अन्तर्राष्ट्रीयदस्तक-विशेषसाहित्य

प्रवासी होने के फायदे तो हैं

डॉ. सुमन सिंह
प्रवासी साहित्य जगत का चर्चित, प्रतिष्ठित और बहुपठित नाम है तेजेन्द्र शर्मा। लन्दन में रहकर विगत कई वर्षों से साहित्य-सेवा के साथ-साथ कथा-यूके की स्थापना करके हिन्दी-उर्दू और पंजाबी साहित्य के प्रचार-प्रसार में जुटे हैं तेजेन्द्र। शांति जैसे टीवी सीरियल के लेखन में भी आपका योगदान रहा है। लेखन के साथ ही साथ अभिनय, बीबीसी में समाचार वाचन आदि अनेक गतिविधियों से जुड़े रहने वाले अपराजेय जीवनी शक्ति से ओत-प्रोत, अल्हड़-अलमस्त व्यक्तित्व के स्वामी तेजेन्द्र शर्मा के व्यक्तित्व-कृतित्व के अन्य अनदेखे पहलुओं को उजागर करने की छोटी सी कोशिश है डॉ.सुमन सिंह से उनकी यह बातचीत।

लन्दन प्रवास का संयोग कैसे बना?
लन्दन प्रवास का संयोग बना… सच कहा कि संयोग बना… किसी सोची-समझी नीति के तहत यह नहीं हुआ। मेरे जीवन के हर निर्णय में पत्नी इन्दु का बहुत महत्वपूर्ण हाथ रहा है। इसमें भी उसका परोक्ष हाथ तो कहा ही जा सकता है। इन्दु जब कैंसर से अपनी लड़ाई हार गई और हमें छोड़ गई तो सामने बहुत बड़ी समस्या खड़ी थी। मैं एअर इण्डिया में फ्लाइट परसर के पद पर काम कर रहा था। कई-कई दिनों तक देश से बाहर जाना पड़ता था। इन्दु के बाद ना तो मेरी मां और ना ही इन्दु की मां इस स्थिति में थीं कि हमारे पास मुंबई आकर रह पातीं। मैं अपने बच्चों को फरीदाबाद में रख कर पढ़ाना नहीं चाहता था। बच्चों को दिल्ली के एक बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करवाया मगर दोनों बच्चे साल भर बाद ही वापस मुंबई आ गये। फिर वही दिक्कत। मैं मुंबई में रह कर ग्राउण्ड जॉब नहीं करना चाहता था। सैलेरी का बहुत अंतर था। ऐसे में यह निर्णय लिया गया कि मैं लन्दन में बस कर कोई नौकरी करूं और बच्चे वहीं अपनी पढ़ाई पूरी करें और बस मैं पहुंच गया लन्दन। पहले बीबीसी रेडियो पर काम किया और फिर रेलवे में। यह भी सच है कि लन्दन के मेरे अनुभवों ने मेरे लेखन में एक नया रंग पैदा किया। यहां रह कर ही क़ब्र का मुनाफ़ा, बेतरतीब जि़न्दगी, कोख का किराया, ज़मीन भुरभुरी क्यों है, ओवरफ्लो पार्किंग, होमलेस वगैरह जैसी कहानियां लिख पाया।

वह पहली रचना जिसके प्रकाशित होने के बाद प्रतिक्रियाओं ने आपको पुलकित कर दिया था?
वैसे तो हर लेखक को अपनी प्रकाशित पहली कहानी का सुख जीवन भर याद रहता है। मगर मुझे अपनी कहानी उड़ान ने पहली बार विशेष सुख दिया क्योंकि डॉ. देवेश ठाकुर ने उसे 1982 की श्रेष्ठ कहानियों में शामिल किया था। यह कहानी एक एअर होस्टेस के धराशाई होने वाले सपनों की कहानी थी। नरेन्द्र कोहली ने कहा था कि जब हिन्दी कहानी का इतिहास लिखा जाएगा तो कहा जाएगा कि हिन्दी में एअरलाइन से जुड़ी कहानियां लिखने की शुरुआत तेजेन्द्र शर्मा ने की थी। इस कहानी पर भारत के बहुत से शहरों के अतिरिक्त विदेशों से भी पत्र आए थे जिनमें अभिमन्यु अनत भी शामिल थे। लेकिन जिस कहानी ने मुझे सच में पहली बार लेखक होने का अहसास दिलाया वह कहानी थी- काला सागर, 1985 की कनिष्क विमान दुर्घटना पर आधारित। इस कहानी ने मुझे बहुत से पाठकों के दिलों के करीब ला खड़ा किया। यहां तक कि कुछ ने इस कहानी की तुलना प्रेमचन्द की कफ़न कहानी से की। यही कहानी मेरे पहले कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी थी। इस कहानी के बाद मेरे कहानी लेखन की यात्रा तय हो चुकी थी।

लेखन की कौन सी विधा में आप ख़ुद को सहज महसूस करते हैं?
मैं अपने आपको मूलत: कहानीकार ही मानता हूं और मैं इस बात में कतई विश्वास नहीं रखता कि कहानीकार को संपूर्ण लेखक बनने के लिये उपन्यास लिखना आवश्यक है। कहानी उपन्यास का सारांश नहीं होता। अपने आप में एक संपूर्ण विधा है… वैसे कहने को मैनें कविताएँ भी लिखी हैं और गज़लें भी, मगर मेरा व्यक्तित्व एक कवि या शायर का व्यक्तित्व नहीं है। मैं एक कहानीकार की तरह सोचता हूं। कविता आप केवल प्रतिभा से लिख सकते हैं मगर कहानी लिखने के लिये प्रतिभा के साथ-साथ मेहनत की ज़रूरत होती है। कहानी दरअसल हर विधा की मां होती है क्योंकि साहित्यकार कुछ कहना चाहता है इसलिये वह क़लम उठाता है। वही उसकी कहानी होती है फिर विधा चाहे कविता हो, कहानी हो, नाटक हो, या उपन्यास… कहता वह कहानी ही है। अंग्रेज़ी औऱ हिन्दी के बहुत से कहानीकारों की कहानियां पढ़ कर अपनी ज़मीन पुख्ता की है। बहुत से कहानीकारों को तूफ़ान की तरह आते देखा है और फिर ग़ायब होते भी देखा है। एक अच्छे कहानीकार को गुणवत्ता के साथ-साथ निरंतरता का भी ध्यान रखना चाहिये। वैसे केवल लिखने के लिये भी नहीं लिखना चाहिये। जब तक कहने के लिये कुछ ख़ास ना हो तब तक क़लम को कष्ट ना ही दें तो अच्छा है।

लेखन और एअर इण्डिया की नौकरी में तालमेल कैसे बिठाये?
सच तो यह है कि मैंने हिन्दी में लिखना एअर इण्डिया की नौकरी के दौरान ही शुरू किया था। एअर इण्डिया ने मुझे कुछ ऐसे अनुभव दिये जो आम हिन्दी लेखक के लिये उपलब्ध नहीं थे। उड़ान, काला सागर, ईंटों का जंगल, ढिबरी टाइट, देह की कीमत, भंवर जैसी कहानियां संभव ही नहीं हो पातीं यदि मैं एअर इण्डिया में नौकरी न कर रहा होता। एक सच यह भी है कि मैंने बहुत सी कहानियां विदेशों में अपने दौरे के दौरान ही पांच सितारा होटलों में रहते हुए लिखीं। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैनें कहानी काला सागर अम्सटर्डम (हॉलैण्ड) में लिखी थी। मेरा दोस्त अरुण दीवान मेरे लिये भोजन बनाया करता था और मैं उसे रोज़ कहानी लिख कर सुनाया करता था। मैने तो शांति सीरियल के कई एपिसोड भी विदेशों में रहते हुए ही लिखे। ठीक इसी तरह कड़ियां मॉस्कों में लिखी और उड़ान रोम में। पत्नी इंदु के बाद मेरे लेखन पर सबसे अधिक प्रभाव एअर इंडिया का ही है। कुछ कहानियां तो एअर इण्डिया की उड़ान में एक यात्री की तरह सफ़र करते हुए लिखी गईं।

क्या इन्दु ही आपकी प्रेरणा थीं तब?
इन्दु हमेशा मेरी प्रेरणा थी और बनी भी रहेगी। कभी-कभी तो लगता है कि शायद इंदु को ख़ुश करने के लिये ही लिखता था। आज भी जब कभी किसी कहानी के किसी मोड़ पर उलझ जाता हूं तो सोचता हूं अगर इन्दु होती तो मुझे किस तरह का सुझाव देती…. वह आज भी मुझे ऐसी स्थितियों में राह दिखाती है।

अब तक आपकी कुल कितनी पुस्तकें प्रकाश में आयीं हैं?
प्रतिनिधि और श्रेष्ठ कहानियां टाइप संग्रह मिला कर हिन्दी की बारह कहानी संग्रह, दो कविता एवं ग़ज़ल संग्रह। पांच संपादित कृतियां और बांग्ला, उर्दू, पंजाबी, नेपाली और अंग्रेज़ी को मिला कर छ: अनूदित कहानी संग्रह।

कथा यू.के. की स्थापना का उद्देश्य क्या था, इसकी उपलब्धियों के बारे में कुछ बताना चाहेंगे?
इंदु की मृत्यु के तुरन्त बाद मुंबई में इंदु शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना की थी। इस ट्रस्ट के मुख्य उद्देश्यों में शामिल था 40 वर्ष से कम उम्र के हिन्दी कथाकारों को वार्षिक इंदु शर्मा कथा सम्मान से अलंकृत करना और कैंसर पीड़ित रोगियों की धन अथवा दवा से सहायता करना। मेरे लन्दन में बस जाने के बाद मेरे लिये बार-बार मुंबई आकर गतिविधियां जारी रखना संभव नहीं था। इन्दु शर्मा कथा सम्मान को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दिया और ट्रस्ट की गतिविधियां लन्दन में चलाने के लिये उसे कथा यूके का नया स्वरूप भी दिया। हमारे वर्तमान अध्यक्ष श्री कैलाश बुधवार हैं और संरक्षक हैं काउंसलर ज़किया ज़ुबैरी। अंतरराष्ट्रीय होते ही कहानी के साथ-साथ सम्मान के लिये उपन्यास को भी जोड़ा गया और आयु सीमा भी हटा दी गई। पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मान चित्रा मुद्गल को आवां के लिये दिया गया। इस सम्मान का आयोजन ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स में किया जाता है। कथा यू.के. के माध्यम से हम कथा गोष्ठियों का आयोजन ब्रिटेन के भिन्न-भिन्न शहरों में करते हैं। बहुत से शहरों में कहानी कार्यशालाएं भी आयोजित की गई हैं। भारत या किसी अन्य देश से लन्दन आए हिन्दी साहित्यकारों के साथ भी कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कथा यूके ने भारतीय उच्चायोग के साथ मिलकर भी कई कार्यक्रमों का आयोजन किया है। लन्दन के अतिरिक्त भारत में यमुना नगर, दिल्ली और मुंबई में कथा यू.के. ने प्रवासी हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन भी किया है।

आजकल किन रचनात्मक गतिविधियों में व्यस्त हैं ?
अभी हाल ही में दिल्ली के पत्रिका प्रवासी संसार के साथ मिल कर तीन दिवसीय प्रवासी साहित्य सम्मेलन का आयोजन कथा यू.के. ने किया है। पहले दिन के कार्यक्रम ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स में किये गये जिसमें ब्रिटेन के अध्यापकों, साहित्यकारों, मीडिया कर्मियों एवं संस्थाओं को सम्मानित किया गया। इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि थीं गोवा की गवर्नर श्रीमती मृदुला सिन्हा और मेज़बान थे हमारे ब्रिटिश सांसद विरेन्द्र शर्मा। दूसरे दिन का कार्यक्रम भारतीय उच्चायोग के सांस्कृतिक केन्द्र नेहरू सेन्टर में आयोजित किया गया जहां यह प्रस्ताव पारित किया गया कि जब तक हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा ना बन जाए, देवनागरी में लिखी जाने वाली किसी भी बोली को संविधान की आठवीं सूची में शामिल ना किया जाए, इस मामले में यथास्थिति बनाई रखी जाए। आख़री दिन हैरो काउंसिल के चेम्बर में एक हिन्दी उर्दू पंजाबी और गुजराती भाषाओं का कवि सम्मेलन किया गया। इसकी मेज़बान रहीं हैरो की मेयर महामहिम रेखा शाह। अब एक ऐसा ही कार्यक्रम टोरोण्टो (कनाडा) में करने की तैयारी चल रही है।

क्या आप प्रवासी लेखक कहलाना पसंद करते हैं?
यह सवाल बहुत ही कम्पलेक्स है। हम प्रवासी लेखक होने के फ़ायदे भी चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि हमें प्रवासी ना कहा जाए बल्कि मुख्यधारा का हिन्दी लेखक माना जाए। मगर सच तो यह है कि मुझे यू.पी. हिन्दी संस्थान, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, हरियाणा साहित्य अकादमी के साथ-साथ बीसियों पुरस्कार एवं सम्मान प्रवासी लेखक होने के नाते मिले हैं। बहुत से विश्वविद्यालयों में मेरी कहानियां पाठ्यक्रम में लगी हैं। बहुत से विश्वविद्यालय मुझे लेक्चर देने के लिये बुलाते हैं…. इस सबके पीछे मंशा एक ही है कि मैं प्रवासी लेखक हूं। अब सवाल मेरे अच्छा लगने तक का नहीं है… बात यह है कि इस ब्राण्ड पर इतना ख़र्च हो चुका है और इस इन्वेस्टमेण्ट को कोई भी सत्ता बेकार नहीं जाने देगी। बस मेरा एक प्रयास रहता है कि मैं किसी भी पत्रिका को उसके प्रवासी विशेषांक के लिये कोई रचना ना दूं। बस उनके साधारण अंक में मेरी रचना छपती रहे… सम्मान और पुरस्कार चाहे कहीं से आते रहें। 

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