उत्तर प्रदेशदस्तक-विशेष

नाईक की मुस्कान में बच्चों जैसा उल्लास

हृदयनारायण दीक्षित

ज्ञान प्राप्ति कठिन नहीं लेकिन जाने हुए को कर्म में लागू करना श्रम साध्य है। प्रकृति का अणु परमाणु गतिशील है। गति के कारण ही कालबोध है। भारतीय चिन्तन में कालरथ की धारणा है। अथर्ववेद में कहा गया है कि ज्ञानी ही इस रथ पर बैठ पाते हैं। गति और काल साथ साथ हैं। इसलिए काल के समानान्तर गति करना दुरूह श्रम साधना है। उ0प्र0 के राज्यपाल राम नाईक सतत् गतिशील श्रम साधक हैं। वे काल के साथ चलते हैं और काल से टकराते भी हैं। काल ने कैंसर जैसा रोग दिया। काल सामने था। नाईक ने काल देवता का प्रत्यक्ष दर्शन किया। कैंसर हार गया। नाईक की जीवन उपासना जीत गई। वे समय के अल्पतम भाग का भी सदुपयोग करते हैं। वैचारिक निष्ठा से समझौता नहीं करते। अथर्ववेद के बाद महाभारत में काल प्रभाव का सुन्दर वर्णन है। कहा गया है कि काल में शैशव है, बचपना है। काल में तरूणाई है। काल ही बूढ़ा करता है और काल ही जराजीर्ण करता है लेकिन नाईक की कर्मठता का जीवन सौन्दर्य अनूठा है। वे मोहक हैं, मनमोहन भी हैं। काल उन्हें बूढ़ा नहीं कर पाया। उनकी हंसी में 6-7 बरस के बच्चे जैसा उल्लास है।
नाईक के गुजरे तीन साल पर “राजभवन में राम नाईक” नामक किताब छपी है। राजभवन के अनेक नियम हैं, पौधो और घासफूस में भी अनुशासन है। लेकिन नाईक का जीवन का अनुशासन आश्चर्यजनक है। उन्होंने संसदीय जीवन में रोमांचक हस्तक्षेप किया है। उन्होंने स्वयं का पुनर्सृजन किया है। अपने जीवन में तमाम नयी पहल की है। श्री नाईक ने संसद में ‘जन-गण-मन’ व ‘वंदे मातरम्’ गायन की शुरूआत कराई। बॉम्बे और बंबई को उसका असली नाम ‘मुम्बई’ दिलाने का काम किया। कुष्ठ पीड़ितों को निर्वहन भत्ता दिलाया। सक्रिय सांसद के रूप में क्षेत्र में हजारों नई योजनाएं दिलाई। उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनने के बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि प्रदेश में स्थापना दिवस से संबंधित किसी समारोह का आयोजन नहीं होता है। उन्होंने ‘उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस’ आयोजित कराने हेतु प्रयास प्रारम्भ किये। यू0पी0 का इतिहासबोध जगाया। उन्हें सफलता मिली। 01 मई 2017 को मुख्यमंत्री ने प्रतिवर्ष 24 जनवरी को ‘प्रदेश स्थापना दिवस’ समारोह आयोजित करने की घोषणा की गयी। ‘मतदान जनतंत्र की मजबूत नींव है’, को समझाते हुए श्री नाईक ने जनता को मतदान हेतु न केवल प्रोत्साहित किया बल्कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 में 97 प्रतिशत से अधिक मतदान वाले तीन बूथों से जुड़े महानुभावों को राजभवन में सम्मानित भी किया। यह एक नये प्रयास के रूप में देखा गया।
राजनेता अपने जीवन का हिसाब नहीं देते। गए समय का रिकार्ड रखना आसान भी नहीं होता। लेकिन नाईक के पास हरेक बीते मिनट का लेखा है। उन्होंने राज्यपाल के रूप में गुजरे तीन बरस का लेखा प्रकाशित किया है। ऐसा काम वे सांसद विधायक के रूप में भी करते रहे हैं। हमारा संशयी मन तमाम प्रश्न करता है। क्या नाईक ने वास्तव में यू0पी0 के राज्यपाल पद पर तीन साल की अवधि का पूरा हिसाब दिया है? कुछ तो ऐसा है ही जो लेखा में नहीं आया। मैंने उनसे ही पूछा “क्या आपने आगंतुकों को चाय के साथ ‘और कुछ’ लिखाने का भी विवरण दिया है?” वे बालसुलभ मुस्कान के साथ हंसे और बोले “चाय का हिसाब तो है ही? मैं सोचता हूं कि असली विवरण तो भी छूट गया है और मेरे लेखे वही विवरण महत्वपूर्ण है। उन्होंने मुम्बई से लखनऊ आकर सैकड़ो लोगों को ढेर सारा प्यार दिया है। धनीभूत अपनत्व का घनत्व मधुप्रीति, मधुरीति और मधु अनुभूति से भरापूरा है। प्यार नापने का कोई पैमाना नहीं होता। प्यार वस्तु या पदार्थ नहीं होता। होता तो हम इतना क्विंटल प्यार कह लेते। प्यार दूरी नहीं होता। ईशावास्योपनिषद् के ऋषि की तरह कहें तो वह अतिदूर, अतिनिकट, भीतर और बाहर तक घेरता है। उन्होंने असीम प्यार दिया है सबको। ऐसे असीम प्यार का लेखा नहीं होता। ऐसी प्रीति पाने वालों में मैं भी एक हूं।
नाईक ने मार्गदर्शन भी दिल खोलकर बांटा। दो साल पहले भाजपा के एक जिलाध्यक्ष मेरे साथ उनसे मिल रहे थे। उन्होंने ज्ञापन दिया। नाईक ने कहा तुम्हारा लेटर हेड क्यों नहीं है? ज्ञापन पर फोन नम्बर भी नहीं है। नई विधानसभा के सदस्यों को प्रबोधन देते हुए उन्होंने छोटी छोटी बाते भी बताई। डायरी का महत्व बताया। कार्यालय का महत्व बताया। ऐसा व्यावहारिक ज्ञान प्रबंधन विशेषज्ञ अमेरिकी लेखकों की किताबों में ही मिलता है। ज्ञान को कर्म और कर्म को ज्ञान बनाना हमने उनसे ही सीखा है। मैंने विभिन्न विषयों पर सैकड़ों पुस्तकें पढ़ी हैं पर नाईक का व्यावहारिक ज्ञान अद्वितीय है। यू0पी0 बड़ा राज्य है। हरेक जिले में उनकी मिलनसारिता के किस्से हैं। वे दिल खोलकर बाते करते हैं, मिलने वाले भी दिल खोलकर अपना पक्ष रखते हैं। उनकी भाषा तरल और सरल है। उनका व्यक्तित्व विरल है। राजधानी के वरिष्ठ पत्रकार भी उनके चहेते हैं। वे वयोवृद्ध हैं, अनुभव ने उन्हें तेजस्वी बनाया है। मैं उनसे 12 बरस छोटा हूं। तो भी उन जैसी जवानी नहीं। वैसी जिजीवीषा नहीं। वैसी कर्मतपस्या नहीं। मैं उनसे प्रेरित होने के प्रयास में हूं।
बीमारी संक्रामक होती है। अनुभव भी संक्रामक होता है। अनुभवी के पास बैठने से अनुभव का संक्रमण होता है। ज्ञानी की संगति ज्ञान देती है। भारतीय दर्शन के शीर्ष ग्रंथ इसीलिए उपनिषद् कहे गए हैं। उपनिषद् का अर्थ है – निकट बैठना। ठीक से बैठना। बुद्धि की खिड़की खोलकर वातायन का स्वागत करना। नाईक पढ़ते हैं, प्रगाढ़ अनुभवी हैं। उनके साथ बैठना उपनिषद् जैसी प्रतीति ही है। सो मैं और मेरे जैसे तमाम लोग उनके साथ बैठने को आतुर रहते हैं। मिलना भी कई तरह का होता है। कुछ लोग आधे मन से मिलते हैं। कुछ लोग मिलते ही पूरा मिल जाते हैं। द्वैत नहीं रहता। वे दो से एक हो जाते हैं। ऐसा मिलन उत्तम है। मेरा प्रश्न नया है। क्या बिना मिले भी मिला जा सकता है? मैं अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं देता हूं। हां नाईक जैसे महानुभावों से बिना मिले भी मिला जा सकता है। उनके माधुर्य का स्मरण करते हुए और उनकी यश कीर्ति और सरलता का आस्वाद लेते हुए बिना मिले भी मिलने जैसा आनंद लिया जा सकता है? ‘चरैवेति चरैवेति’ उनकी अपनी लिखी किताब है, स्वयं के विषय में स्वयं की कथनी। उनके गतिशील जीवन के प्रेरक छंद हैं इस कथा में। विधानसभाध्यक्ष होने के बाद मैं संवैधानिक दायित्व के चलते उनसे मिलता हूं। पहले की तरह समय नहीं रहता लेकिन मैं उनसे बिना मिले भी मिलता रहता हूं। यह मिलन आत्मीय है।
समयाभाव वाले सौभाग्यशाली होते हैं। यो प्रकृति के हरेक प्राणी के पास 24 घंटे ही होते हैं। मनुष्य अपनी प्राथमिकताएं तय करते हैं। कुछ लोग समयाभाव को और गाढ़ा करते हैं। व्यस्तता को और व्यस्त करते हैं। दिनचर्या में सेंधमारी होती है। अवकाश आकर्षित करता है। लेकिन आलसी के पास समयाभाव नहीं होता। समयाभाव में ही अवकाश का आनंद है। नाईक इस आनंद से भरेपूरे हैं। व्यस्तता का घट उफनाता है। जीवन बाह्याभ्यंतर रस सिक्त जीवन सौंदर्य में खिलता है। इतिहास ध्यान से देखता है ऐसे कर्मतप को। तनावपूर्ण जीवन गद्य जैसा और प्रीतिपूर्ण जीवन कविता। ज्ञान और कर्म मिलते हैं, द्वैत टूटता है भीतर अद्वैत के छन्द उगते हैं तब ऋक और साम एक साथ हो जाते हैं। नाईक के साथ ऐसा ही होता आया है। उनके जीवन अनुशासन में शास्त्रीयता है लेकिन प्रीति रीति में लोक का आच्छादन। ऐसे तीन बरस के तप को पुराणों में तीन हजार वर्ष की तपस्या कहा गया है। समय का हिसाब सही होता भी नहीं। गति और दिशा ही विचारणीय है। नाईक का अभिनंदन। शुभकामना है कि वे अरूण तरूण रहें।

(लेखक उ.प्र. विधानसभा अध्यक्ष एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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