दस्तक-विशेष

‘‘विक्रांत‘‘ से नौसेना की हुंकार दमदार हुयी !

के. विक्रम राव

स्तंभ: अन्ततः ब्रिटिश गुलामी का प्रतीक ‘‘संत जार्जवाला क्रास‘‘ इतिहास के गर्त में दफन हो गया। इंग्लैण्ड में कई सदियों पूर्व से वह युद्ध पताका बनी रही। भारत के आजाद हुये 75-वर्ष बाद भी वह भारतीय जलपोतों पर लहराती रही, राष्ट्रवादियों का दिल जलाती रही। प्रथम देसी युद्धपोत ‘‘विक्रांत‘‘ का कोची बन्दरगाह में जलावतरण कल (2 सितम्बर 2022) कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उस तारीख को ऐतिहासिक बना दिया। अगस्त नौ और पन्द्रह तथा छब्बीस जनवरी की भांति। ‘‘विक्रांत‘‘ नाम ही सैनिकों में साहस भर देता है। उसका पर्याय है: प्रतापी, विजयी, वीर, हिम्मतवर, शुजाह, बहादुर आदि। कल से जरूर सचेत हो गये होंगे कम्युनिस्ट चीन और इस्लामी पाकिस्तान!

अब कल प्रधानमंत्री ने जो नया झण्डा फहराया है, वह कई तरह से अर्थपूर्ण भी है। छत्रपति शिवराया की यह अष्ठकोणीय आकारवाली ध्वजा है। कोची बन्दरगाह में भारतीयों द्वारा निर्मित है। जलावतरण की बेला में यह आठों दिशाओं (ईशान, पूर्वोत्तरी इत्यादि दिशा-सूचक) की ओर इंगित करती है। मगरीब भी, जिधर से इस्लामी आक्रामक हजार बरस से घुसते आ रहे थे। मोदीजी ने जो हिन्दुस्तानी परचम फहराया उसपर अंकित था: ‘‘शं नो वरूणः‘‘। यह वन्दनामंत्र है जलाधिपति, पश्चिमी दिकपाल भगवान वरूण का, ताकि ‘‘नौसेना का शुभ करें।‘‘ मगर विचारणीय मुद्दा यहां यह है कि विगत पचहत्तर सालों में कई प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, नौसेनापति आदि आये। सभी इस ब्रिटिश (संत जार्ज क्रास) पताका के समक्ष स्वतः, स्वेच्छा से नतमस्तक होते रहे। अब ऐसा कतई नहीं होगा।

कई सागरों से घिरे हुये जम्बूद्वीप पर युगों से थल और जल मार्ग से हमले होते रहे। अरब आततायी भूमार्ग से, तो यूरोपीय साम्राज्यवादी समंदरी राह से। प्रारम्भ में तो दक्षिण भारतीय सागरतट सुरक्षित रहे क्योंकि चालुक्य, सातवाहन, विजयनगरम, कलिंग आदि की नौसेनायें सबल थी। चोल राज्य की सामुद्रिक शक्ति तो विशाल थी। इतिहास बताता है कि दक्षिण पूर्वी द्वीपराष्ट्रों से व्यापार तथा धार्मिक संबंध जमाने से रहे। विश्व के सबसे घने मुस्लिम गणराज्य हिंदेशिया में रामकथा इसका प्रमाण है। यह भी तार्किक वास्तविकता है कि भूमार्ग से आये हमलावर जटिल और क्रूर थे। समुद्री राह से आये लोगों ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान किया। कला और भवन निर्माण भी बढ़ाया।

तनिक गौर करें आधुनिक मारक शस्त्रों की दृष्टि से तो यह ‘‘विक्रांत‘‘ युद्धपोत विविध विशिष्टताओं से संपन्न है। यह इस्राइली बराक-8 क्षेपकास्त्र से लैस है, तो दूसरी ओर मारीच पनडुब्बी और मिसिल-विरोधी कवच से भी जड़ित है। यदि रक्षा मंत्री ठाकुर राजनाथ सिंह की व्याख्या सुने तो गर्व की अनुभूति होती है कि अगले पच्चीस वर्षों तक मित्रराष्ट्रों की भी सागरी आक्रमण से रक्षा करने में भारत सक्षम है।

हम भारतीयों को नौसेना द्वारा मारकशस्त्र उपलब्ध कराने पर अपने इतिहास का स्मरण भी करना चाहिये। रिगवेदयुग, लोथल (सिंधु घाटी) तथा मुगल कालीन इतिहास को पढ़े तो नौसेना भारत के लिये अनजानी कभी भी नहीं रही है। मगर याद करना होगा महाराज शूरवीर कान्होजी आंग्रे को जिन्हें भारतीय नौसेना का सर्जक कहा जाता है। यूरोपीय लुटेरों को हराने, भगाने और नियंत्रित करने में तटरक्षकों की सेना का गठन इसी मराठा ने किया था। जहाजों पर तोप लादकर हमलावरों को खदेड़ने में आंग्रे सफल रहे। वस्तुतः आंग्रे को भारत का प्रथम एडमिरल (जलसेनापति) कहा जाता है। उन्हीं के साहस और शौर्य का नतीजा था कि पुर्तगाली पश्चिमी तट से प्राण बचाकर भागते रहे।

इसी परिवेश में मध्यकालीन भारत के इतिहास के अगर-मगर वाले पहलू पर गौर करें तो चन्द चकित करने वाले प्रश्न उठते है। उस दौर में लखनऊ विश्वविद्यालय के इतिहास विभागाध्यक्ष डा. नन्दलाल चटर्जी चिरस्मरणीय रहेंगे। वे हम छात्रों में विचार मंचन हेतु ‘‘स्टडी सर्कल‘‘ चलाते थे। हम युवा छात्रों का बड़ा ज्ञानवर्धन होता था। एक बार चर्चा में प्रश्न उठा था कि यदि मुगल बादशाह अकबर जलसेना का निर्माण करते तो एशिया तथा यूरोप का आकार कैसा होता ? उदाहणार्थ यदि महाबली जलालुद्दीन अकबर अपनी विकराल सेना के साथ जहाजी बेड़ा भी गठित करता तो? इस बादशाह ने केवल लघु आकार की जलसेना बनायी थी। उसकी मां तथा कुटुंबीजन हज करने समुद्र मार्ग से मक्का रवाना हुये, राह में समुद्री लुटेरों से रक्षा हेतु सैनिकों से लदे जहाजी बेड़े को बनाया गया। मगर यह बेड़ा सीमित स्तर पर रहा। उस विचार मंच में एक प्रश्न, बल्कि ऐतिहासिक शंका, मैंने उठायी थी कि यदि बादशाह अकबर नौसेना बनाता तो उसका साम्राज्य क्या यूरोप तक फैल जाता ? इंग्लैण्ड की महारानी उसकी समकालीन थी। ट्यूडर वंश की एलिजाबेथ प्रथम महारानी थीं। वह आजीवन कंुवारी रहीं। बड़ी बहादुर थीं। वीरांगना रहीं। यदि मुगल नौसेना तब इंग्लैण्ड जीत लेती तो तार्किक है वह इंग्लिश राजकुमारी दिल्ली के शाही हरम की शोभा बढ़ाती! मगर नौ सेना की उपादेयता की अकबर ने बिलकुल उपेक्षा की। वर्ना विश्व का इतिहास ही भिन्न होता, विचित्र होता। हिन्दुस्तान ब्रिटेन का उपनिवेश ही नहीं होता। उलटा नजारा होता। कैसी रही यह कल्पना ?

विचारणीय मलाल है कि भारतीय नौसेना के त्वरित विकास और सशक्तिकरण में दशकों क्यों लग गये ? क्योंकि नोबेल शांति पुरस्कार के इच्छुक जवाहरलाल नेहरू ने सेना के सशक्तिकरण पर ध्यान ही नहीं दिया। यहां एक वाकया जरूर गौरतलब है कि विभाजन के तुरंत बाद मोहम्मद अली जिन्ना ने अण्डमान और लक्षद्वीप क्षेत्र को कब्जियाने हेतु पाकिस्तानी नौसेना का जंगी जहाज भेज दिया था। यूं भी भारत की एक तिहाई नौसेना लार्ड माउन्टबेटन ने जिन्ना के सुपुर्द कर दी थी। मगर ज्योही पाकिस्तानी नौसेना भारतीय द्वीप समूह पर पहुंची वहां भारतीय नौसैनिक तैनात मिले। यह सरदार बल्लभभाई पटेल की सूझबूझ थी। वे सारी भारतभूमि का एकीकरण कर रहे थे। वर्ना केरल से लगा हुआ लक्षद्वीप दक्षिण का कश्मीर बन जाता। नौसेना का शौर्य और सरदार की प्रत्युत्पन्नमति देश को पुलकित करती है। भारत की सीमा बच गयी। नौसेना का राष्ट्र आभारी रहा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

Related Articles

Back to top button