टॉप न्यूज़दस्तक-विशेषफीचर्डसाहित्यस्तम्भ

उपनिवेशवाद दो ढाई सौ वर्षों का संक्षिप्त विवरण 

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग 2

इसी सिलसिले में 1780 से 1802 तक चले Land Resettlement Act और 1860-1890 में जनगणना मे जाति, सम्प्रदाय का सहारा लेकर समाज तोड़क षड़यंत्र चला। गाँव, खेती, परिवार टूटे। शिक्षा-व्यवस्था, राज्य-व्यवस्था, जैव-विविधता, गोवंश की देखभाल पर तो कहर टूटा। जंगलात अंग्रेजों की मिल्कियत बन गई। जमींदारी और अमानुषिक लगान वसूली, नौकरी के लिये अंग्रजों की वरीयता आदि देश की दिशा बदल की कार्रवाइयाँ हुई।

आत्मविस्मृति को तेज करने के लिये अंग्रेजी शिक्षा, विकृत इतिहास शिक्षा आदि अंग्रेजों के शस्त्र बने। फिर भी लगभग हजार वर्षों से भारत की idea को कुन्द करने के बाहरी हमलों से भारत सदा संघर्षरत ही नही विजयी भी रहा। संघर्षशीलता और विजिगीषु वृत्ति ने भारत का साथ नहीं छोड़ा। अंग्रेजों ने भारतीय सामान्य जन को अपने नियंत्रण मे लेने का हर संभव प्रयास किया पर वे असफल रहे।

लगभग 1000 वर्षों से विदेशी विचार और जमीनी स्तर पर भारत युद्धरत रहा। उसमे 1750-1850 मे भारत कुछ क्लांत और आंतरिक कमजोरियों का शिकार सा दिखा। एकजुट प्रतिकार नही हुआ। कुछ नियति का भी खेल रहा होगा। छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल, दुर्गादास राठौर और दशमेश गुरु गोविन्द सिंह जी का संयुक्त मोर्चा बन न सका। इसमे अंग्रेजों की कुछ बन आई। अप्रभावी सल्तनत और क्लांत भारत के बीच पैर जमाने का मौक़ा अंग्रेजों को मिल गया।

1830 से ही भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम की तैयारी होने लगी। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम मे भारतीय सामान्य जन ने जो लगभग निहत्था ही था अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये।

1858-1860 में दुनिया में जैसा नही हुआ होगा ऐसी बर्बादी का मंजर भारत के गाँवों मे दिखा। 1860 के बाद से जो दमन चक्र चला, लूट की पराकाष्ठा हुई। 1800 से 1950 तक के बारे मे प्रचुर मात्रा मे साहित्य उपलब्ध है। उपभोगवाद और उपभोक्ता अप-संस्कृति का दौर 1850 से ही चला। धर्मपाल जी, सुन्दर लालजी द्वारा रचित साहित्य पर्याप्त प्रकाश डालता है।

1830 से ही 1857 की तैयारी शुरू हो गई थी। उसी समय पुनर्जागरण के शीर्ष रामकृष्ण परमहंस देव और शारदा मा अवतरित हुए। 1857 के तुरंत बाद क्रान्तिकारियों की धारा भी जोर पकड़ने लगी। वासुदेव बलवंत फड़के का काम सर्व परिचित है। पर देश भर मे ऐसे नाम हर स्थान पर पाये जायेंगे। इतने लोग थे कि स्मारक बनाने चलें तो धरती पट जायेगी। उसी समय स्वामी दयानन्द अलख जगा रहे थे। इन्ही लोगों के पदचिन्हों पर लाल, बाल, पाल की त्रिमूर्ति ने जागरण किया और पूरे देश मे अब अपनी जीवनी शक्ति के आधार पर भारत की अपनी दिशा मे उठने-बढ़ने, अंग्रेजों को खदेड़ देने की इच्छा शक्ति ने चमत्कार दिखाना शुरू किया। 1900 होते-होते भारत अपनी राह को खोजकर उस पर चलने के लिये सिद्ध होने लगा। अब अंग्रेजों को दमन चक्र चलाने के बाद भी पैर टिकाना कठिन होने लगा।  भारत से अधिकतम लूटकर सुरक्षित वापस चले जाने की कहानी 1850 से 1945 तक की है। अंग्रेज सोचने लगे थे कि ऐसा कुछ रास्ता निकल आवे जिससे उनके द्वारा लूट जारी रहे और भारतीयों के मन मे सद्भाव भी बना रहे।

भारत की अर्थ व्यवस्था कृषि, गोपालन, वाणिज्य के स्तर पर समृद्ध थी। उसे नष्ट किया गया, कारीगर-मजदूर-किसान को नष्ट किया गया। काले अंग्रेजों की बड़ी फ़ौज खड़ी की गई। जमीन, जल, जंगल, जानवर, जैव विविधता खेती आदि सभी का अपरिमित शोषण हुआ। लूट को बाहर ले जाया गया। लन्दन की सारी समृद्धि भारत और भारतीयों के खून से सनी हुई है। 1750 से 1945 तक की रक्तरंजित कथा शोषण, छल-कपट, षड़यंत्र, विश्वासघात, रक्तपात की कथा है।

वहीँ दूसरी ओर भारतीयों का शौर्य, प्रताप बलिदान और विजय का कीर्तिमान युग भी है। 1914 से 1919 तक और 1939 से 1945 तक दो विश्वयुद्धों में भी अंग्रेजों की ओर से भारत ने भार ढोया इस आशा में कि अंग्रेजों को पीठ से भारत उतार पायेगा। इसी अनुसार तिलक, गोखले, गांधीजी, सावरकर, अनेक क्रान्तिकारी संगठन, नेताजी सुभाष, नौसेना विद्रोह आदि के रूप में स्वातंत्र्य युद्ध की अनेक छटाएँ सामने आईं।

अंग्रेजों ने चालबाजी नही छोड़ी। 1945 से 1950 की कथा के अनेक पहलू सामने आये है। अभी और बहुत से पहलू प्रकाश मे आना शेष है।

Related Articles

Back to top button