दस्तक-विशेषसाहित्य

गंध

कहानी :  तेजेन्द्र शर्मा
ओए! तुझे नहीं पता… इन नीची जात वालों के बदन से एक अलग किस्म की बू आती है। हमारे घर में भला यह लड़की कैसे अपने आप को एडजस्ट कर पाएगी ?”
“पापा, आप कैसे इस तरह की बातें सोच लेते हैं ? अरे… भूमि मेरी क्लास में पढ़ती थी। हम दोनों ने डॉक्टरी इकट्ठे ही तो की है। उसके परिवार वाले टोकरी नहीं उठाते सिर पर… अगर आपको बताया न जाए तो आपको पता ही नहीं चलेगा कि भूमि हमारी बिरादरी की नहीं है और पापा, भूमि के बदन से कोई बू नहीं आती।” “ओए उनका रहना, खाणा, जीना सब बू से भरा हुआ है। सोच के ही दहशत होती है कि जोशियों का बेटा ऐसी जगह जा के गिरा है… ओए, अपनी मां की सोच… उसने तो सारी जिन्दगी तेरी बहू के साथ निभाणी है… क्या वो तैयार है इसके लिये?”
“पापा सारी उम्र मुझे बितानी है उसके साथ, मां को नहीं।” विवेक ने अभी तक अपना विवेक नहीं खोया था। उसने पहले ही तय कर लिया था कि आज पापा से लड़ेगा नहीं, मगर अपनी बात पूरे तर्क के साथ रखेगा… उसने अपना तर्क बाण छोड़ते हुए बात आगे बढ़ाई… “पापा ये लोग खटीक हैं… चमार या वाल्मीकि नहीं… इनका अपना एक इतिहास है। इनके घर साफ़ सुथरे होते हैं और उनके बच्चे अच्छे स्कूल और कॉलेजों में पढ़ते हैं।…” विवेक को अपने आप पर हैरानी हो रही थी कि वह कैसे घटिया तर्क अपने पिता के सामने रख रहा है। क्या वह सीधे सीधे नहीं कह सकता कि उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि भूमि की जाति क्या है। उसे भूमि से प्यार है, क्या यह काफ़ी नहीं है दोनों के विवाह के लिये।
“हां जी खटीक तो जैसे दलितों से ब्राह्मण हो गए… ओए मैं भी जानता हूं कसाई होते हैं कसाई… और वो भी…. सुअर का मांस काटते और बेचते हैं… भगवान माफ़ भी नहीं करेगा तुझे कि कसाइयों की बेटी ब्राह्मणों के घर ला के बिठा दी।”
विवेक की मां के लिए यह जिन्दगी का सबसे बड़ा झटका था। उसने कितने सपने सजा रखे थे… जब जब वह अपने विवेक को किसी भी लड़की के साथ हंसते बोलते देखती तो मन ही मन लड्डू बनाने लगती… मगर आज उसकी सारी उम्मीदें धराशाई हो गईं थीं… अपने पुत्र को इतना प्यार करती है कि कुछ कह नहीं पा रही है… उसकी आंखों के भाव साफ रहे हैं के घर में एक मौत हो चुकी है… उसकी आंखों में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है।
“यार तूं अपनी गूगल की नॉलेज अपने पास रख। तूं इतनी बेसिक बात नहीं समझ रहा कि शादी सिर्फ़ लड़के लड़की के बीच नहीं होती… इसमें दो परिवार शामिल होते हैं… यहां तो लगेगा जैसे विष्णु जी के बेटे की बारात शंकर भगवान के घर जा रही है… यार तू हमें जीते जी ना मार… हम तो शादी का रिसेप्शन भी अरेंज नहीं कर पाएंगे…” विवेक अब बात को और बिगाड़ना नहीं चाहता था। फिर शाम को भूमि से मिलने का कार्यक्रम भी बना रखा था। चुपके से खिसक लिया। मगर माता पिता के लिये एक बम का धमाका सा कर गया था।
उधर भूमि के घर का दृश्य भी कुछ ख़ास अलग नहीं था। उसके पिता भी परेशान थे और मां मरने को तैयार… “बेटा जी, भला खटीक बिरादरी में तन्ने कोई छोरा पसन्द ना आयो… ना बिरादरी के छोरे मर गे के…ये ऊंची जात वाले बहला फुसला के शादी तो कर लेंगे पर सारी उमर जूती के नीचे रखेंगे… “
“इन पण्डितों ने हज़ारों साल हमको लूटा है.. ग़ुलामों की तरह रखा है… आज मेरे ही घर पर डाका डाल रहे हैं। एक बात सुन ले बेटी… मैं तन्ने जान से तो मार सकता हूं… मगर किसी बाह्मण के घर कभी नहीं बिहाने वाला।”
“और बेवकूफ़ अपने होने वाले बच्चों को अभी से हाशिये पे डाल देगी। उन्होंने तेरा के बिगाड़ा है… बाह्मण के बेटे को रिज़र्वेशन ना मिलणे वाली। उनको पूरी दुनिया से मुकाबला करणा पड़ेगा…तुझे तो रिजर्वेशन कोटे में एडमिशन मिल गी थी… तैं बण ली डाक्टरनी… ईब तेरे बच्चों का के होवेगो.. ?”
आहत हो गई थी भूमि… उसके अपने पिता को उसकी योग्यता पर कोई भरोसा नहीं… पांच साल अपने मेडिकल कॉलेज में वह विद्यार्थियों के ताने सुन सुन कर दु:खी थी कि वह रिज़र्वेशन कोटे से है.. मगर आज उसके अपने पिता ने कह डाला… कितनी मौतें मरी भूमि उस दिन… अपने दलित होने पर पहली बार उसे ग्लानि का अनुभव हुआ था… इस बात पर तो वह विवेक से भी भिड़ जाती थी।… उसे हर बात पर मज़ाक करने की अनुमति थी मगर इस विषय पर कोई रियायत नहीं। वैसे भूमि के पिता ग़लत भी नहीं कह रहे थे कि उनकी बिरादरी में भूमि के बराबर पढ़ाई लिखाई वाला लड़का मिलना आसान नहीं। मगर जाति के बाहर भी विवाह किया जा सकता है… यह तो वे सोच भी नहीं सकते थे।… जबसे समाचार मिला था कि बेटी ब्राह्मण लड़के से प्यार करने लगी है तो बस एक ही बात दिमाग़ में आ रही है… अपने हाथों से काटना पड़ा तो काट दूंगा… मगर जाति के बाहर ब्याह कभी ना करूंगा छोरी का। कैसे हो जाता है कि जो बेटी लक्ष्मी का अवतार लगती है… जिसे रात रात भर छाती से लिपटा कर ज़माने भर की बुराइयों से बचाया जाता है, वही बेटी अचानक अपनी दुश्मन लगने लगती है।
रिश्ते कैसे बदल जाते हैं… कभी मीठे, कभी खट्टे तो कभी कड़वाहट से भरपूर… ख़ून के रिश्ते भी स्थाई परिभाषा नहीं बचाए रख सकते….
भूमि को कभी भी अपनी बिरादरी के लड़कों में कोई रुचि नहीं थी। वह खुले आसमान के नीचे सांस लेने की आदी बन चुकी थी। उसके लिये आसान नहीं था अपने पिता की बात मान पाना… विवेक उसके व्यक्तित्व का अटूट हिस्सा बन चुका था। वह उसके पिता से बात करने के लिये भी तैयार था… मगर भूमि जानती थी कि यदि वह बात करने गया तो शायद जीवित वापिस न आ पाए…
विवेक एक मामले में बहुत सीधा है… उसे जाति पांति की कोई समझ ही नहीं है। वह हमेशा कहता है, “यदि मैं ब्राह्मण हूं तो इसमें मेरा क्या कुसूर है? और हां इसमें मेरा कोई योगदान भी नहीं है… हां… एक बात… जो मैं आज क्वालिफ़ाइड डॉक्टर हूं, इसके लिये मैंने मेहनत की है।”
यही वह भूमि के मामले में भी मानता है कि भूमि के खटीक होने में न तो उसका कोई योगदान है और ना ही कोई कुसूर, “मां, भूमि से विवाह मैं करने वाला हूं, इसमें हमारे ख़ानदान की इज्ज़त कहां से बीच में आ गई। अरे किसके पास समय है हमारे ख़ानदान के बारे में सोचने का? आप बताइये, क्या आज हर रोज़ दूरदर्शन के नेशनल चैनल पर हमारे ख़ानदान के बारे में समाचार दिये जाते हैं या फिर एन.डी.टी.वी की बरखा दत्त हमारे ख़ानदान पर प्रोग्राम करती रहती है? कितने लोगों को पता चलेगा कि विवेक शुक्ला ने किसी ग़ैर-ब्राह्मण लड़की से विवाह कर लिया है।… मां हमारे कुल रिश्तेदार हैं कितने ?… उनमें से कितने दिल्ली में रहते हैं ?… जो केवल जान पहचान वाले हैं वे सब तो याद भी नहीं रख पाएंगे कि कभी विवेक के विवाह में गये भी थे।
भूमि की सहेलियों को भी भूमि से कुछ जलन सी होने लगी थी… उनमें हिम्मत नहीं थी कि अपने अपने परिवार से विद्रोह कर सकें… मन ही मन उनके दिलों में भी दूसरी जातियों के लड़के घर किये बैठे थे… मगर आसान नहीं है सत्ता के विरुद्ध खड़ा हो पाना… कहने को वक्त बदल रहा है… दिल्ली, कानपुर, भोपाल, सागर, जयपुर और कितने ही शहरों में खटीक लड़कियां पढ़ लिख गई हैं… फिर भी उनके विवाह के इश्तिहार समाचारपत्रों और डॉट.कॉम जैसे वेबसाइट पर दिखाई दे जाते हैं। उन्हें शादी तो अपने परिवार की मजऱ्ी के अनुसार ही करनी होगी…
“जब तुम विवेक की बाहों में होती होगी, लगता होगा न कि उसकी छाती जैसे विशाल आकाश हो… तुम दोनों हिम्मत वाले हो… मगर यह तो बताओ कि शादी करोगे कैसे… अगर परिवार वाले केवल रिश्ते तोड़ लें तो कौन परवाह करता है… दिक्कत तो यह है कि यहां ख़ून की नदियां बहने वाली हैं… मुझे तुम दोनों की बहुत फिक्र होती है… ” रक्षा को भूमि की फिक्र हो रही थी या फिर वह अपना भविष्य भूमि और विवेक में खोजना चाह रही थी… कहना आसान नहीं…
“सोच, तू भूमि शुक्ला हो जाएगी… भला कौन पूछने आने वाला है कि तुम पहले सोनकर थीं या फिर चन्देल, सोलंकी या पवार। सब कहेंगे भूमि शुक्ला… सोचकर ही रोमांच हो उठता है। तुम्हारा अपना आकाश होगा एक नया क्षितिज… तुम्हारी उड़ान की कोई सीमा नहीं होगी… तुम पर जाति का बन्धन नहीं होगा… काश! हम सब भी तुम्हारी किस्मत ले कर पैदा होतीं।” रक्षा जैसी और सहेलियां भी तो ईष्र्या का शिकार हो रही थीं।
विवेक भी परेशान था कि भूमि से विवाह करे भी तो कैसे… इस बीच उन दोनों ने लन्दन के एक अस्पताल में नौकरी के लिये एप्लाई कर दिया। ब्रिटेन का एन. एच. एस. (नेशनल हेल्थ सर्विस) तो भारतीय डॉक्टरों की सिर पर ही चल रहा है। भूमि ने गायनॉकॉलॉजी और विवेक ने न्यूरो सेक्शनों में एप्लाई किया है। दोनों का पत्राचार जारी है। उम्मीद की डोर मज़बूत होती जा रही है… “भूमि, अब तो बस एक ही तरीक़ा दिखाई दे रहा है। या तो यहीं कोर्ट में शादी कर लें और पति पत्नी के तौर पर वहां जाया जाए, या फिर वहां पहुंच कर दोनों लन्दन में ही शादी कर लें।… हमारे माता पिता तो साथ देने वाले हैं नहीं।”
“मेरा ख़्याल यह है कि हम दोनों अपना वीज़ा अलग अलग लें और लन्दन चले जाएं। दोनों के माता पिता यही समझेंगे कि चलो अच्छा हुआ… दिल्ली से दूर होंगे तो सिर से प्यार का बुख़ार उतर जाएगा… और हम वहां लन्दन में सैटल हो कर शादी कर लेंगे… उसके बाद सोचेंगे कि दिल्ली कभी आना है या नहीं।” भूमि की आवाज़ में दृढ़ता साफ़ सुनाई दे रही थी।
“अजी सुणते हैं आप, छोरी कह रही कि लन्दन में नौकरी के लिये बुलावा आ गया उसको। तीन साल का कन्ट्रैक्ट है… जाणा चाह रही है। आपसे पूछणे में डरती है।” “अरे दिल्ली में रह के तो मुंह पे कालिख पोत रही है, विलायत में जाके पता नीं के गुल खिलावेगी। वहां किसी गोरे या काले से शादी कर बैठी तो के कर लेंगे? यहां चाहे बाह्मण का छोरा है, है तो हिन्दुस्तानी। भूरे काले बच्चे तो नहीं पैदा होंगे ना।?”
“मैं कहूं, जा लेणे दो जी। फिलहाल तो आज के तूफ़ान से बचने का इससे बढ़िया कोई तरीका दिखाई नहीं दे रहा।… “
“सुणो, ऐसा करते हैं कि दिलबाग सिंह के छोरे से बात चलाते हैं… अकाउण्टेण्ट हैं…सी.ए. भी कर ही लेगा… इंगलैण्ड ने मारो गोली… बस शादी करो छोरी की। डॉक्टरी तो पढ़ बैठी… इब और कौण सा तीर मार लेगी विलायत जा के!”
विवेक के पिता ने ठीक वही सोचा जो विवेक का अन्दाज़ था, “हुम्म… किस अस्पताल में नौकरी मिल रही है?”
“लन्दन कॉलेज हॉस्पिटल में, पापा। “
“जब तूं पांचवीं में पढ़ता था तो हमारे पुरोहित जयदेव वशिष्ठ जी ने भविष्यवाणी की थी कि तुम विदेश ज़रूर जाओगे।… उनका कहा सच हो रहा है। कितने साल का कॉन्ट्रैक्ट है?” “शुरुआत में तो तीन साल का है पापा, मगर नेगोशिएबल है। आपसी समझ से बढ़ भी सकता है। “
“बेटा क्या यह नहीं हो सकता कि तूं भारद्वाज साहिब की बेटी से शादी करके विदेश जाता। वो भी डेन्टिस्ट्री के आख़िरी साल में पढ़ रही है। तुम्हारी ट्रेड की भी है और ब्राह्मण परिवार की भी है।… तुम्हारी बात भी रह जाएगी कि बिरादरी के बाहर शादी करनी है और हमारी बात भी रह जाएगी कि ब्राह्मण बहू घर में आ जाएगी।” “पापा, आप मुझे पहले कैरियर बना लेने दें। शादी के बारे में बाद में सोचेंगे।” मां ने अपने पति का हाथ दबाते हुए बात को वहीं ख़त्म करने का इशारा किया। शुक्ला साहब बेदिली से अपनी पत्नी की बात मान गये।
बस तय हो गया कि विवेक दस दिन पहले लन्दन पहुंचेगा और वहां जा कर होस्टल या रहने का इन्तज़ाम देखेगा और दस दिन बाद जब भूमि वहां पहुंचेगी तो उसे हीथ्रो एअरपोर्ट पर लिवाने पहुंच जाएगा।
एक नई दुनियां, नये लोग, नये सपने… सब नया होगा… वहां दोनों एक साथ होंगे… अपनी नई दुनियां का निर्माण करेंगे। दोनों की पहली हवाई यात्रा होगी। भूमि इस अनुभव को भी विवेक के साथ जी लेना चाहती थी। मगर डर कि कहीं एअरपोर्ट पर दो ब्रह्मास्त्रों का टकराव ना हो जाए।
भूमि के लिये दस दिन बिना विवेक के अपने घर में रह पाना कुछ ऐसा था जैसे अचानक हवा रुक गई हो… जीवन थम गया हो… वह एक सुरंग में फंस गई हो… दूर तक अन्धेरा है… रौशनी की कोई उम्मीद नहीं… अपनी मां, अपने पिता पराए से लग रहे हैं… शब्द उसका साथ छोड़ गये हैं… अपना सूटकेस तैयार करके बैठी है… पिता…. लन्दन पहुंच कर विवेक और भूमि ने एक नया संसार देखा।… यहां कोई किसी की जात नहीं पूछता है। उनके अस्पताल में काले, गोरे, चीनी, युरोपीय, भारतीय सभी तरह के लोग काम करते हैं। विश्वास नहीं होता था कि अस्पताल सरकारी है… उन्होंने भारत के सरकारी अस्पताल भी देखे थे और प्राइवेट अस्पताल भी। यह अस्पताल सरकारी हो कर भी प्राइवेट का अहसास क्यों करवा रहा है। विवेक का मिलनसार व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण है कि सामने वाला खिंचा चला आता है।
नॉर्थविक अस्पताल में दोनों को काम मिला था। दोनों की किस्मत अच्छी थी कि अस्पताल की एक नई पॉलिसी के तहत दोनों को एक्सीडेण्ट एण्ड एमरजेंसी सेक्शन में ट्रेनी डॉक्टर की नौकरी मिल गई थी। वरना ब्रिटेन में डॉक्टर की नौकरी पाने के लिये पहले पीलैब टेस्ट पास करना होता है।
मित्रों ने पहले ही बता रखा था कि हैरो या वैम्बली में रहोगे तो भारत की याद कम आएगी और अगर साउथहॉल या हाउन्सलो में रहोगे तो लगेगा जैसे पंजाब या दिल्ली के बाज़ारों में घूम रहे हो। विवेक चाह रहा था कि उसका अस्पताल उसे रहने के लिये होस्टल में ही जगह दे दे। कुछ रस्साकशी सी चल रही थी।
नये स्थान, नई मिट्टी, नये लोग… क्या इतना ही आसान है वहां जा कर अपने आपको जमा लेना। “यार भूमि, लगता है कि यहां हमारे फेफड़ों को बहुत परेशानी होने वाली है। “
“ऐसा क्यों? ” “यार हमारे फेफड़े तो आदी हैं दिल्ली के पॉल्यूशन और ट्रैफ़िक जाम के। यहां तो इतनी साफ़ हवा है कि हमारे फेफड़े हैरानी के मारे जगह छोड़ कर बाहर आ जाएंगे।” “सच विवेक, यहां का हरा रंग कितना गहरा हरा है। लन्दन से थोड़ा बाहर निकलते ही लगता है कि जैसे हरे रंग की आपसे में ही प्रतियोगिता हो रही हो। कितने तरह के हरे रंग दिखाई देते हैं यहां।”
“भूमि, अब हमें जल्दी से जल्दी शादी कर लेनी चाहिये।”
“अरे, इतनी जल्दी भी क्या है? अभी तो हम लन्दन में आए ही आए हैं। कुछ दिन इसका लुत्फ़ तो उठा लें ज़रा। हम दोनों तय कर लें कि शनिवार और रविवार हम गोरे लोगों की तरह बस घूमें, फिरें और जियें। “
विवेक अभी भी उहापोह का शिकार बना खड़ा था। एक पल के लिये उसके मन में एक विचित्र सा अहसास जन्म लेने लगा… “क्या लन्दन पहुंच कर भूमि शादी के बारे में कुछ नये ढंग से सोचने लगी है… क्या पिता का डर उसे यह क़दम नहीं उठाने दे रहा… क्या ज़रूरी नहीं की जल्दी से जल्दी शादी हो और एक बच्चा भी हो जाए… कहीं भूमि अपने कैरियर के चक्कर में अपनी निजी ज़िन्दगी को हाशिये की तरफ़ तो नहीं धकेल रही…”
फिर अपने आप को समझाता है। नहीं… भूमि ऐसा नहीं कर सकती… उसकी आंखों से साफ़ ज़ाहिर होता है कि वह अपने विवेक के बिना जीवन के बारे में सोच भी नहीं सकती।… वह कितनी बेतुकी बातें सोचने लगा है… वह क्यों नहीं समझ पा रहा कि भूमि एक नये देश, नये माहौल और नये लोगों के साथ जीवन में पहली बार मिली स्वतन्त्रता का आनन्द ले रही है। यहां उसके सलोने रंग को लोग पसन्द कर रहे हैं… उसमें आत्मविश्वास किस क़दर बढ़ गया है… उसके भीतर से जाति का अहसास जैसे आहिस्ता-आहिस्ता समाप्त होता जा रहा है… और शायद यही ठीक भी है कि जब वे दोनों विवाह के बंधन में बंधें तब तक भूमि के मन से यह ग्रन्थि पूरी तरह निकल जाए कि वह दलित परिवार से है।
भूमि बोलती कम है… लोग उसके दिल की थाह नहीं पा सकते। उसके व्यक्तित्व में एक अनूठा अपनापन है। जो उसे मिलता है उसका हो कर रह जाता है… शायद हर किसी को अपनी बात कहने की जल्दी है… दूसरे की सुनने का समय किसी के पास नहीं है… संभवत: इसीलिये हर व्यक्ति अपनी अपनी राम कहानी भूमि को सुना जाता। एकाएक विवेक के चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई… फ्लैट किराए पर लेना था… एस्टेट ऐजेन्ट भारतीय मूल का गुजराती… रमणीक भाई… दिल्ली के प्रॉपर्टी डीलर यहां एस्टेट एजेन्ट कहलाते हैं… क्या नाम बदल जाने से फ़ितरत भी बदल जाती है?… सोच कहीं रुकने का नाम क्यों नहीं लेती… भूमि सोनकर!… भूमि शुक्ला!… हां हां… ज़रूर बदल जाती होगी सोच… मगर यहां लन्दन में तो सब उसे बूम्ज़ी ही कहेंगे… तो क्या केवल भारत में पहचान बदलेगी?
लन्दन में अस्पताल के साथी कर्मचारी कभी भी भूमि के नाम का सही उच्चारण नहीं कर पाते थे। समस्या तो अंग्रेज़ी ज़बान की है न कि साथी मित्रों की। अंग्रेज़ी ज़बान में ‘भ’ जैसी कोई ध्वनि नहीं होती। इसीलिये सब साथी भूमि को बूमि कह कर पुकारते। फिर बूमि से बना बूम्ज़ और अंतत: बूम्ज़ी पर जा कर रुका। अब भूमि सोनकर केवल बूम्ज़ी बन कर रह गई है। वह इस नये अवतार से प्रसन्न भी है। इस नये नाम में रमती जा रही है… अब न वह दलित है और न ही विवेक ब्राह्मण। भूमि चिल्लाए जा रही है… लेक डिस्ट्रिक्ट की ख़ूबसूरत ‘विण्डरमेअर झील’ का पानी उसकी भावनाओं का साथ दे रहा है। “ओ विवेक, आइ लव इट हीअर… मुझे बहुत अच्छा लग रहा है… यहां तुम सिर्फ़ मेरे विवेक हो और मैं तुम्हारी बूम्ज़ी… हम यहीं बस जाएंगे… मुझे नहीं वापिस जाना उस नर्क में… भगवान, तुम सुन रहे हो न… तुमने नाइन्साफ़ी की मेरे साथ… मगर यह मुल्क़ यह शहर… ये लोग… सब ग्रेट हैं… तुम्हारे लिखे को मिटा दिया है इन्होंने… आइ लव इट… विवेक आई लव यू…. “
विवेक शान्त खड़ा भूमि की भावनाओं को निहार रहा है… निश्छल भावनाएं… जीवन में पहली बार आज़ादी का अहसास मिला है उसे। आवेश में आकर उसने सरे-आम विवेक को होठों पर चूम लिया है… आज विवेक झिझक रहा है… बन्द कमरे के रिश्ते को पश्चिमी माहौल सड़क पर ले आया है… यह विद्रोह नहीं हो सकता… यह उत्सव है… समारोह… भूमि अचानक बुद्ध बन गई है… उसे ज्ञान हो गया है… समझ आ गया है उसे कि राम राज्य यदि कहीं है तो यहां है… समाजवाद के नारे नहीं… केवल सच्चा समाजवाद यहीं है… वह आगे बढ़ता है और भूमि को अपनी बाहों में ले लेता है। भूमि उसकी छाती में अपना सिर छुपा लेती है।… ख़ुशी अचानक गीली हो जाती है…एक पिक्चर पोस्टकार्ड बन जाता है… विवेक की छाती पर सिर रखे भूमि आहिस्ता आहिस्ता चल रही है… झील, पहाड़, आकाश और धुन्ध सभी उनके प्यार की गवाही दे रहे हैं।
“विवेक मुझे नहीं लगता कि मैं वापिस भारत जाकर अपने आपको एडजस्ट कर पाऊंगी।”
“क्यों जान ? भला भारत से ऐसी कौन सी ग़लती हो गई?”
“तुम्हें याद है, परसों हम दोनों आदिति पाण्डे के घर डिनर पर गये थे?”
“इन रोमांटिक पलों में तुम्हें आदिति पाण्डे का डिनर क्यों याद आ रहा है?”
“उस डिनर में एक ऐसी बात हुई जिसने मेरे दिल पर अमिट छाप छोड़ दी है। आदिति ने मेरे व्यक्तित्व को झिंझोड़ कर रुढ़ियों से आज़ाद कर दिया है। मैं दो दिन से तुम्हें बताने को बेचैन हूं… “
“तो बता दो न, तुम्हें रोका किसने है?”
“विवेक, परसों जब मैंने अपना खाना प्लेट में डाल लिया और खाने लगी तो आदिति मेरे पास आकर बोली कैसी लग रही है हमारी कुकिंग, बूम्ज़ी? ज़ाहिर है कि मैंने खाने की तारीफ़ की। लेकिन साथ ही साथ यह भी कह दिया। अरे तुम ख़ुद ही टेस्ट करके देख लो न।… लेकिन उसके बाद जो आदिति ने किया… मैं सोच भी नहीं सकती थी।”
“आख़िर ऐसा भी क्या कर डाला आदिति ने? “
“उसने आगे बढ़ कर मेरी प्लेट में से रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा और मटर पनीर की सब्ज़ी में से एक टुकड़ा पनीर का लिया और अपने मुंह में डाल लिया। और बोली झ्र भाई वाकई… खाना तो टेस्टी बना है। और मेरी प्यारी सी बूम्ज़ी की प्लेट से लिया खाना तो और भी अधिक टेस्टी हो गया है।”
विवेक बहुत ध्यान से भूमि की बात सुन रहा था।… भूमि के लिये यह घटना और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गयी थी क्योंकि आदिति तो जानती है कि भूमि दलित है। यानि आदिति भी ठीक विवेक की ही तरह मनुष्य को उसकी जाति से जोड़ कर नहीं देखती।
उसी शाम दोनों ने विवाह का निर्णय भी ले लिया था। वापिस जाकर हैरो सिविक सेन्टर में अपने विवाह का आवेदन भी जमा करवा दिया। दोनों ने अपने अपने परिवार को इस विषय में कोई सूचना न देने का निर्णय किया था। मगर दोनों को अपनी अपनी मां पर बहुत भरोसा भी था और प्यार भी। दोनों ने एक एक फ़ोन किया और एक दूसरे की मां से बातचीत भी करवा दी। दोनों माओं को जलती आग पर खड़ा करके विवेक और भूमि ने मैरिज रजिस्ट्रा र के सामने हस्ताक्षर करके जीवन भर के लिये एक दूसरे का हो जाने के निर्णय पर मोहर लगा दी थी।
“विवेक, मैं आज से भूमि शुक्ला हो गई ! एक नई पहचान… एक नया जीवन… सोच कर कहीं कुछ अच्छा लग रहा है।”
“भूमि अगर तुम अपना नाम भूमि सोनकर शुक्ला लिखना चाहो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।… मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो अपनी पत्नी पर दबाव डालें कि विवाह के बाद अपना नाम बदलना ही होगा।”
“तुम कितने अच्छे हो विवेक… मुझे एक किस्सा याद आ गया। मेरी एक सहेली थी माया वाल्मीकि। उसने भी मेरी ही तरह प्रेम विवाह किया था। उसका पति शायद अरोड़ा था… हां याद आ गया… प्रशांत अरोड़ा। स्टेट बैंक में अफ़सर था। माया ने अपना नाम माया वाल्मीकि अरोड़ा रखा था। वह दलितों को मिलने वाली सुविधाओं से वंचित नहीं होना चाहती थी। उसके पति को भी सुविधाजनक लगता था। मैं हैरान होती थी कि आखि़र माया को क्या मजबूरी है। स्वयं भी बैंक में थी और पति भी। अच्छी भली कमाई थी। फिर अपने आपको क्यों दलित कहलाना चाहती थी।…. एक बात बताऊं विवेक….. “
“कहो न… ” “हम दलित यह भी चाहते हैं कि लोग हमें दलित न कहें… न समझें… मगर हम अपनी सुविधाओं को खोना भी नहीं चाहते… हमें आरक्षण भी चाहिये और सम्मान भी।” “भूमि तुम किन पचड़ों में पड़ गईं… आज हमारी पहली रात है… बस प्रेम की बातें करेंगे… राजनीति से हमें क्या लेना।”
“तुम्हारे लिये बहुत आसान है विवेक… मैंने बचपन से ले कर एम.बी.बी.एस. तक बहुत सहा है… इन दबावों से मुक्ति पा लेना मेरे लिये इतना आसान नहीं है।… माया की भी शिकायत हो गई थी।… फिर उसे आरक्षण कोटे से हाथ धोना पड़ा था। वर्ना बेचारी को प्रोमोशन जल्दी मिल जाती।”
“सुनो हम बच्चा जल्दी नहीं करेंगे… पहले जी भर कर ऐश करेंगे। छुट्टियों में पेरिस, जिनेवा, एम्सटर्डम, रोम… पूरा यूरोप देखेंगे।”
“मेरे दिल में एक डर है… हम दोनों के हालात साधारण नहीं हैं… बच्चा परिवार को बांध कर रखता है। हम दोनों का पहला बच्चा जल्दी होना ज़रूरी है। वरना हमारे माता पिता हमें अलग करने का प्रयास ज़रूर कर सकते हैं।”
अचानक वही मां-बाप विलेन बन जाते हैं जिन्होंने बचपन से लेकर जवानी तक पाला पोसा होता है और पढ़ाई करवाई होती है। जो चलना सिखाते हैं, बोलना सिखाते हैं, सोचना सिखाते हैं… वही बदलती सोच को समझने से इन्कार कर देते हैं। ऐसा नहीं कि भूमि और विवेक के मन में कोई उहापोह नहीं है। वे दोनों परेशान हैं सोच कर कि जब वापिस भारत जाना होगा तो अपने अपने परिवार का सामना कैसे कर पाएंगे।
जहां इन्सान काम करता हो वहीं एक दिन जब ग्राहक के रूप में पहुंच जाता है तो कुछ विचित्र सा तो लगता ही है। भूमि भी उसी वार्ड में पहुंच गई थी जहां वह गर्भवती महिलाओं की जचगी करवाती रही थी। उसने बहुत सी औरतों को दर्द से तड़पते देखा है। नहीं चाहती कि विवेक उसे दर्द सहते हुए देखे। हालांकि स्वयं डॉक्टर है मगर अपनी भूमि के दर्द को सह नहीं पाएगा। इसीलिये भूमि ने उसे डिलीवरी के समय लेबर रूम में रहने से रोक दिया है। उसकी डॉक्टर ने तो कह दिया, “बूम्ज़ी, यू लुक टू कम्फ़र्टेबल फ़ॉर डिलीवरी।”
भला डॉक्टर को क्या मालूम कि भूमि कितना दर्द सहने का माद्दा रखती है। उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। किन्तु वह जानती थी कि एक दो घन्टों में डिलीवरी होने ही वाली है।
दोनों को मालूम है कि बेटी होगी… साइंस के कुछ लाभ भी होते हैं… दोनों बहुत ही उत्साहित हैं… विवेक ने बेटी का नाम भी सोच रखा है… ऊर्जा… मगर भूमि का मत इस बारे में स्पष्ट है। नाम वैसा होना चाहिये जिसका उच्चारण यहां के लोकल अंग्रेज़ आसानी से कर सकें। भूमि से बूम्ज़ी की यात्रा उसके दिमाग़ में ताज़ा है। उसकी सोच व्यवहारिक है, “विवेक, हमारी बिटिया का नाम ‘ए’, ‘बी’ या ‘सी’ से शुरू होना चाहिये। ‘एस’ से ‘ज़ेड’ वाले बच्चे हमेशा लिस्ट में सबसे नीचे रहने को अभिशप्त होते हैं। वैसे भी हमारा सरनेम शुक्ला तो ‘एस’ से ही शुरू होता है।”
उसने एक सूची भी बना ली थी… अन्या, अनीता, आयशा, आलिया, बेला, डेज़ी, डालिया, जिया… बस ‘जी’ से आगे नहीं जाएगी। ये नाम ब्रिटिश गोरे आसानी से बोल पाते हैं। भूमि ने मदर केयर से एक किताब भी ख़रीद ली थी। उसमें वह अपनी पुत्री के बचपन से बड़े होने तक के सारे रिकॉर्ड नोट करेगी। उसके पहले बाल; छोटे छोटे हाथ और पैरों के निशान; दांतों का पूरा रिकॉर्ड… और पहली फ़ोटो से लेकर पांच वर्ष तक के सारे चित्र। उसमें बच्ची के दादके और नानके परिवार के सभी नामों का एक पेड़ भी बना था। अपने अपने दादा दादी और नाना नानी के नाम तो भूमि और विवेक को याद थे। उससे आगे कुछ नहीं… विवेक से रहा नहीं गया… उसने सोच ही लिया… जब हमें अपने दादा दादी और नाना नानी से पहले पूर्वजों के नाम ही याद नहीं तो काहे का ख़ानदान और काहे की बिरादरी।
विवेक का मानना है कि बिरादरी शब्द बिरादर से निकला है। यानि कि आपके भाई-बन्द। उसे याद नहीं कि इस बिरादरी ने कभी किसी का भला किया है… हां राह में रोड़े ज़रूर बिछाए हैं। इसी बिरादरी ने ही तो उसे और भूमि को देश निकाला दिया है। विवेक की मां से नहीं रहा गया। उसने अपने पति को सब कुछ बता दिया। वह अपनी पोती के जन्म पर आकर स्वयं अपनी बहू की देखभाल करना चाहती थी। पति ने पुत्र को माफ़ नहीं किया मगर पत्नी को जाने से रोका भी नहीं। मां आ पहुंची थी। भूमि और पोती की देखभाल के लिये… विवेक को भी मां के हाथ का खाना मिलने लगा था। वह हैरान भी था… कहीं कोई तनाव नहीं। मां ने एक बार भी नहीं कहा कि घी और मेवों से भरी पंजीरी खानी आवश्यक है। वैसे भी मां कम बोलती है… उसे सुकून इसी बात का था कि वह अपने हाथों अपनी पोती की देखभाल कर रही है। हर रोज़ अमिता की मालिश करतीं… नहलातीं… और कपड़े बदलतीं। उसके रोने पर चुप करातीं… भूमि को पूरा आराम मिल रहा था और मां का व्यक्तित्व उस पर छाया जा रहा था। बस एक आदेश ज़रूर दिया था, “भूमि बिटिया को अपना दूध पिलाएगी। ऊपर के दूध पर नहीं पलेगी बच्ची।” उस आदेश को मानने में भूमि ने कोई आपत्ति भी नहीं की। दिल्ली में बैठे नाना को कुछ पता नहीं था कि लन्दन में क्या कुछ घटित हो रहा है। उन आंखों में अभी दूसरी तरह के सपने थे। वे अपने सपनों में अपनी बेटी का विवाह देख रहे थे… जबकि बात वहां से बहुत आगे बढ़ चुकी थी।
“सुनो भूमि… क्या आवश्यक है कि हम भारत जाएं ही ? क्या यह नहीं हो सकता कि हम दो सप्ताह के लिये युरोप के ट्रिप पर चले जाएं और वापिस लन्दन आ जाएं?”
“परमानेंट स्टे के लिये ज़रूरी है कि हम एक चक्कर भारत लगा कर आएं।… यही तो बताया गया है न।”
मां का फ़ोन आ गया था, “तुम दोनों ने ऐसा सोचा भी कैसे कि तुम अपने घर न आ कर कहीं और जाओ?”
एअरपोर्ट पर भी अकेली मां ही लेने आई थी… विवेक की निगाहें पिता को ढूंढ रही थीं।… मगर क्या इतना ही आसान था….
घर पहुंच कर भी पिता ने पुत्र को आशीर्वाद नहीं दिया… बस अपनी पोती को गोद में उठा कर अपने कमरे में चले गये। मां ने आंखों ही आंखों में विवेक को समझा दिया। पिता अपनी पोती से खेल रहे थे।
भूमि ने अपनी मां को फ़ोन किया। मां घबरा गई, “सुनो बेटी, मैं अभी तक तुम्हारे बाऊजी से बात नहीं कर पाई। कल सुबह वे तीन दिन के लिये जलंधर जा रहे हैं। तुम दोपहर को आ जाना… दो दिन रह जाना… हां दामाद जी और बिटिया को ज़रूर ले कर आना। अभी तक दोनों को शगुन नहीं डाला…. ” “विवेक भूमि और अमिता को लेकर दोपहर के समय अपने ससुराल जा पहुंचा। पूरा मोहल्ला जैसे इकट्ठा हो गया था। सब उचक उचक कर भूमि और उसके परिवार को देख रहे थे। भूमि आख़िर लन्दन से आई थी और साथ में परिवार लाई थी। विवेक भूमि और अमिता को छोड़ कर चला गया। अब मां ने पहली बार बेटी से बातें शुरू कीं। उसके दिल में पति का डर अपना फन बार बार उठा रहा था। अमिता रह रह कर रोने लगती….
भूमि ने मां को अपने लन्दन जीवन के बारे में बहुत कुछ बताया… उसकी आंखें पूरे घर का जायज़ा ले रही थीं… कुछ नहीं बदला था… घर का पेण्ट तक नहीं करवाया गया था… शायद भूमि के न होने के कारण ही पिता ने कुछ करवाया नहीं था… दीवारों का पलस्तर भी जगह जगह से उखड़ रहा था।…
रह रह कर भूमि को घर के बिस्तर और पर्दों में से एक अजीब सी गंध महसूस हो रही थी। शायद उसी गंध की वजह से अमिता भी बीच बीच में रोने लगती… भूमि के लिये यह गंध सहना असह्य हुए जा रहा था। उसे अपनी मां की बातें ठीक से सुनाई नहीं दे रही थीं। उसका दिल अपने ही घर में नहीं लग रहा था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि इसी घर में उसने अपना पूरा जीवन बिताया था… उसने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया… मां ने लाख पूछा… मगर भूमि ने बस इतना ही कहा… मां अभी हमें अकेले रहने की आदत नहीं है। विवेक को मुश्किल होगी…. भूमि टैक्सी में बैठ कर वापिस चल पड़ी… उसे महसूस हुआ जैसे टैक्सी में भी उसकी मां के घर की गन्ध भर गई है… वह डर गई, कहीं उसकी बेटी की सांस उस गन्ध के मारे रुक न जाए… उसने टैक्सी की खिड़कियां खोल दीं..।
(लेखक प्रतिष्ठित प्रवासी साहित्यकार हैं।) 

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