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कुछ भी असम्भव नहीं है…

साक्षात्कार :  पंकज त्रिपाठी

सुमन सिंह

एक छोटे से गाँव से निकलकर अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति के बलबूते, सशक्त अभिनय क्षमता से रूपहले परदे पर पंकज त्रिपाठी ने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज़ करायी। बात चाहे गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के चरित्र सुल्तान कुरैशी की हो, फुकरे के पंडित जी की हो, चाहे निल बटे सन्नाटा के प्रिंसिपल साहब की हो, पंकज ने अपनी अद्भुत अभिनय क्षमता से इनमें जान डाल दी। दर्शकों और फ़िल्म समीक्षकों के प्रिय बन बैठे और खूब प्रशंसा बटोरी लेकिन फिर भी सेलिब्रिटी होने का गुमान नहीं किया। स्वभाव से सरल-सहज और अत्यंत विनम्र अपने इस प्रिय अभिनेता से दर्शक कतई अपरिचित नहीं हैं, फिर भी इस उम्मीद से कि पंकज के व्यक्तित्व के अन्य अनछुए पहलू भी उजागर होंगे, प्रस्तुत है दस्तक की ‘साहित्य संपादक डॉ .सुमन सिंह के साथ उनकी यह बातचीत।)

आपके परिवेश और परवरिश की क्या भूमिका रही व्यक्तित्व निर्माण में?

अगर आप सजग हैं, जागरूक हैं तो परिवेश और परवरिश ही तय करता है कि आप क्या बनेंगे या यूं कहें कि एक दिशा भी वह देता है आपको कि इस मार्ग पर जाओ। वह आपको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में जीना सिखाता है। जैसे पहाड़ पर पाए जाने वाले जानवरों के बदन पर ज्यादा रोएं होते हैं सर्दियों से बचने के लिए, वैसे ही हम ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े लोगों के पास भी विपरीत परिस्थितियों में खुद को ढाल लेने की नैसर्गिक क्षमता होती है। गोपालगंज के एक छोटे से गाँव बेलसंड का रहने वाला हूँ। किसान का बेटा हूँ और बेहद साधारण परिवेश से आता हूँ लेकिन यह भी सच है कि गाँव के इसी साधारण परिवेश ने मेरे भीतर के कलाकार को गढ़ने में असाधारण भूमिका निभायी। हमारे गाँव में आधे से ज्यादा लोग गंजेड़ी हैं और बहुत सम्भावना थी कि मैं भी गंजेड़ी बन जाता। लेकिन मैं अपने पिता जी के संघर्ष को देख रहा था, वे बहुत मेहनत करते थे। खेती-किसानी से लेकर पूजा-पाठ करवाने तक का काम। सच पूछिए तो उन्ही के दिन-रात के संघर्षों ने मुझे प्रेरित किया और मैंने मेहनत के बूते आगे बढ़ने वाली राह को चुन लिया। इस तरह गाँव से पटना आ गया जहाँ पढ़ाई के साथ-साथ कुछ दिनों छात्रसंघ की राजनीति भी होती रही। उन्ही दिनों नाटक देखने का अवसर मिला और फिर इधर ऐसा रुझान हुआ कि पटना नाट्य अकादमी और ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा’ (एनएसडी) से प्रशिक्षण लेकर थियेटर करने लगा। थियेटर करते हुए जो परिवेश मिला वह बड़ा साहित्यिक था। हम मानवीय मूल्यों की बातें सुनते थे, दुनिया भर का लिटरेचर पढ़ते थे। आज जो भी हूँ इन्ही कारणों से हूं।

मानवीय मूल्यों की बातें और दुनिया भर के लिटरेचर ने उन दिनों आपके युवा मन पर कैसा प्रभाव डाला?
जैसा कि मैंने आपको बताया कि अति साधारण परिवेश से आया था और थियेटर करते हुए जो वातावरण मिला, वह बड़ा साहित्यिक था । तो स्वाभाविक सी बात है कि जब आप साहित्य पढ़ते हैं, गुरुजनों से ज्ञान की बातें सुनते हैं तो आपके भीतर बहुत कुछ परिवर्तित और परिष्कृत होने लगता है। चिंतन में परिपक्वता आने लगती है, तर्क करने की क्षमता बढ़ जाती है। आपको नयी सचेतन दृष्टि मिलती है। सबसे अहम बात कि आप संवेदनशील और मानवीय होते जाते हैं। साहित्य और गुरुजनों से मिली शिक्षा ने ही आज मुझे इस मुक़ाम तक पहुँचाया है और संवेदनहीन होने से बचाया है।

जैसा कि अमूमन देखा जाता है कि हमारे भीतर निहित मानवीय मूल्य जब बाहरी समाजिक प्रपंचों से टकराते हैं तो उन्हें बचा पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। क्या आपके जीवन में भी ऐसी विपरीत परिस्थितियां आयीं?

जी बिल्कुल सहमत हूं कि दुनियावी प्रपंचों से खुद को बचा पाना बड़ा मुश्किल काम है। ऐसे कई मौके मेरे जीवन में आए हैं लेकिन संस्कारों से मिले आत्मसंयम और विवेक ने बचा लिया और हम टूटे नहीं। हमने कभी उन प्रपंचों से समझौता नहीं किया, अडिग रहे। इन जंजालों में बिना फंसे निकल आने का एक कारण यह भी है कि मुझे कभी भी झूठ-मूठ के दिखावे या आडम्बर से कोई मोह नहीं रहा, जिन्हें इन सबसे प्यार होता है फँसते भी वही हैं।

गाँव अब पहले जैसे नहीं रहे, सादगी, भाईचारा और आपसी सौहार्द लोगों में कम होता जा रहा है। बाज़ार का विद्रूप रिश्ते-नाते, तीज-त्योहार और आपसी सम्बंधों को कुरूप करता जा रहा है। ऐसे समय में गोपालगंज की क्या स्थिति है?

आपने ठीक कहा, गांव अब पहले जैसे नहीं रहे बाजारवाद वहां भी हावी हो रहा है। नीम का दातुन छोड़कर लोग टूथब्रश का इस्तेमाल करने लगे हैं। ईष्र्या-द्वेष बहुत ज्यादा बढ़ गया है। दिखावा बढ़ गया है, पड़ोसी धर्म अब पहले की तरह निभाया नहीं जाता। बैठकी-बैठक, गाना-बजाना की परम्परा ख़त्म होती जा रही। इधर बहुत तेजी से गाँवों में नैतिकता का पतन हुआ है, मेरा गांव भी इन सब चीजों से अछूता नहीं है बहुत बदल गया है। नई पीढ़ी बिल्कुल अलग है इसीलिए वह नाटक करने की परंपरा भी अब समाप्त होने के कगार पर है, जिसे देख-देख कर मेरे भीतर का कलाकार जन्मा और बड़ा हुआ था। लोग किसान से मजदूर होते जा रहे हैं और बड़े-बड़े शहरों में फैक्ट्री में काम करने जाने लगे हैं।
गाँव खाली और सूना होता जा रहा है। त्योहारों की रौनक भी पहले की तरह नहीं रही। नशा छूत की बीमारी के समान तेजी से फैल रहा है। चिंता होती है कि जो सुख और सुन्दर माहौल हमने अपने गाँव में पाया उससे नयी पीढ़ी वंचित होती जा रही है। भावी पीढ़ी की क्या गति होगी,इसे सोचते हुए भी कष्ट होता है। हां, एक चीज है मेरे गांव में जो अभी भी पहले जैसी है,वह यह कि वहां प्रदूषण का दुष्प्रभाव नहीं पड़ा है। आप स्वच्छ हवा में बेफ़िक्र साँस ले सकते हैं। अन्य किसी भी प्रकार का प्रदूषण अभी तक मेरे गांव में उतनी पैठ नहीं जमा पाया जितना कि राजनीतिक प्रदूषण। राजनीतिक प्रदूषण तो चरम पर है।

अभिनय की बारीकियों को सीखने की प्रारम्भिक पाठशाला कौन सी थी?
आपको बताया था न कि गाँव में नाटक करते थे लोग, जिसे देखना बहुत पसंद था। हमारे गाँव में गाना-बजाना भी खूब होता था जो मुझे बहुत भाता था। आज भी जब गाँव जाता हूँ तो ये गीत-संगीत और नाटक खूब लुभाते हैं। इन्ही गीत-संगीत और नाटकों का प्रभाव सम्भवत: मेरे बालमन पर पड़ा होगा और अनजाने ही यह गंवई नाटक मंडली मेरे अभिनय की प्रारंभिक पाठशाला बन गयी होगी।

आपकी साहित्यिक अभिरुचि के बारे में काफ़ी सुना है, साहित्य क्षेत्र में आपके प्रिय लेखक कौन हैं?
प्रिय लेखकों की बड़ी लंबी फेहरिस्त है सुमन जी,किस-किस का नाम लूँ (हँसते हुए) फिर भी कुछ विशिष्ट जनों के नाम यहाँ लेना चाहूँगा, फणीश्वरनाथ रेणु, निराला, मुक्तिबोध, गोर्की, ब्रेख्त, अरुण कमल, उदय प्रकाश और गौरव सोलंकी को पढ़ना अच्छा लगता है। गौरव सोलंकी युवा लेखकों में शुमार हैं और बहुत अच्छा लिखते हैं। एक किताब का ज़िक्र भी यहाँ करना चाहूँगा, धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’ जिसे पढ़कर मैं खूब रोया था। मैं मानता हूँ कि एक अभिनेता के लिए किताबें आत्मा की भाँति होती हैं।

अपनी जीवनसंगिनी के बारे में कुछ साझा करना चाहेंगे, आपकी सफलता में उनकी कितनी भूमिका है?
मेरी धर्मपत्नी का नाम मृदुला है, वे बहुत ही अच्छी प्रेमिका थीं, अब उतनी ही अच्छी पत्नी हैं। हमने 2004 में प्रेम विवाह किया था। एक ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े लड़के के लिए बड़ा मुश्किल होता है प्रेम विवाह करना और वह भी स्वगोत्रीय और रिश्तेदारी में (हंसकर), लेकिन हमने किया और खूब अच्छे से निभा रहे हैं। दोनों के परिवार वाले भी अब खुश हैं। मृदुला शिक्षिका हैं और घर-बाहर बख़ूबी सम्हालती हैं। हमारी एक बिटिया भी है आश्वी, पाँचवी में पढ़ती है। रही सफलता में उनकी भूमिका की बात तो सफलता और विफलता दोनों ही अब तो साझा की हैं, कुछ भी एक अकेले का कहाँ…।

आपकी आनेवाली फिल्में कौन-कौन सी हैं?
गुड़गांव, जूली टू, फुकरे रिटन्र्स, मुन्ना माइकल, न्यूटन और अनारकली ऑफ़ आरा जैसी काफी सारी फिल्में इस वर्ष आ रही हैं।

हमारे ग्रामीण अंचल के उन तमाम युवाओं के नाम कोई सन्देश, जो सपने तो देखते हैं लेकिन उन्हें साकार करने से पहले ही साहस खो बैठते हैं?
मेरा मानना है कि ग्रामीण अंचल के युवाओं में नगरीय लोगों की तुलना में संघर्ष की क्षमता अधिक होती है लेकिन आज वे अपने लक्ष्य से भटके हुए लगते हैं। यदि वे एकाग्र हों और सजग होकर काम करें तो बहुत आगे तक जायेंगे। जैसे मैं अपने गाँव से यह मानकर और ठानकर चला कि कुछ भी असम्भव नहीं है, उन्हें भी यह मानना ही होगा। तभी कुछ बेहतर की उम्मीद की जा सकती है। 

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