसपा सुप्रीमो मायावती का सिक्का मजबूती के साथ चलता रहा और जब यह वोटर बीजेपी की तरफ चले गये तो बीजेपी की बल्ले-बल्ले हो गई। कांगे्रस भी दलित वोट बैंक के सहारे दशकों तक देश-प्रदेश पर राज कर चुकी है। आज यूपी के दलित वोटर बीजेपी के साथ हैं तो इससे पहले वह मायावती और कभी कांगे्रस के साथ हुआ करते थे, लेकिन दलित वोटरों का भला कभी नहीं हो पाया।

संजय सक्सेना

पिछले साढ़े तीन वर्षों में दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश तक में अगर बीजेपी को मजबूती मिली है तो इसके पीछे अन्य तमाम कारणों के अलावा दलित वोटरों का भी बड़ा योगदान रहा था। चाहें 2014 के लोकसभा चुनाव रहे हों या फिर इसी वर्ष हुए उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव। दलित ने एकजुट होकर ठीक वैसे ही बीजेपी को वोट किया था, जैसा कभी वह बसपा के लिये किया करते थे। यूपी की राजनीति में बसपा जिसका नेतृत्व मायावती करती हैं के उभार के बाद पहली बार ऐसा नजारा देखने को मिला होगा जब दलितों ने लगभग पूरी तरह से बसपा से मुंह मोड़ा था। वो भी तीन-साढ़े तीन वर्ष के अंतराल में दो बार, जिसके चलते मायावती अर्श से फर्श पर आ गईं। दलितों की यह बेरुखी माया को मुंह चिढ़ाने जैसी थी। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि दलित उनसे दगा कर सकते हैं, लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ और इसे अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता है। असल में मायावती पिछले एक दशक से दलितों से ज्यादा अन्य जातियों को लुभाने के चक्कर में पड़ गई थीं। कभी ब्राह्मण तो कभी मुसलमानों को अपने पाले में लाने के फेर में मायावती का दलितों के दुख दर्द से वास्ता कम होता जा रहा था, यह सब काफी समय से चल रहा था, लेकिन दलितों के पास कोई विकल्प ही नहीं था। सपा पिछड़ों की सियासत में लगी थी तो बीजेपी बनिया-ब्राह्मण की पार्टी बनकर रह गई थी। कांगे्रस का तो वजूद ही नहीं बचा था। परंतु बीजेपी में मोदी-शाह युग की शुरुआत के साथ सब कुछ बदल गया।
दलित वोटरों की अहमियत पीएम मोदी से लेकर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तक ने अपनी पार्टी को बताई। ऐसा नहीं था कि दलित वोटरों की अहमियत का अनुमान बीजेपी के पुराने नेताओं को नहीं था, लेकिन मायावती के सामने उनके हौसले पस्त पड़े हुए थे।
यूपी की राजनीति में बसपा का उदय ही दलित हितों के नाम पर हुआ था। चुनाव के समय हमेशा ही यह देखने को मिलता था जिधर भी करीब 22 प्रतिशत दलित वोटर झुक जाते थे उस पार्टी का पलड़ा भारी हो जाता था। जब तक दलित बसपा के साथ रहे तब तक बसपा सुप्रीमो मायावती का सिक्का मजबूती के साथ चलता रहा और जब यह वोटर बीजेपी की तरफ चले गये तो बीजेपी की बल्ले-बल्ले हो गई। कांगे्रस भी दलित वोट बैंक के सहारे दशकों तक देश-प्रदेश पर राज कर चुकी है। आज यूपी के दलित वोटर बीजेपी के साथ हैं तो इससे पहले वह मायावती और कभी कांगे्रस के साथ हुआ करते थे, लेकिन दलित वोटरों का भला कभी नहीं हो पाया। बीजेपी राज में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा है। दलित अभी भी उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं। आंकड़े भी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार का ग्राफ सबसे ऊंचा है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 2014 में जो आंकड़े जारी किये थे उसके अनुसार वर्ष 2014 में पूरे देश में दलितों के विरुद्घ 47,064 अपराध घटित हुए थे, इनमें 8,075 मामले अकेले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए। यूपी में दलित उत्पीड़न के हर रोज औसतन 20 मामले दर्ज किए जा रहे हैं। देशभर में दलितों के खिलाफ होने वाले उत्पीड़न के मामले में अकेले यूपी की हिस्सेदारी 17 फीसदी से भी ज्यादा है। एनसीआरबी के मुताबिक उत्तर प्रदेश में दलितों की हत्या की दर देश में दलितों की ह्त्या की दर से दोगुनी है। बात अगर वर्ष 2014 की कि जाये तो उत्तर प्रदेश में दलितों की 245 हत्याएं हुई थीं जबकि पूरे देश में कुल 744 मामले सामने आए थे। यूपी में दलितों के खिलाफ बलवा या दंगा के 342 मामले दर्ज हुए जबकि पूरे देश में करीब 1,147 मामले दर्ज किए गए थे। प्रदेश में दलितों के विरुद्घ बलवे के अपराधों की दर राष्ट्रीय स्तर से लगभग डेढ़ गुना थी। इसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर दलित महिलाओं को विवाह के लिए विवश करने के इरादे से किए गए अपहरण की संख्या 427 थी जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में इस तरह के मामले 270 सामने आए। यूपी में ऐसे अपराध की दर राष्ट्रीय स्तर से तीन गुने से भी अधिक थी। वहीं पूरे देश में अपहरण के 758 मामले दर्ज किए गए जबकि अकेले यूपी में अपहरण के 383 मामले हुए। यूपी में दलितों के अपहरण की दर राष्ट्रीय स्तर से दोगुनी थी। कमोबेश आज तक इस स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं हो पाया है।
उत्तर प्रदेश में दलितों के साथ नाइंसाफी का आलम यह है कि यहां के थानों में दलितों की शिकायत तक दर्ज नहीं की जाती है। पुलिस वाले थाने में शिकायत दर्ज करवाने आए दलितों को उल्टा डांट के भगा देते हैं। प्रदेश के वर्दीधारियों के सामने दलितों की कोई सुनवाई नहीं है। इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि साल 2014 में उत्तर प्रदेश में दलितों के दर्ज किये गए 1500 मामले धारा 156(3) अदालती आदेश से दर्ज किये गए थे।
बात दलित वोटरों की सियासी ताकत की हो तो चुनाव लोकसभा के हों या फिर विधान सभा अथवा नगर निगम और पंचायत के सभी में लगभग 33-35 प्रतिशत मत हासिल करने वाले को जीत हासिल हो जाती है। 22 प्रतिशत दलित वोटर जिधर भी झुक जाते हैं उस पार्टी या नेता को फिर जीत के लिये 11-12 प्रतिशत और वोटों की ही जरूरत बचती है, जो सहजता से किसी भी दल द्वारा जुटा लिये जाते हैं। इसीलिये पिछले दो चुनावों में दलित वोटरो को अपने साथ जोड़ने के बाद बीजेपी उत्साह से लबालब है तो विपक्ष इसमें लगातार सेंध लगाने को प्रयासरत है। सियासी फायदा पाने के लिये दलित उत्पीड़न की छोटी-छोटी घटनाओं को भी सियासी जामा पहना दिया जाता है। अतीत में दलित वोट बैंक की सियासत करने वालों द्वारा हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला और जेएनयू के विवाद को भी दलित टच देने की कोशिश की जा चुकी है। गुजरात में दबंगों द्वारा दलितों की पिटाई का प्रकरण अथवा सहारनपुर का दंगा, जिसमें दलितों के घर जला दिये गये थे। दलित-ठाकुरों के बीच हुए इस विवाद में जानमाल दोनों का नुकसान हुआ। तो इसको लेकर सियासत भी खूब हुई। हालात यह है कि अभी भी सहारनपुर में दिलों के घाव भर नहीं पाये है। हो सकता है दलितों के जख्मों को भरने के लिये बीजेपी अगले कुछ दिनों में संगठन से लेकर सरकार तक में उनकी भागेदारी बढ़ा दे। संभावना यह भी है कि बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष कोई दलित ही बने।
सहारनपुर की घटना में बसपा राजनीतिक फायदा उठाने के चक्कर में है तो इस तरह की घटनाओं ने भगवा टोली की बेचैनी बढ़ा दी है। इस घटना के बाद दलितों की बीजेपी के प्रति बेरुखी पार्टी के रणनीतिकारों के लिये चिंता का विषय बनी हुई है। खतरे की घंटी सुनाई देते ही बीजेपी के थिंक टैंक मैदान में उतर आए। इसलिए बीजेपी ने सीधे-सीधे सहारनपुर की घटना को फोकस करने के बजाय पं़ दीनदयाल उपाध्याय जन्म शताब्दी वर्ष के कार्यक्रमों के बहाने दलितों को समझाने व समीकरणों को साधने की रणनीति पर काम करने की युक्ति बना ली। पार्टी द्वारा एक साथ दो मोर्चों पर खाका तैयार किया गया है। इसमें दलितों से संपर्क व संवाद स्थापित करके उन्हें बताया जा रहा है कि वह पार्टी के लिये कितने सम्मानित हैं। पार्टी द्वारा तर्कों के साथ दलित वर्ग के दिमाग में यह बात बैठाने का फैसला किया गया है कि कुछ दल, संगठन तथा लोग उन्हें संघर्ष में उलझाकर किस तरह अपने सियासी स्वार्थ साधना चाहते हैं। इनका मकसद दलितोंं के सम्मान और स्वाभिमान की फिक्र नहीं बल्कि अपने निजी समीकरण ठीक करना है।

सुरक्षित सीटों पर बीजेपी का प्रदर्शन

लोकसभा चुनाव में प्रदेश की सभी 17 सुरक्षित सीटें और विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित 86 सीटों में 76 जीतने वाली भाजपा को इस बात का अहसास भली प्रकार से है कि शब्बीरपुर की घटना पर सियासी खींचतान का असर अगर दूसरे जिलों मेंं पहुंचा तो उसके खुद के सियासी समीकरण गड़बड़ा सकते हैं। इसीलिए भाजपा फूंक-फूंककर कदम रख रही है। ताकि सहारनपुर की आंच दूसरे जिलों मेंं न पहुंचने पाए। बीजेपी के रणनीतिकार न तो दलित वोटों को दांव पर लगाना चाहते है और न ऐसा कोई काम होने देना चाहते है जिससे अगड़ों व दलितों के बीच वोटों का बंटवारा होने की स्थिति बने और इसका लाभ भाजपा विरोधी दलों को उठाने का मौका मिल जाये। दरअसल, सहारनपुर दंगा भाजपा के लिए एक तरफ खाई तो दूसरी तरफ कुंए जैसा है जिसमें एक तरफ अगड़े और दूसरी तरफ दलित वोटर हैं। पिछले चुनावों में दोनों का ही वोट भाजपा को मिला था। बीजेपी सियासी स्तर पर तो दलितों को लुभा ही रही है उसने प्रशासनिक अमले के भी पेंच कसना शुरू कर दिये हैं ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाएं न हो जिससे विरोधियों को हमलावर होने का मौका मिल जाये।

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