अद्धयात्मदस्तक-विशेष

कुम्भ में हुआ जब राम का चिंतन…

मचरितमानस में बड़ा रोचक प्रसंग है कि वैदिक काल में जब प्रयाग में बड़े धूम-धाम से कुम्भ मेला का आयोजन हुआ जिसमें हजारों, लाखों लोगों ने प्रयाग की गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती की त्रिवेणी में स्नान पूजन कर दान दक्षिणा और यज्ञ, अनुष्ठान, क्रिया आदि सम्पन्न की और महीने भर तक कल्पवास कर अध्यात्मिक चेतना को निखारने का साधन-साधना की। मेले के समाप्त होने के बाद जब सभी श्रद्धालुजन प्रस्थान कर गये तो ऋषि याज्ञवल्क्य जी के शिष्य भरद्वाज जी ने अपने गुरु के चरणों की वंदना करके एक प्रश्न पूछा-गुरुवर हमें यह बतायें कि भगवान राम कौन हैं? एक जो दशरथ पुत्र राम हैं, क्या ये वही राम हैं जिन्हें अविनाशी और जगत श्रृष्टा कहा गया है। या ये कोई और राम हैं, कृपया इनके बारे में विस्तार से बताइये। इस पर ऋषि याज्ञवल्क्य जी ने कहा कि भरद्वाज वैसे तो तुम सर्व मर्मज्ञ हो तुम्हारा ये प्रश्न किसी मोह और अज्ञान का कारण नहीं है।

तुमने लोक हित में यह प्रश्न किया है और तुम इसको जानने के उपयुक्त पात्र भी हो इसलिए मैं तुम्हें विस्तार से सर्व व्यापक सत्ता श्रीराम के बारे में बताऊंगा और यहीं से रामचरितमानस के चार घाटों में पहला घाट शिव जी के द्वारा अपने हृदय मानस में स्थित रामचरित्र पार्वती जी को सुनाए, दूसरे घाट का निर्माण नीलगिरि पर्वत पर कागभुसंडी द्वारा गरुड़ को मानस प्रसंग का रहस्योद्घाटन करते हुए किया गया और तीसरे घाट के रूप में ऋषि याज्ञवल्क्य जी के द्वारा भरद्वाज जी को सुनाया गया मानस प्रसंग त्रिवेणी के तट पर ज्ञान का तीसरा घाट बना। गोस्वामी तुलसीदास और संतों के बीच हुए संतसंग को मानस प्रसंग का ज्ञान रूपी चौथा घाट माना गया है। मानस के इन चार प्रमुख घाटों में याज्ञवल्क्य जी द्वारा भरद्वाज जी को सुनाये गये प्रसंग का स्थान और साक्षी तीर्थराज प्रयाग ही बना जिसमें राम की कथा के साथ-साथ राम के गुणों का सैद्धान्तिक रूप और उसके प्रयोग द्वारा गुणों का प्राकट्य करने का सूत्र निष्पादित हुआ जिसे तप सेवा सुमिरन की वैज्ञानिक, आध्यात्मिक त्रिवेणी कहा गया, जो ज्ञान की त्रिवेणी कहलाई, जिसको आगे चलकर मानस की परम्परा वाले भक्ति शाखा के प्रमुख आध्यात्मिक तत्व दर्शियों ने कथानक के साथ-साथ उसके सैद्धांतिक भाग को स्पष्ट कर प्रयोग की विधि द्वारा मानव चेतना में सूक्ष्म ब्रह्म के प्राकट्य की विधि परिपादित की, जिसे आज भी प्रयोग द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है। इस विधि को आगे चलकर तप सेवा सुमिरन की त्रिवेणी कहा गया-
जिसके तीन भाग तप सेवा सुमिरन के प्रयोग की विधि क्रमवार प्रस्तुत है।

1. तप-

तप के मायने-भूख से मरना नहीं है। तप द्वारा 5 स्तरों में से दो स्तरों (शारीरिक, इन्द्रियों) पर प्रभु की सत्ता का प्राकट्य करना है। तप से पहले यह जानना है कि भोजन से वजन है शक्ति नहीं, दवाइयों से कुछ समय के लिये रोगों को दबाया जा सकता है लेकिन रोगों को मिटाया नहीं जा सकता। जब साधक यह जान जाता है तो उसके अंदर तप के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होती है।
जिज्ञासा उत्पन्न होते ही भगवान या तो स्वत: उसके जीवन में आते हैं या किसी को भेजते है। यह वह वैज्ञानिक प्रणाली है जिसके द्वारा दो स्तरों की सफाई होकर शरीर रोग मुक्त होता है और इन्द्रियों के स्तर पर शक्ति का प्राकट्य होता है।
जो तपु करै कुमारि तुम्हारी।
भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी।।
यह उपदेश करके नारद जी ने उमाजी को तप की साधना के माध्यम से शिव की प्राप्ति कराई है, जिसे आत्मा और परमात्मा का मिलन भी माना जाता है।
इसी तप के द्वारा नैमिषारण्य में मनु और शतरूपा को राम पुत्र के रूप में मिले हैं। लेकिन तप की साधना की कैसे जाये इसपर प्रकाश डाला गया है-
करहिं अहार शाक फल कंदा,
सुमिरहि ब्रह्म सच्चिदानंदा।।
सुबह से दोपहर तक आकाश तत्व, दोपहर में पहले वायु-तत्व पत्ती के रूप में फिर अग्नि-तत्व फलों के रूप में रात्रि में पूर्ण भोजन का प्राविधान है।
सावधानी- जब उपवास का प्राविधान हो तो अन्न, शक्कर, दूध या इससे बनी कोई खाद्य सामग्री, कूटू, सिंघाड़ा आलू, अरबी, आदि से बचाना ही सच्चा उपवास है।

2. सेवा-
यह मानसिक स्तर की साधना है। इसके तीन प्रकार हैं-दसांश, चतुर्थांश, समय का 1 घंटा।
दसांश- इसमें हमें अपनी आमदनी का दस प्रतिशत भगवान के निमित खर्च करना होेता है। दसांश इसलिए क्योंकि हम दस इन्द्रियों (इन्द्री द्वार झरोखा नाना) से भगवान से सुख चाहते हैं।
चतुर्थांश- इस क्रिया में हमें अपने भोजन का से एक चौथाई भाग पहले भगवान के निमित निकालना होता है। बाकी का तीन हिस्सा प्रसाद के रूप में स्वयं ग्रहण करना चाहिए जो भी हम खायें, उससे पहले प्रभु का भाग निकालें तत्पश्चात् स्वयं ग्रहण करें। निकला हुआ भोजन एक साफ पेपर पर घर के बाहर रख दें। कौन खा रहा हैं, क्या हो रहा है, इसके बारे में चिन्तन करना हमारा कार्य नहीं। चतुर्थांश इसलिए पाँच तत्वों से शरीर की रचना हुई है (क्षित, जल, पावक, गगन, समीरा, पंच तत्व यह अधम शरीरा) जिसमें आकाश तत्व उपवास से मिलता है, शेष चार तत्व हमें पत्तियां, फल, सब्जी, एवं अन्नमय भोजन से प्राप्त होते हैं इसलिए भोजन का चौथाई भाग भगवान के लिए निकालना आवश्यक है।
समय का एक घंटा- दिन में 24 घंटे होते है उनमें से एक घंटा हमें नि:स्वार्थ भाव से किसी अपरिचित या परिवार से अलग किसी भी व्यक्ति की सेवा में लगाना है। सेवा का चयन हम स्वयं कर सकते हैं।

3. सुमिरन-
यह बौद्धिक स्तर की साधना है। इसमें हमें प्रारम्भ में 20-20 मिनट दिन में तीन बार आंख बन्द करके ध्यान करना है। इसकी दो मुख्य बाधाएँ होती हैं- लय और विक्षेप, लय अर्थात् नींद आना, विक्षेप अर्थात् मन का भागना यदि हमारा तप-सेवा ठीक से चलेगा तो सुमिरन अपने आप होने लगेगा।
इस प्रणाली को सभी ग्रहस्थ, एवं सामीजिक लोग अपनाकर अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं। यह केवल भ्रम है कि आध्यात्मिक उन्नति केवल साधु-संतों का कार्य है। संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य का मौलिक उद्देश्य अपनी चेतना का उत्थान करना है।  (पौराणिक ग्रन्थों एवं तत्व दर्शियों से साभार)    

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