कुछ कदम आगे कुछ कदम पीछे
डॉ. रहीस सिंह
आजाद भारत की विदेश नीति का एक मूलभूत तथ्य यह रहा कि उसमें यथार्थवाद पर आदर्शवाद प्राय: हावी रहा जिसके चलते वह रीयल पॉलिटिक्स से दूर रही। परिणाम यह हुआ कि भारत न तो दुनिया के प्रमुख देशों के साथ प्रतियोगिता में आगे निकल पाया और न ही वह एक ऐसी ताकत बन पाया जिससे कि वह अपने परम्परागत दुश्मनों में भय पैदा कर सके। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में जब सरकार बनी तो ऐसी उम्मीदें की गयीं कि भारत में अब रीयल पॉलिटिक्सकी विदेश नीति की शुरुआत होगी या फिर ऐसी विदेश नीति की जिसे हमें ‘इंडिया सेंट्रिक’ कह सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं ही ‘फास्ट ट्रैक’ की विदेश नीति का संदेश दिया जिसमें ‘नेबर्स फस्र्ट’ और ‘एक्ट ईस्ट’ जैसी विशेषताएं शामिल थीं। कुछ ऐसा लगा भी कि भारत विदेश नीति एक नए ट्रैक पर चल दी है, लेकिन आज जब इसके परिमाणात्मक पक्षों को देखें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि नवीन ट्रैक परम्परागत ट्रैक के समानांतर है जिसके विषय और विषयगत तीव्रताएं नहीं बदली हैं, हां वैयक्तिक पक्ष अवश्य जुड़ गया है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या भारत एक बार फिर से विदेश नीति पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है अथवा इसे ही उपयुक्त मानकर आगे की ओर बढ़ते रहना चाहिए?
आज जब हम एक ग्लोबल डिजिटल व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं, तब हमें यह मानकर चलना चाहिए कि हमारी नीतियां सिर्फ आंतरिक कारकों से प्रभावित नहीं हो रही होंगी बल्कि उसमें वाह्य कारकों की भूमिका निर्णायक होगी। यह अलग बात है कि भारत में राजनीतिक क्षमता का अधिकांश हिस्सा घरेलू राजनीति के लोकप्रिय लेकिन छद्म पक्षों को प्रमाणित और स्थापित करने में खप जाता है। यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अच्छी तरह से जानते हैं और उसका प्रयोग भी भरपूर करते हैं। हमारे देश के सम्भ्रांत वर्ग से लेकर मीडिया तक, घरेलू राजनीति से जुड़े विषयों को ही प्रश्रय व प्रोत्साहन देते हैं। ऐसी स्थिति में वैदेशिक सम्बंधों से जुड़े मसले उपेक्षित व अनदेखे बने रहते हैं जिसके परिणाम अंतत: देश को भुगतने पड़ते हैं। आज जब भारत की सुरक्षा, विकास, ज्ञान, संस्कृति, समाज और यहां तक कि सामाजिक-पारिवारिक रिश्ते भी वैश्विक परिवर्तनों व नवविकासों से प्रभावित हो रहे हों, तब देश से बाहर निर्मित हो रहे कारक कहीं अधिक निर्णायक एवं महत्वपूर्ण हो जाते हैं। ऐसे में वैदेशिक सम्बंधों से जुड़ा विषय प्राय: प्रथम वरीयता के विषयों के रूप में दिखना चाहिए। हालांकि ऐसा होता नहीं है। जवाहरलाल नेहरू से लेकर अब तक के समय को देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारतीय विदेश नीति भारत के प्रधानमंत्रियों के व्यक्तित्वों के अनुसार ही कमजोर, मजबूत अथवा आक्रामक या शिथिल, आदर्शवादी या फिर व्यवहारिक रही। अभी तक मोदी के व्यक्तित्व को जिस तरह से पेश किया गया है या मोदी ने स्वयं ही अपने आपको पेश करने की कोशिश की है उससे दो बातें समझ में आ रही हैं। पहली यह कि वे अपने आपको एक प्रभावशाली आक्रामक व्यक्तित्व के रूप में पेश ही नहीं बल्कि प्रचाारित कर स्वीकृति प्राप्त करना चाहते हैं। दूसरी यह कि वे परम्परागत विदेश नीति के ट्रैक को अपनी संवाद कला के साथ-साथ कुछ प्रचारात्मक तरीकों से बदलने का का लगातार प्रयास कर रहे हैं। यही वजह है कि प्रथम दृष्टया तो यह लगता है कि भारत की विदेश नीति अपना ट्रैक बदल रही है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हुआ?
गत ढाई वर्षों में सरकार द्वारा वैदेशिक सम्बंधों को जिन छोरों तक पहुंचाया गया और जिस ट्रैक पर परिचालित या जिन आयामों पर आश्रित किया गया, उनमें कुछ या बहुत कुछ नया था अथवा नहीं इसके लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना जरूरी होगा।
1. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति ‘नेबर्स फस्र्ट’ से आरम्भ हुयी थी लेकिन आज पाकिस्तान जहां ढाई साल से पहले खड़ा था, उससे कहीं अधिक दूर है जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सारे दायरे तोड़कर लाहौर की यात्रा की और अपने पाकिस्तानी समकक्ष के घर तक गये। यही नहीं पाकिस्तान ने इस बीच न तो दोस्ती निभायी और न वह भारत से दबकर चला बल्कि आतंकियों के जरिए उसे सीधे भारतीय सेना को चुनौती देना शुरू कर दी, जिसमें वह बहुत हद तक सफल भी रहा। बांग्लादेश के साथ लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट और न्यूक्लियर एग्रीमेंट के साथ कुछ नजदीकियां और बढ़ी हैं लेकिन जिस तरह चटगांव बंदरगाह में चीन की गतिविधियां बढ़ रही हैं, उससे यह अर्थ निकाला जा सकता है कि भारत बांग्लादेश को अपनी ओर आकर्षित करने में उस सीमा तक नहीं सफल हो पाया है, जितना कि होना चाहिए। श्रीलंका पिछले कुछ दिनों में चीन से दोस्ती के मामले में कुछ पीछे हटा है, इसलिए नहीं कि इसकी वजह भारतीय नेतृत्व है बल्कि इसलिए क्योंकि श्रीलंका का नया नेतृत्व चीनी दुष्प्रभावों को पहचान रहा है। मालदीव इस दौर में भारत से कुछ दूर गया है और अफगानिस्तान को भारत अभी पाकिस्तान की दबाव परिधि से निकालकर बाहर नहीं ला पाया है।
2. चीन इस समय अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को अपने हितों के अनुरूप व्यवस्थित करने की प्रबल इच्छा से सम्पन्न दिख रहा है। इसे विशेषकर अफ्रीकी एवं लैटिन अमेरिकी देशों को दिए जाने वाले भारी कर्जों, एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) की स्थापना….आदि के रूप में पुष्ट होते देखा भी जा सकता है। वह जहां एक तरफ एआईआईबी के जरिए ग्लोबल सॉफ्ट पावर बनने की इच्छा रखता है। उल्लेखनीय है कि वाशिंगटन के विरोध के बावजूद अमेरिका के अधिकांश सहयोगी, जैसे-आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, फिलीपींस, दक्षिण कोरिया…….आदि ने इस बैंक की सदस्यता ग्रहण की है। यह पहला अवसर होगा जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में से तीन (चीन, ब्रिटेन और फ्रांस) और जी 7 के सात सदस्यों में से चार (ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इटली) ने एआईआईबी की स्थापना में हिस्सा लिया है। यद्यपि भारत ने शंघाई पांच, ब्रिक्स, रिक, ब्रिक्स…..सहित तमाम साझा मंचों पर चीन के प्रति आस्था जतायी है और आगे बढ़ाने के प्रति उत्सुकुता जाहिर की है लेकिन फिर भी चीन यह मानता है कि दोनों देशों के रिश्तों का सामरिक और वैश्विक आयाम कमजोर हुआ है।
यही वजह है कि कुछ समय पूर्व कुछ चीनी विद्वानों ने भारत को सलाह दी थी कि भारत बदलते हुए शक्ति सम्बंधों को स्वीकार कर ले। भारत को अपनी इस महत्वाकांक्षा और वर्चस्वशीलता को स्वीकार कराने के लिए चीन ने भारत के पड़ोसी देशों में गतिविधियां बढ़ायी हैं और अपने आर्थिक-सामरिक उद्देश्यों को विस्तार दिया है। पाकिस्तान के साथ चीन के रिश्ते भारत को नियंत्रित रखने के उद्देश्य से परे जा चुके हैं। चीन स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स के जरिए भारत को घेरने में बहुत हद तक कामयाब हो चुका है।
उल्लेखनीय है कि चीन ने ‘मोतियों की माला’ (स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स) के कुछ मोतियों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है विशेषकर ग्वादर (पाकिस्तान), हम्बनटोटा (श्रीलंका) जबकि कुछ के मामले में आगे की ओर बढ़ रहा है विशेषकर मारओ (मालदीव), चटगांव (बांग्लादेश), सित्तवै (म्यांमार), क्रॉ नहर (थाईलैण्ड), रेएम एवं सिंहनौक्विलै (कम्बोडिया)। एनएसजी में प्रवेश सम्बंधी विषय पर चीन का तर्क है कि भारत इस समूह में प्रवेश पाने की योग्यता नहीं रखता क्योंकि उसने एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। यही नहीं सीमा पार आतंकवाद पर भी चीन पाकिस्तान का बचाव करता है। अभी हाल की घटनाओं को लें तो मार्च 2016 में भारत ने जैश-ए-मुहम्मद की आतंकी गतिविधियों और पठानकोट हमले में अजहर मसूद की भूमिका से जुड़े पक्के सबूत दिए और कहा कि वर्ष 2001 से जैश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रतिबंधित सूची में शामिल है क्योंकि वह आतंकी संगठन है और उसके अल-कायदा से लिंक हैं लेकिन तकनीकी कारणों से जैश के मुखिया अजहर मसूद पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सका। इस तर्क पर सुरक्षा परिषद की कमेटी के 15 में से 14 सदस्य सहमत हुए लेकिन चीन ने यह तर्क देते हुए कि ‘हम एक वस्तुनिष्ट और सही तरीके से तथ्यों और कार्यवाही के महत्वपूर्ण नियमों पर आधारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद समिति के तहत मुद्दे सूचीबद्ध करने पर ध्यान देते हैं जिसकी स्थापना प्रस्ताव 1267 के तहत की गयी थी’ अजहर मसूद मामले पर वीटो कर उसे प्रतिबंधित सूची में जाने से बचा लिया।
3. प्रधानमंत्री मोदी ने शुरूआत से ही अमेरिका के प्रति विशेष दिलचस्पी दिखायी और यह संदेश देने की कोशिश की कि अमेरिका अब भारत का स्ट्रैटेजिक पार्टनर बनना चाहता है। यही नहीं कई मामलों में प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका के सामने समर्पण की मुद्रा में भी दिखे विशेषकर ‘सिविल लायबिलिटी न्यूक्लियर एक्ट’ में क्षतिपूर्ति की राशि तथा अमेरिका के साथ हुए लॉजिस्टिक करार के मामले में। लेकिन अब अमेरिका पुन: पाकिस्तान की ओर खिसकता दिख रहा है। ट्रंप की वक्तव्यों की ओर ध्यान दें तो पता चलता है कि ट्रंप एच-1बी वीजा के जरिए भारतीय युवाओं के रोजगार पर हमला करेंगे। पाकिस्तान के प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो द्वारा जारी रीडआउट से पता चलता है कि ट्रंप पाकिस्तान के प्रति अपनी मनोदशा बदल चुके हैं और आने वाले समय में वे पाकिस्तान को चीन के खिलाफ खड़ा करने के लिए आर्थिक व रक्षात्मक मदद दे सकते हैं। यह भारत के लिहाज से बेहतर नहीं होगा।
4. यूरोप अपने आर्थिक दबावों से गुजर रहा है और ब्रिटेन, फ्रांस व जर्मनी भारत के रक्षा बाजार की ओर बेहद उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं। ऐसे में भारत को कोई स्ट्रैटेजिक सहयोग नहीं कर पाएंगे, हां भारत के रक्षा बाजार के जरिए अपने मिलिट्री इण्डस्ट्री को जीवंतता प्रदान करने का प्रयास अवश्य करेंगे। रही बात रूस की तो, भले ही भारत अभी तक उससे लगभग 60 प्रतिशत रक्षा उपकरण या उनसे जुड़ी सामग्री/तकनीक खरीदता हो लेकिन रूस अब भारत के साथ उस तरह से नहीं खड़ा है, जैसा कि हुआ करता था। बल्कि जिस तरह से वह पाकिस्तान को फाइटर्स बेचने के संकेत दे चुका है, उससे यही लगता है कि रूस अब भारत का परम्परागत मित्र नहीं रह गया।
फिर किस निष्कर्ष पर पहुंचा जाए? भारतीय विदेश नीति के सामने आतंकवाद एक और गम्भीर चुनौती है क्योंकि वैश्विक आतंकवाद नये अवतार में है और पहले की अपेक्षा ताकतवर भी। इस्लामी स्टेट अलकायदा से अधिक ताकतवर और तकनीक युक्त आतंकवादी संगठन है। उसके एक प्रवक्ता के अनुसार वह डर्टी बम भी हासिल कर चुका है जिसके जरिए लंदन और वाशिंगटन को वह धमकी भी दे रहा है। भारत भी उसके निशाने पर है। पाकिस्तान में आइसिस अपनी पैठ बना चुका है और अब इस बात की संभावना अधिक है कि आइसिस के लड़ाके पाकिस्तान होते हुए भारत में घुसने की कोशिश करें। आइसिस के खिलाफ भारत सीधे नहीं लड़ सकता इसलिए उसे अमेरिकी मुहिम का हिस्सा बनना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में भारत अमेरिकी गुट का एक हिस्सा होगा जो भारतीय विदेश नीति प्रतिमानों के खिलाफ है। हालांकि भारत के लिए अभी-भी पाकिस्तानी आतंकवाद ही सबसे बड़ा खतरा है, जिस पर वैश्विक दबाव बनाकर ही भारत काबू कर सकते हैं। लेकिन यह तभी संभव है जब भारत पाकिस्तान के विरुद्ध दुनिया के देशों को लामबंद करने में सफल हो जाए। लेकिन क्या भारत ऐसा कर पाएगा? कर सकता है, लेकिन भारत यदि वह अपनी छोटी-छोटी सफलताओं को बहुत बड़ा बनाकर प्रचारित करना बंद कर दे तो।
फिलहाल भारत सरकार को निम्नलिखित क्षेत्रों में निर्णायक कदम उठाने होंगे -1. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी दर्जा प्राप्त करने के लिए जी-4 को सक्रिय करना। 2. अमेरिका से बराबरी के आधार पर रिश्ते कायम कर 21वीं सदी में भारत का स्थान सुनिश्चित करना। 3. पाकिस्तानी हरकतों पर अंकुश लगाने के लिए विश्व जनमत तैयार करना। 4. चीन-पाकिस्तान जुगलबंदी को कमजोर करना। 5. रूस-यूरोप टकराव से स्वयं को बचाते हुए परम्परागत मित्र रूस से दूरी बनाने से बचना। 6. हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर में चीन और अमेरिका द्वारा पैदा की जा रही है हलचल के परिणामों से भारत को बचाए रखना। 7. दक्षिण एशिया के अपने पड़ोसियों को अपने बिग ब्रदर होने का एहसास अपने दायित्वों के जरिए दिलाना होगा ताकि इस क्षेत्र में चीन की महत्वाकांक्षाओं के पलने के लिए मिलने वाली जगह को उधर जाने से रोकना। 8. यह तय करना होगा कि मध्य एशिया में उभरते हुए नये खतरों से वह किस तरफ निपटेगा और 9. साइबर युद्ध के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। कुल मिलाकर आत्मप्रशंसा से इतर आत्मविश्वास, प्रगति एवं प्रतियोगिता पर ध्यान देने की जरूरत है। इन क्षेत्रों में सफलता ही भारत को एक शक्ति के रूप में स्थापित कर पाएगी।