दस्तक-विशेषस्तम्भ

महामारी, डिजिटलीकरण और स्त्रियां

सर्वेश कुमार मौर्य

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में जब आर्थिक सुधारों की तथाकथित महान -ट्रिकिल डाउन थिअरी-आयी तो उसमें यह बताया समझाया गया कि जब समृद्धि शिखरों पर आयेगी तो वह स्वत: नीचे तक पहुंचेगी। सरकारी गैर-सरकारी आकड़ों को छोड़ भी दें तो भी यह समझ में आता है कि इस बीच ऐश्वर्य के टापुओं का अभूतपूर्व उत्थान हुआ है, आमजन का संकट लगातार बढ़ा है। कुछ भी रिसने के बजाय सब सूख गया है।

यह भी देखा जा सकता है कि व्यवस्था के भीतर संकट और बुरी स्थितियां आम जनता तक बिना रुके धड़धड़ाते हुए आती हैं, लड़खड़ाते हुए नहीं, जैसे सरकारी योजनाएं और उससे होने वाले लाभ पहुंचते हैं। अक्सर देखा गया है आपदाएं, चाहे वह प्राकृतिक हों या मानव निर्मित, जब वे आती हैं तो सबसे ज्यादा दबाव और प्रभाव उत्पीड़ित वंचित तबका ही झेलता है।

आपदाएं दरअसल तंत्र की अक्षमता और हमारे अपने मानवीय विभेदों को थोड़ी सी बारिश में भी ऊपर ला देती हैं और व्यवस्थागत बदइंतजामियों की सड़ांध बजबजाने लगती हैं। कोविड-19 जैसी महामारी ने भी हमारे समय समाज सत्ता की बदइंतजामियों, अमानवीयता व हकीकत को उजागर कर दिया है। अच्छाई, उदारवाद मानवता, वसुधैव कुटुम्बकम का मुखौटा उघड़ गया है, आपदा कुछ लोगों का अवसर बन गयी है और सदी का सबसे खौफनाक मंजर हमारे आपके सामने है। गरीबों, मजदूरों, बुजुर्गों, स्त्रियों और बच्चों के खराब हालात छिपाए नहीं छिप रहे।

जस्टिस रमन्ना ने हाल ही में दिए एक भाषण, देखें 5 जून 2020 इंडियन एक्सप्रेस, में कहा कि महामारी ने स्त्रियों, बच्चों और बुजुर्गों की स्थितियों और अधिकारों को इस बीच काफी बुरी तरह प्रभावित किया है इस बीच लॉकडाउन में घरेलू हिंसा और बच्चों के शोषण की घटनाओं में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है, बुजुर्गों के जीवन का संकट बढ़ा है। नेशनल कमिशन फॉर वुमन की एक रिपोर्ट बताती है कि अप्रैल से लेकर मई माह के अंत तक 22 विभिन्न श्रेणियों में 3027 शिकायतें स्त्रियों के प्रति अपराधों के लिए दर्ज हुई जिसमें से 428 शिकायतें अर्थात 47.2 प्रतिशत घरेलू हिंसा से संबंधित थीं।

लॉकडाउन से पहले जनवरी से लेकर मार्च तक के आकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि इस दौरान कुल 4233 शिकायतें दर्ज हुई जिनमें से 871 अर्थात 20.6 प्रतिशत घरेलू हिंसा से संबंधित थीं। यहाँ नोट करने वाली बात यह भी है कि अप्रैल और मई के महीने में जो रिपोर्टें दर्ज हुई वह केवल ऑनलाइन माध्यमो में दर्ज हुईं जबकि इससे पहले की जो भी रिपोर्टें दर्ज हुईं उसमें ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों किस्म की रिपोर्टें शामिल है।

अगर माहवार आंकड़ों को देखा जाए तो लॉकडाउन के पहले जनवरी माह में कुल 1462 शिकायतों में से 271 अर्थात 18.54 प्रतिशत, फरवरी माह में कुल 1424 शिकायतों में से 302 अर्थात 21.21 प्रतिशत, और मार्च माह में कुल 1347 शिकायतों में से 298 अर्थात 22.21 प्रतिशत घरेलू हिंसा का था। लॉकडाउन के दौरान अप्रैल माह में कुल 999 शिकायतों में से 514 अर्थात 51.45 प्रतिशत और मई माह में कुल 2028 शिकायतों में से 914 अर्थात 45.07 प्रतिशत घरेलू हिंसा का था। इन आंकड़ों को देखकर कोई भी आसानी से यह अंदाजा लगा सकता है कि लॉकडाउन के दौरान स्त्रियों के प्रति अपराधों में तेजी देखी गई।

स्त्रियों के प्रति अपराधों में यह तेजी सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में देखी गई। इसकी गंभीरता को ध्यान में रखकर यू एन वुमन ने इसे -शैडो पैंडेमिक- की संज्ञा दी और इसे सभ्यता के लिए खतरा बताया। लॉकडाउन के दौरान स्त्रियों के प्रति अपराधों की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुई प्रसिद्द अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्त्ता नंदिता दास ने शॉर्ट फिल्म -लिसन टू हर- बनाई, जिसने वैश्विक स्तर पर इस मुद्दे के संदर्भ में संवेदनशीलता पैदा करने का काम किया।

इस तरह की स्थितियों के अंदेशे के चलते उड़ीसा गवर्नमेंट को सूचना जारी करनी पड़ी और कहना पड़ा कि पुरुष लॉकडाउन को हॉली-डे की तरह न लें और महिलाओं को बार-बार खाना पीना बनाने को ना कहें। यह अलग बात है कि इस एडवाइजरी में पुरुषों को हाथ बंटाने को भी कहा जा सकता था। स्त्रियों के प्रति बढ़ी घरेलू हिंसा के कारणों की पड़ताल करते हुए सीबीआई के भूतपूर्व डायरेक्टर आर के राघवन ने 3 जून 2020 को द हिन्दू में लिखे लेख में लिखा- इस लॉकडाउन में ज्यादातर पुरुष घरों में हैं या तो वे अपना जॉब खो चुके हैं या खोने के भय में है।

आर्थिक असुरक्षा और भय के इस माहौल ने घरों में संकट बढ़ा दिया है, जिसका शिकार दुर्भाग्य से औरतें बन रही हैं। घरेलू हिंसा में वृद्धि का दूसरा बड़ा कारण अल्कोहल की अनुपलब्धता है, जिसके चलते पुरुषों की निराशा में और वृद्धि हुई है, जिसका खामियाजा स्त्रियों और बच्चों को भुगतना पड रहा है। इसी तरह के यौन और लैंगिक हिंसा के मामले पश्चिमी अफ्रीका में 2013-16 में ईबोला संकट के दौरान भी देखने को मिले थे। इतिहास बताता है कि ऐसी आपदाओं, महामारियों संकटों के दौरान स्त्रियों के लिए माहौल और असुरक्षित हो जाता है।

मोटे तौर पर कहे तो स्त्रियों पर लॉकडाउन के दुष्प्रभाव के रूप में घरेलू कामकाज में वृद्धि, घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि, मदद की व्यवस्था से पूरी तरह से कटाव, सेक्सुअल और रिप्रोडक्टिव सर्विसेज हेल्थ की सीमित पहुंच, स्त्री सुरक्षा के क्राइसिस सेंटर, शेल्टर, लीगल एड व प्रोडक्शन सर्विसेज का अभाव तथा सीमित स्वतंत्रता देखने को मिली। अब जब लॉक डाउन खुल गया है तो सवाल उठता है स्त्रियों की दशा पर इसका कितना असर होगा। इस स्थिति में उनका जीवन कितना बेहतर होगा।

सच तो यह है कि पुरुषों की स्थितियों में बहुत परिवर्तन नहीं होने जा रहा। असुरक्षा और भय के माहौल में कोई तबदीली नहीं होने जा रही। बल्कि स्थितियाँ और बदतरी की ओर जाती दिख रही हैं। यदि हम सच का सामना करें तो हमें पता चलेगा कि जिस किस्म के समाज और परिवार संस्था का हमने निर्माण किया है वह पुरुषों के लिए भले ही स्वर्ग हो लेकिन वही समाज घर-परिवार स्त्रियों के लिए ज्यादातर नर्क हैं। स्त्री के लिए आज भी अपने लिए समाज घर परिवार के विस्तृत नभ में एक कोना (महादेवी वर्मा के शब्द) उनका अपना एक कमरा (वर्जीनिया वुल्फ) सपना है, आदर्श है, जो आज भी आने वाले समय में पूरा होने को स्थगित है।

ऐसे में स्कूली शिक्षा के डिजिटलीकरण का निर्णय भी स्त्रियों के कामों में बढ़ोतरी करने वाला ही है। यहाँ डिजिटलीकरण से मेरा अर्थ सिर्फ ऑनलाइन टीचिंग भर से नहीं है बल्कि स्कूल से बाहर रहकर सभी तरह के डिजिटल माध्यमों के उपयोग से सीखने से है जिसमें रेडियो, टेलीविजन आदि भी शामिल हैं। अब स्त्रियों के लिए इस माध्यम के उपयोग और सीखने की नयी चुनौतियाँ सामने है। घर परिवार के अन्य कामों के साथ स्त्रियों के लिए अब बच्चों की होम टीचिंग की मोनीटरिंग, होमवर्क, प्रोजेक्ट वर्क आदि की जिम्मेदारी भी जुड़ गयी।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक एनसीईआरटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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