दस्तक-विशेष

बलात्कारी बाबा के आगे लाचार सत्ता तंत्र

गुरमीत राम रहीम को अदालत ने बलात्कार के मामले में दोषी ठहरा दिया, उसे बीस साल की सजा सुना दी, उसे जेल भेज दिया। लेकिन इसके बावजूद भाजपा का उससे लगाव कम नहीं हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में हुई हिंसा के चार दिन बाद हिंसक घटनाओं पर अफसोस जरूर जताया मगर धर्म की आड में गुरमीत राम रहीम द्वारा किए गए धतकर्मों की निंदा करने से साफ तौर पर परहेज बरता। ऐसे में पार्टी के बाकी नेताओं को तो खामोश रहना ही था। हां, पार्टी की ओर से बलात्कारी ‘धर्मगुरू’ के बचाव में जरूर आवाजें उठी। पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद सुब्रमण्यम स्वामी और साक्षी महाराज ने तो गुरमीत राम रहीम को बलात्कार का दोषी मानने से ही इनकार कर दिया तथा उसे दोषी ठहराए जाने के अदालत के फैसले पर ही सवाल खडे कर दिए। दोनों सांसदों ने बेहद बेशर्मी के साथ गुरमीत राम रहीम पर लगे तमाम आरोपों को हिंदुत्व को बदनाम करने की साजिश तक करार दे दिया।

पार्थ जैन

बलात्कार के मामले में सजा पाकर जेल की सलाखों के पीछे पहुंच चुके धर्मगुरू कहलाने वाले डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह के मामले ने एक बार फिर इस हकीकत को उजागर किया है कि हमारे देश में धर्म के नाम पर लोगों की आस्था का शोषण करने वाले लंपट बाबाओं का घिनौना व्यापार किस कदर पनप रहा है और ऐसे बाबाओं को वोटों के लालची सत्ताधारियों का किस कदर संरक्षण हासिल रहता है। पंचकूला की सीबीआई अदालत द्बारा गुरमीत राम रहीम को दोषी ठहराए जाने के बाद बड़े पैमाने पर उपद्रव और हिसा का जो नजारा देखने में आया और जिसके कारण लगभग 35 लोगों की जानें चली गई, भारी पैमाने पर सरकारी और निजी संपत्ति का नुकसान हुआ, उसकी जवाबदेही से किसी भी सूरत में हरियाणा सरकार अपना पल्ला नही झाड़ सकती। यह कोई भूकम्प या सुनामी जैसी स्थिति नहीं थी जिसके बारे में कोई पूर्वानुमान न रहा हो और मुसीबत अचानक टूट पड़ी हो। हालात की संवेदनशीलता एकदम जाहिर थी। खुफिया एजेंसियों ने भी आगाह कर रखा था कि अदालत का फैसला गुरमीत राम रहीम के प्रतिकूल आया तो भारी पैमाने पर उपद्रव हो सकता है। मगर हरियाणा सरकार ने घटनाक्रम की गंभीरता को समझने में जहां अपरिपक्वता और लापरवाही दिखाई वहीं हालात को संभालने में भी वह बुरी तरह नाकाम रही। किसी भी सरकार का पहला दायित्व नागरिकों के जान-माल की रक्षा करना और कानून-व्यवस्था बनाए रखना होता है। पर खट्टर सरकार न सिर्फ इस बार बल्कि इससे पहले भी कई बार बुरी तरह नाकाम साबित हुई है। जाट आरक्षण आंदोलन के समय तो जैसे सरकार नाम की कोई चीज ही नहीं बची थी। उससे पहले, 2014 में एक अन्य ‘धार्मिक गुरु’ रामपाल की गिरफ्तारी के समय भी खट्टर सरकार की खूब किरकिरी हुई थी। लेकिन लगता नही कि उन कडवे अनुभवों से खट्टर सरकार ने कोई सबक सीखा हो। उसकी अदूरदर्शिता और काहिली का ही नतीजा था कि जो हालात प्रतिबंधात्मक आदेश का कड़ाई से पालन, सख्त निगरानी और पुलिस के सहारे नियंत्रित हो सकते थे वे बेकाबू हो गए। हालात को संभालने के लिए पुलिस के अलावा काफी संख्या में सीआरपीएफ तैनात करनी पड़ी। सेना भी बुलानी पड़ी। कफ्र्यू लगाना पड़ा। मोबाइल, इंटरनेट आदि सेवाएं स्थानीय तौर पर ठप करनी पडी। डेरा समर्थकों की इस गुंडागर्दी के लिए खट्टर सरकार और हरियाणा पुलिस को पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट की कड़ी फटकार सुननी पड़ी। हाईकोर्ट ने यह तक कह दिया कि पुलिस महानिदेशक को क्यों न बर्खास्त कर दिया जाए!

इतना ही नहीं, हाईकोर्ट ने जब इस मामले में केंद्र सरकार से भी जवाब तलब किया और केंद्र सरकार के वकील ने हिंसक घटनाओं को राज्य सरकार का मामला बताकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की तो हाई कोर्ट को कहना पडा कि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं न कि भाजपा के और उनकी भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। हाई कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि हरियाणा की खट्टर सरकार ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए राज्य को जलने दिया और केंद्र सरकार भी मूकदर्शक बनी रही। संभवत: यह पहला मौका रहा जब किसी हाईकोर्ट ने इस तरह केंद्र सरकार को फटकार लगाई और सीधे-सीधे प्रधानमंत्री का नाम लेकर तीखी टिप्पणी की। किसी के लिए भी यह समझ पाना मुश्किल था कि धारा 144 लागू होने के बावजूद, अदालत का फैसला सुनाए जाने के लिए निर्धारित समय से अड़तालीस घंटे पहले ही कोई पचास हजार लोग पंचकूला में कैसे जमा हो गए। राज्य सरकार को अपने खुफिया तंत्र के जरिये पहले से मालूम हो चुका था कि गुरमीत राम रहीम के खिलाफ फैसला आया तो हालात बिगड़ सकते हैं। फिर भी, राज्य सरकार ने कोताही करने मे कोई कसर नही छोड़ी। फैसला सुनाए जाने की तारीख घोषित होने के बाद से ही, यानी एक हफ्ते से डेरा समर्थकों का आना लगातार जारी था। धारा 144 लागू किए जाने के बाद भी उन्हें नहीं रोका गया। और तो और सूबे के गृह मंत्री रामविलास शर्मा बेशर्मी के साथ मीडिया से कहते रहे कि धारा 144 श्रद्धालुओं पर लागू नहीं होती। नतीजा यह हुआ कि डेरा समर्थक पार्कों में जमा हो गए, सडकों पर पसर गए। मगर पुलिस मूकदर्शक बनी रही। हिसा फैलने पर कई जगहों से तो पुलिस के जवान भाग ही गए।

जिला प्रशासन द्वारा दो तरह के प्रतिबंधात्मक आदेश जारी किए गए थे। एक में बिना हथियार के जाने की इजाजत थी। बाद में हाईकोर्ट की फटकार लगने पर प्रतिबंधात्मक आदेश को संशोधित किया गया। लेकिन सवाल यही उठता है कि हजारों डेरा समर्थक हथियारों से लैस कैसे थे? हाईकोर्ट ने प्रदर्शनकारियों को हटाने को कहा, तो उस पर अमल करने का दिखावा भर किया गया। एक-दो जगह पुलिस अधिकारियों ने मीडियाकर्मियों के सामने डेरा समर्थकों से अपील कर दी कि वे चुपचाप अपने घरों को लौट जाएं। आखिर इतनी नरमी किसलिए बरती जा रही थी? जाहिर है, इसलिए कि खट्टर सरकार डर रही थी कि सख्ती बरतने पर उसे सियासी नुकसान उठाना पड़ सकता है। सब जानते हैं कि हरियाणा विधानसभा के पिछले चुनाव में डेरा ने भाजपा का खुलकर समर्थन किया था। डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम ने हरियाणा के अपने अनुयायियों से भाजपा को वोट देने की अपील की थी। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सिरसा गए थे और डेरा के समर्थन के एवज में उन्होंने अपनी चुनावी सभा में डेरा की तथा डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की प्रशंसा की थी। चुनाव के बाद भाजपा की सरकार बनने पर उसके लगभग आधे विधायक, जिनमें कई मंत्री भी हैं, गुरमीत राम रहीम का शुक्रिया अदा करने डेरा पहुंचे थे। गुरमीत राम रहीम ने भी प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान में मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर और उनके अन्य मंत्रियों के साथ बढ-चढकर भाग लिया था। पिछली दस अगस्त को उसके जन्मदिन के मौके पर भी राज्य सरकार के दो मंत्री डेरा पहुंचे थे और उसे अपनी सरकार की ओर से डेरा के लिए 51 लाख रुपए की राशि दान के रूप में भेंट की थी।

राज्य के मुख्यमंत्री, मंत्रियों और भाजपा के आला नेताओं के साथ अपनी नजदीकियों के चलते गुरमीत राम रहीम का सूबे के प्रशासनिक अफसरों के बीच भी खासा दबदबा था। उसकी सिफारिश पर अधिकारियों के तबादले और प्रमोशन होते थे। कई मामलों में तो पुलिस और प्रशासन के आला अफसरों को वह सीधे आदेश देता था। अपने आदेश के पालन में कोताही होने पर वह अधिकारियों को हडकाता भी था। इसलिए यही माना जा रहा है कि राज्य सरकार डेरा समर्थकों के प्रति नरमी बरत रही थी। पुलिस का ढीला-ढाला रवैया भी साफ तौर पर ‘ऊपर’ से निर्देशित था। गुरमीत राम रहीम को अदालत ने बलात्कार के मामले में दोषी ठहरा दिया, उसे बीस साल की सजा सुना दी, उसे जेल भेज दिया। लेकिन इसके बावजूद भाजपा का उससे लगाव कम नहीं हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में हुई हिंसा के चार दिन बाद हिंसक घटनाओं पर अफसोस जरूर जताया मगर धर्म की आड में गुरमीत राम रहीम द्वारा किए गए धतकर्मों की निंदा करने से साफ तौर पर परहेज बरता। ऐसे में पार्टी के बाकी नेताओं को तो खामोश रहना ही था। हां, पार्टी की ओर से बलात्कारी ‘धर्मगुरू’ के बचाव में जरूर आवाजें उठी। पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद सुब्रमण्यम स्वामी और साक्षी महाराज ने तो गुरमीत राम रहीम को बलात्कार का दोषी मानने से ही इनकार कर दिया तथा उसे दोषी ठहराए जाने के अदालत के फैसले पर ही सवाल खडे कर दिए। दोनों सांसदों ने बेहद बेशर्मी के साथ गुरमीत राम रहीम पर लगे तमाम आरोपों को हिंदुत्व को बदनाम करने की साजिश तक करार दे दिया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सीधे-सीधे गुरमीत राम रहीम की हिमायत तो नहीं की लेकिन राज्य में हुई हिंसा के लिए गुरमीत रहीम का फैसला सुनाने वाले जज को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। उन्होंने कहा कि भारी संख्या में जुटे लोगों और हिंसक उपद्रव की आशंका को देखते हुए अदालत को फैसला कुछ समय के लिए टाल देना था। जाहिर है कि गुरमीत राम रहीम के दुष्कर्मों को लेकर न तो राज्य सरकार को और न ही पार्टी को किसी तरह का अफसोस है। लेकिन अकेले भाजपा को ही दोष नहीं दिया जा सकता। कांग्रेस, इंडियन नेशनल लोकदल और अकाली दल जैसी दूसरी पार्टियां भी डेरा समर्थकों के वोट पाने की गरज से राम रहीम के आगे नतमस्तक होती रही हैं। राजनीति की इस कमजोरी, धर्म के नाम पर होने वाली गिरोहबंदी और समाज में अवैज्ञानिक सोच के फैलाव ने तथाकथित संतों और बाबाओं को इतना ताकतवर बना दिया है कि वे कानून तक की परवाह नहीं करते। यह स्थिति हमारे लोकतंत्र के लिए एक बेहद चिंताजनक संकेत है। 

न्यायपालिका अभी भी एक संभावना है!

तमाम तरह के दबावों और प्रलोभनों को दरकिनार कर बलात्कारी राक्षस गुरमीत राम रहीम को जेल के सींखचों के पीछे भिजवाने वाले जज जगदीप सिंह लोहान की कर्तव्यपारायण ने जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा और जस्टिस हंसराज खन्ना के साहसिक फैसलों की याद ताजा करा दी। बयालीस साल पहले 1975 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहनलाल सिन्हा ने अलबेले समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द घोषित कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप श्रीमती गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा था। उस आपातकाल को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, जिसकी सुनवाई करने वाली पांच जजों की पीठ में जस्टिस हंसराज खन्ना भी एक थे। जस्टिस खन्ना के अलावा बाकी चार जजों ने सत्ता के दबाव में आपातकाल को जायज ठहराया था, लेकिन जस्टिस खन्ना ने सत्ता के आगे झुकने से इनकार कर अप्रतिम साहस का परिचय देते हुए आपातकाल को असंवैधानिक करार दिया था। इसके अलावा और भी कई मामले हैं जिनमें जजों ने लालच और दबावों को ठुकराते हुए फैसले दिए हैं। न्यायपालिका में ईमानदारी और बहादुरी की श्रृंखला की इसी कडी में अब सीबीआई की विशेष अदालत के जज जगदीप सिंह लोहान भी शामिल हो गए हैं। ऐसे सभी जजों को सलाम। ऐसे जजों के कारण ही भारत की न्यायपालिका आम आदमी के लिए अभी भी एक संभावना बनी हुई है।

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