दस्तक-विशेषस्तम्भ

गंधी वृक्ष

आशुतोष राणा की कलम से…

भाईसाहब क़स्बे के सबसे विशाल छायादार दरख़्त को जड़ से उखाड़ फेंकने के भीम कार्य को सम्पन्न करने में व्यस्त थे। वे चिढ़े हुए, ग़ुस्से में दिखाई दे रहे थे। भाईसाहब अपने परिवार की पिछली तीन पीढ़ियों के कष्ट का कारण इस पेड़ को मानते थे। वे पूरी शक्ति से वृक्ष की जड़ों पर प्रहार कर रहे थे किंतु वह वृक्ष इतना जिद्दी था कि गिरने को तैयार ही नहीं था। पेड़ को गिरता ना देख भाईसाहब अपने को ठगा सा महसूस कर रहे थे। लोगों का मानना था कि इस वृक्ष की जड़ें पूरे क़स्बे में फैली हुई हैं, या यूँ कहें कि हमारा पूरा क़स्बा ही इस पेड़ की जड़ों पर बसा हुआ था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। गाँव के पुराने लोग बताते हैं कि यह वृक्ष अनेकों बार प्राकृतिक प्रकोप का और विकृति के कोप का शिकार हुआ था, किंतु इसके बाद भी धराशायी नहीं हुआ।
इस वृक्ष से एक अजीब सी सम्मोहित करने वाली गंध निकलती थी जिससे लोग इसे गंधी वृक्ष कहने लगे थे। इसकी एक और विशेषता थी कि यह ठंड, गर्मी, बरसात हर मौसम में सदा हरा भरा रहता था। आज़ादी से पहले कई अंग्रेज़ वैज्ञानिकों ने इसका कारण जानने के लिए वृक्ष की जड़ों को खोद डाला, किंतु इसकी जड़ें मानो पाताल तक पहुँची हुई सी दिखाई देती थीं। अंग्रेज़ वैज्ञानिकों ने कई बार उसे काट के फेंक दिया किंतु हर बार वह दोगुनी गति से, पहले की अपेक्षा अधिक विस्तार लेते हुए फिर से खड़ा हो गया था।पुराने लोग बताते हैं, वृक्ष की शीतलता से घबराकर ही अंग्रेजों ने हमारा कस्बा छोड़ दिया था। और तब से अंग्रेज़ों के यहाँ काम करने वाले हमारे क़स्बे के कुछ लोग बेरोजगार हो गए थे, वे अपनी दुर्दशा की वजह इस वृक्ष को बताने लगे, वृक्ष की शीतलता को वे भीषणता कहने लगे।
वृक्ष अपनी विलक्षणता के कारण पूरे क़स्बे के विश्वास का केंद्र हो गया था, लोग उसकी पूजा करते, मन्नत माँगते, लोगों द्वारा अपनी इच्छापूर्ति के लिए बांधे गए रंगबिरंगे धागों से वो पेड़ अटा पड़ा था। कुछ उसे काट के घर बना लेते ,तो कोई उसकी लकड़ियों पर अपनी रोटियाँ सेंक लेता। उस वृक्ष की एक विशेषता और थी, जहाँ उसकी डालियों पर संसार भर की सभी प्रजातियों के पक्षियों ने अपने घोंसले बना लिए थे वहीं उसकी छाया में सभी जातियों के मनुष्यों ने अपने घर बना छोड़े थे। कुछ लोग पत्थर मार के उस पर लगने वाले फलों को तोड़ते, तो कोई उसकी लकड़ियों को जला के उसकी आग सेंकता। कुल मिला के वो पेड़ पूरे कस्बे के सत्कार का ही नहीं तिरस्कार का केंद्र भी था। हमारे कस्बे में उस पेड़ को लेके मिली-जुली भावनाएँ थीं, कुछ उसे कल्याणकारी तो कुछ उसे अकल्याणकारी मानते थे।
मैं भाईसाहब के पास पहुँचा, मेरे मन में उनके लिए बेहद आदर था मैं उनके जीवट का, आत्मविश्वास, अथक परिश्रम की विकट क्षमता का प्रशंसक था। किंतु गाँव के बुज़ुर्ग उनके प्रति मेरे आदर भाव को आस्था से उपजे आदर की नहीं, आतंक से उपजे आदर की श्रेणी में रखते थे। भाईसाहब मुझे पसंद करते थे, मुझे देख मुस्कुरा के बोले.. महाबली भीम हो या दुर्योधन, कंस हो या दस हजार हाथियों की ताक़त वाला दु:शासन, यहाँ तक कि हनुमान जी को भी मैंने धराशायी होते देखा है, किंतु ये गंधी पेड़ है कि गिरता ही नहीं। पिछले कई सालों से लगातार इसपर चोट की जा रही है। इसे काटा गया पीटा गया, यहां तक कि जलाकर राख भी कर दिया। लेकिन ये ख़त्म होने की जगह और लहलहाने लगा। मुझे इसकी एक और विशेषता की जानकारी हाल ही में हुई, कि इसकी राख, खाद का काम करती है। जैसे रक्तबीज के रक्तकण समस्या थे वैसे ही इसके राखकण एक विकट समस्या हैं। ये तो गीता की आत्मा से ज्यादा शक्तिशाली है, ना इसे कोई मार सकता है, ना जला सकता है, ना काट सकता है, ना गीला कर सकता है। मैंने कहा भाईसाहब जितना समय आपने इसे मिटाने के लिए ख़र्च किया उतना समय यदि आप नए पेड़ लगाने में ख़र्च करते तो अभी तक पूरा का पूरा जंगल खड़ा हो गया होता। और वैसे भी जिस पेड़ ने हमारी रक्षा की है, उसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।
भाईसाहब बोले, तुम नहीं समझोगे, इसकी छाया में कोई दूसरा पेड़ बढ़ ही नहीं सकता। और बढ़ भी गया, तो उसे वो महत्व नहीं मिलेगा जो इस गंधी को मिलता है। इस गंधी के कारण हम नहीं हैं, बल्कि हमारे कारण ही ये फल फूल रहा है। अपने परदादे ही इसे अफ्रीका के जंगलों से यहां लाए थे। उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था कि ये पेड़ पूरे कस्बे में अपनी जड़े जमा लेगा।
ख़ैर जो हुआ उसे बदला तो जा नहीं सकता, लेकिन भुलाया तो जा सकता है। पुरखों की चूक के कारण हम मूर्ख माने जाएं, ये मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसलिए मैंने अब इसे मिटाने का प्लान छोड़ दिया है। अब इसे बर्बाद नहीं बदनाम किया जाएगा। हत्या से अधिक घातक चरित्र हत्या होती है, इसलिए इसके गुणों को ही इसका दोष बताया जाए ताकि लोग इसकी छाया से भी दूर रहें। इसकी गंध को दुर्गन्ध साबित करने की देर है लोग स्वयं ही इससे किनारा कर लेंगे। हमारे परिवार की बेरोजगारी और तमाम तकलीफों का कारण यही पेड़ है। इसने हमारी जमीन पर अपनी जड़ें जमाई हैं, तो अब हम इसकी जड़ों पर अपनी ज़मीन तैयार करेंगे। भाईसाहब अचानक घोषणात्मक स्वर में बोले, अब से हमारा ये कस्बा गंधीग्राम नहीं नंदीग्राम के नाम से जाना जाएगा। नाम परिवर्तन के लिए आज से बेहतर कोई और दिन हो ही नहीं सकता, क्योंकि आज वही दिन है जब इस पेड़ की राख उड़के पूरे क़स्बे के ज़र्रे-ज़र्रे में फैल गई थी। भाईसाहब ने शंकित भावुकता से मुझसे पूछा, इस परिवर्तन में क्या तुम मेरे साथ हो ? मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि आप निश्चिन्त रहें भाईसाहब, हम सामान्य जन हैं, बदलाव नहीं बर्दाश्त ही हमारा भाग्य है। हम गरीब लोग हैं, हमें नाम से क्या मतलब हमें तो काम से मतलब है। इस सच्चाई को हम जानते हैं कि नाम बदलने से नियति नहीं बदलती। सो सुगंध हो या दुर्गन्ध इस भूमि को तो हम छोड़ने से रहे। अब ये भूमि ही हमारा भाग्य है, या कह लें हमारे भाग्य में यही भूमि है.. राम जाने।
आप बड़े हैं, पढ़े लिखे हैं, भूत और भविष्य के द्रष्टा ही नहीं सृष्टा भी हैं और हम वर्तमान की छोटी-छोटी समस्याओं से जूझने वाले आमजन। हमारे बुज़ुर्गों ने अपने दु:ख को सुख में बदलने का अचूक नुस्ख़ा बताया था, सो उसी का ईमानदारी से पालन करते हुए जीवन बिता रहे हैं, इसलिए हर परिस्थिति में आनंद रहता है। भाईसाहब ने उत्सुक हो मुझसे कहा..क्या उस आनंदमंत्र को तुम मुझसे साझा कर सकते हो ? मैंने उत्साहित कंठ से उस मंत्र का सस्वर पाठ किया..
“जहि विधि राखे राम तहि विधि रहिए।
बड़ा आदमी जो भी बोले हाँ जू हाँ जू कहिए।।” 

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