दस्तक-विशेषराष्ट्रीय

भारत में महिलाओं के लिए सामजिक अभिशाप है एड्स

-प्रभुनाथ शुक्ल

एड्स दुनिया में आज़ भी किसी महामारी से कम नहीँ है । भारत के साथ वैश्विक देशों के लिए भी यह सामजिक त्रासदी और अभिशाप है । लोगों को इस महामारी से बचाने और जागरुक करने के लिए 1 दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है। इस दिवस की पहली बार 1987 में थॉमस नेट्टर और जेम्स डब्ल्यू बन्न द्वारा इसकी कल्पना की गई थी । जिसकी विश्व एड्स दिवस के रुप में 1988 से हुई । एड्स स्वयं में कोई बीमारी नहीं है लेकिन एड्स से पीड़ित व्यक्ति बीमारियों से लड़ने की प्राकृतिक तागत खो बैठता है। उस दशा में उसके शरीर में सर्दी-जुकाम जैसा संक्रमण भी आसानी से हो जाता है । एचआईवी यानि ह्यूमन इम्यूनो डिफिसिएंसी वायरस से संक्रमण के बाद की स्थिति एड्स है। एचआईवी संक्रमण को एड्स की स्थिति तक पहुँचने में आठ से दस साल या कभी-कभी इससे भी अधिक वक्त लग सकता है। भारत में यह देखा गया था कि यहाँ का सामाजिक ताना- वाना इस तरह का है जिससे यह रोग तेजी से नहीं फैल सकता था , लेकिन यह केवल मिथक साबित हुआ। आज यह केवल शहरों में रहने वालों के अलावा गाँवों में भी तेजी से स्थानांतरित हो रहा।दुनिया में एड्स संक्रमित व्यक्तियों में भारत का तीसरा स्थान है। यह एक ऐसी बीमारी है जो संक्रमित व्यक्ति की आर्थिक , सामजिक और शारीरिक तीनों रुप से नुकसान पहुँचती है । सबसे अधिक चिंता की बात है कि यह युवाओं को तेजी से अपनी चपेट में ले रहा है।

एचआईवी को लेकर एक चौंकाने वाला तथ्य यह भी सामने आया है कि दुनिया में एचआईवी से पीड़ित होने वालों में सबसे अधिक संख्या किशोरों की है। यह संख्या 20 लाख से ऊपर है। यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 2000 से अब तक एड्स से पीड़ित होने के मामलों में तीन गुना इजाफा हुआ है। एड्स से पीड़ित दस लाख से अधिक किशोर सिर्फ छह देशों में रह रहे हैं और भारत उनमें एक है। शेष पाँच देश दक्षिण अफ्रीका, नाईजीरिया, केन्या, मोजांबिक और तंजानिया हैं। सबसे दु:खद त्रासदी महिलाओं के लिए होती है। उन्हें इसकी ज़द में आने के बाद समाजिक त्रासदी और घर से निष्कासन का डंस झेलना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक, 1981 से 2007 में बीच करीब 25 लाख लोगों की मौत एचआईवी संक्रमण की वजह से हुई। 2016 में एड्स से करीब 10 लाख लोगों की मौत हुई। यह आंकड़ा 2005 में हुई मौत के से लगभग आधा है। साल 2016 में एचआईवी ग्रस्त 3.67 करोड़ लोगों में से 1.95 करोड़ लोग इसका उपचार ले रहे हैं। यह पहला मौका है जब संक्रमित आधे से ज्यादा लोग एंटी-रेट्रोवायरल उपचार ले रहे हैं। जिससे एड्स के विषाणु का प्रभाव कम हो जाता है । यह सुखद तथ्य है कि एड्स से जुड़ी मौतों का आंकड़ा 2005 में जहां 19 लाख था वह 2016 में घटकर 10 लाख हो गया।

रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2016 में संक्रमण के 18 लाख नये मामले सामने आये जो 1997 में दर्ज 35 लाख मामलों के मुकाबले लगभग आधे हैं। पुरी दुनिया में कुल 7.61 करोड़ लोग एचआईवी से संक्रमित थे। इसी विषाणु से एड्स होता है। 1980 में इस महामारी के शुरू होने के बाद से अब तक इससे करीब 3.5 करोड़ लोगों की मौत हो चुकी है। इस बीमारी की भयावहता का अंदाजा इन मौतों से लगाया जा सकता है । एड्स महामारी का रूप ले चुका है। जिस बीमारी को लोग 1980 से पहले जानते तक नहीं थे। भारत में पहला मामला 1996 में दर्ज किया गया था। लेकिन सिर्फ दो दशकों में इसके मरीजों की संख्या 2.1 मिलियन को पार कर चुकी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में केवल 2011 से 2014 के बीच ही डेढ़ लाख लोग इसके कारण मौत को गले लगाया। आँकड़ों के मुताबिक दुनिया में 36.7 मिलियन संक्रमित हैं । यूपी में यह संख्या 21 लाख है। भारत में एचआईवी संक्रमण के लगभग 80,000 नए मामले हर साल दर्ज़ किये जाते हैं। वर्ष 2005 में एचआईवी संक्रमण से होने वाली मौतों की संख्या 1,50,000 थी। एचआईवी संक्रमण के अधिकांश नए मामले एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ही देखे जा रहे हैं।

भारत के मशहूर चिकित्सा संस्थान काशी हिन्दू विश्वविध्यालय यानी एआरटी सेंटर के प्रमुख डा.मनोज तिवारी ने बताया कि भारत में बढ़ती महामारी पर नियंत्रण के लिए 1992 में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन यानी नाकों की स्थापना की गई। लेकिन बदकिस्मती यह रही कि ग्लोब महामारी होने के बाद भी भारत में नाको को सिर्फ एक परियोजना के रुप में चलाया जा रहा है । नाको से जुड़े लोग 23 सालों से अस्थाई रुप से संविदा के रुप में काम कर रहे हैं । राष्ट्रीय कार्यक्रम होने के बाद भी आती- जाती सरकारों ने इस पर गौर नहीँ दिया। मनोज के अनुसार भारत सरकार ने निःशुल्क एंटी रेट्रोवाइरल एआरटी कार्यक्रम की शुरूआत एक अप्रैल, 2004 से की थी। एआरटी की व्यापक सुलभता से एड्स से होने वाली मृत्युओं में कमी आई है और एचआईवी के साथ जीने वाले लोगों के जीवन में सुधार आया है। देश में 1519 एआरटी केन्द्र हैं जो लगभग 8.45 लाख रोगियों को मुफ्त एआरटी प्रदान कर रहे है। एआरटी प्राप्त करने वाले सीएलएचए की संख्या 45,000 हैं ।

भारत में नाकों में कुल 25 हजार लोग काम करते हैं जबकि यूपी में यह संख्या लगभग 1500 है । इसके अलावा भारत में तकरीब 20756 आईसीटीसी हैं । साल 2015 से 16 में 29 मिलियन लोगों को इस सुविधा का लाभ उठाया। उन्होंने बताया की सरकार नाको संगठन से जुड़े लोगों की सुध नहीँ ले रही है । जिसकी वजह से नियमित कर्मचारिओं की तरह वेतन , भत्ते , अवकाश और दूसरी सुविधाएं नाको कर्मचारिओं को नही मिलपाती हैं । ज़रूरत हैं इस बात कि सरकारें अपना नज़रिया बदले। डा.मनोज ने बताया कि 74 प्रतिशत एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति कामकाज की जगह पर अपनी बीमीरी की बात छिपाकर रखते हैं। ज्यादातर मामलों मे एचआईवी संक्रमण होने पर उन्हें घर छोड़ने को कह दिया जाता है। पत्नियों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने एचआईवी पॉजिटिव पति का साथ निभाएं लेकिन पति कम ही मामलों में वफादार साबित होते हैं। इस तरह की समस्याओं के प्रति नज़रिया बदलने की ज़रूरत है । भारत में संक्रमित बीमारियों से लड़ना आज़ भी चुनौती है ।

एड्स जैसी भयावह बीमारी के अलावा मष्तिस्क ज्वर, कैंसर , तपेदिक, स्वाइन फ्लू, डेंगू , डायबिटीज सरीखी
जानलेवा बीमारियाँ देश को खोखला कर रहीं हैं ।देश और दुनिया से पोलियो ख़त्म करने के लिए जंग लड़ रहा है उसमें एक भारत भी है । हालांकि पोलियो की जंग भारत जीत चुका है , लेकिन अभी बहुत कुछ और करना है । विश्व स्वास्थ्य संगठन वर्ष 2020 तक 30 मिलियन लोगों को उपचार सुविधा उपलब्ध कराने के अपने लक्ष्य की दिशा में कदम बढ़ा रहा है । लेकिन रोगियों तक की दवाओं की पहुँच न होना बड़ी बाधा है। यह बीमारियाँ कभी राजनीतिक जागरूकता का विषय नहीँ बनी , हालांकि इन्हें राजनीति का हथियार बनाया गया। हालांकि यह सुखद संदेश है कि लोगों में जागरूकता और नाको के प्रयास से संक्रमित मामलों में कमी आ रही है। ज़रूरत है लोगों को अधिक सजग करने राजनैतिक प्रयास की, जिससे इस महामारी को जड़ से ख़त्म किया जाय।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

Related Articles

Back to top button