
वैदिक विचारों की वापसी : देवव्रत का संकल्प, भारत का सनातन भविष्य
उस उम्र में जब अधिकांश युवा आधुनिक जीवनशैली की चमक – दमक में उलझे होते हैं, उसी उम्र में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने भीतर जल रही किसी प्राचीन लौ की ओर लौट पड़ते हैं. वह लौ, जो वेदों की वाणी है, भारत की आत्मा है, और सनातन की शाश्वत परंपरा है। 19 वर्ष का एक युवक जब स्वयं को ज्ञान, साधना और वैदिक परंपरा के पुनरुद्धार के लिए समर्पित कर देता है, तो यह केवल एक व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं, बल्कि समाज के लिए एक प्रेरक संदेश बन जाता है। देवव्रत उन्हीं विलक्षण युवाओं में से हैं, जिन्होंने आधुनिक शिक्षा, तकनीक और बदलाव के दौर में भी वेदों की अनंत ध्वनि को अपने जीवन का संगीत बना लिया है। आज, जब दुनिया आध्यात्मिक संकट, नैतिक द्वंद्व और मूल्यहीनता से जूझ रही है, तब देवव्रत जैसे युवा ऋषि, स्वभाव के लोग आशा की किरण बनकर उभर रहे हैं। उनकी उम्र भले कम हो, पर विचारों की परिपक्वता, वेद, अध्ययन की गहराई और मनन – चिंतन की सरलता उन्हें एक अलग पहचान देती है। खास यह है कि युवा वैदिक साधक देवव्रत ने भारत की उस सांस्कृतिक धारा को प्रवाहित किया, जो महर्षि दयानंद से लेकर आचार्य पांडुरंग शास्त्री तक वैदिक पुनर्जागरण का झंडा उठाती चली आ रही है
–सुरेश गांधी
काशी में बीते पचास दिनों के भीतर जो घटित हुआ, वह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारतीय वैदिक चेतना का पुनर्जन्म था। जब 19 वर्षीय देवव्रत महेश रेखे ने शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिन शाखा का अखंड, एकाकी, बिना देखे, कंठस्थ दंडक-क्रम परायण सम्पन्न किया, तब काशी ने अपनी पुरातन ध्वनि को पुनः पहचाना। आयोजन समिति का दावा है कि यह दुरूह विधा लगभग 200 वर्ष से परंपरा में जीवित अवश्य थी, पर सार्वजनिक रूप में इस स्तर का परायण नाशिक के बाद पहली बार हुआ। यह केवल वैदिक साधना की विजय नहीं, बल्कि उस युवा पीढ़ी की भी घोषणा है, जो स्मृति, साधना और संस्कृति को नए शिखर पर ले जाने को तैयार है। रोज़ सवा तीन से चार घंटे का अखंड पाठ… मंत्रों का आरोह-अवरोह… स्वर-स्वरित की शुद्धता… और हजारों श्रोताओं से भरे परिसर में 50 दिनों तक बिना एक पल रुके एक ही साधक की एकाग्रता, यह दृश्य आज के समय में असंभव-सा प्रतीत होता है। किंतु काशी में असंभव को संभव करने की परंपरा रही है। देवव्रत रेखे उसी अनादि परंपरा के आधुनिक ‘बाल-ऋषि’ बनकर उभरे हैं। देवव्रत जैसे युवा हमें यह संदेश देते हैं कि ज्ञान की यात्रा आयु से नहीं, जिज्ञासा से शुरू होती है। उन्होंने सिद्ध किया है कि वैदिक परंपरा कोई बीती हुई कहानी नहीं, बल्कि आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी ऋषि, युग में थी। भारत का भविष्य तभी स्वर्णिम होगा, जब उसके युवा आधुनिकता और परंपरा दोनों का संतुलन साधकर आगे बढ़ेंगे, और इस दिशा में देवव्रत जैसे वैदिक बाल ऋषि नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा बनकर उभर रहे हैं। देवव्रत वेद, संस्कृति, समाज, शिक्षा और भविष्य के भारत को लेकर खुलकर बड़े ही सहजता सरलता से अपनी बात रखते हैं। परायणकर्ता केवल 19 वर्ष का एक ब्रह्मचारी है, जो बिना देखे, एकाकी, प्रतिदिन 3 से 4 घंटे मंत्रों की धारा को अविच्छिन्न रखता है। ऐसी प्रतिभा को विद्वान “चमत्कारी मेधा” और “दिव्य स्मरण” की श्रेणी में रख रहे हैं। स्तुत है सीनियर रिपोर्टर सुरेश गांधी की देवव्रत से की इस ऐतिहासिक परायण, उनकी साधना, दंडक-क्रम की जटिलता, काशी की प्रतिक्रिया, और श्रृंगेरी मठ की भूमिका पर एक गहन सवाल – जवाब… के कुछ प्रमुख अंश :-
प्रश्न : आज के दौर में एक 19 वर्षीय युवक का वेदों की ओर लौटना कितना चुनौतीपूर्ण था?
देवव्रत : चुनौती तो हर मार्ग में होती है, लेकिन वेद का मार्ग कठिन नहीं, ‘सत्य’ है। समाज बदल रहा है, जीवन की गति तेज़ है, पर मनुष्य का अंतरकरण आज भी उतना ही शुद्ध और जिज्ञासु है जितना हमारे ऋषियों के समय था। हाँ, यह जरूर है कि वैदिक अध्ययन को लेकर लोग अभी भी यह मानते हैं कि यह सिर्फ वृद्ध साधकों का विषय है। लेकिन मैं मानता हूँ कि वेद ज्ञान का स्रोत्र है, आयु का बंधन नहीं। मेरे लिए यह यात्रा आनंद की रही, संघर्ष की नहीं।
प्रश्न : आपकी वैदिक शिक्षा की शुरुआत कैसे हुई? प्रेरणा कहां से मिली?
देवव्रत : हमारे घर – परिवार में आध्यात्मिक वातावरण था। दादा – दादी और माता – पिता प्रार्थना, जप और सनातन परंपराओं का पालन करते थे। लेकिन वेदों से मेरा वास्तविक परिचय तब हुआ जब मैंने पहली बार ऋग्वेद के मंत्रों को समझना शुरू किया। वेद केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, जीवन विज्ञान हैं। जब यह समझ आया कि हमारे ऋषियों ने हजारों साल पहले ब्रह्मांड, ऊर्जा, समाज, शासन, चिकित्सा, शिक्षा, सभी क्षेत्रों पर आश्चर्यजनक शोध किया था, तभी लगा कि यही सही दिशा है।
प्रश्न : आधुनिक युवाओं को वेद पढ़ना कठिन क्यों लगता है?
देवव्रत : कठिन इसलिए नहीं कि वेद कठिन हैं, बल्कि इसलिए कि हम उन्हें कठिन समझते हैं। अगर कोई वेद को संस्कृत भाषा की कठिनाइयों, कर्मकांड या पौराणिक भ्रम से जोड़ देता है, तो उससे युवाओं में दूरी पैदा होती है। वेदों को आधुनिक भाषा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सरल व्याख्या के साथ पढ़ाया जाए तो वे जीवंत हो उठते हैं।
प्रश्न : क्या आप मानते हैं कि वेद आज भी समकालीन विज्ञान के समकक्ष हैं?
देवव्रत : सिर्फ समकक्ष नहीं, कई क्षेत्रों में तो वे उससे कहीं आगे हैं। वेद ब्रह्मांड विज्ञान, ध्वनि विज्ञान, पर्यावरण, चिकित्सा, योग, गणित, समाज – व्यवस्था और मानव – मनोविज्ञान को ऐसे स्पष्ट करते हैं, जिन्हें आज विज्ञान नए – नए प्रयोगों के बाद स्वीकार कर रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि वेद वैज्ञानिक अनुसंधान की “अनंत प्रयोगशाला” हैं।
प्रश्न : दंडक-क्रम आखिर है क्या? इसे इतना मुश्किल क्यों माना जाता है?
देवव्रत : दंडक-क्रम वैदिक परंपरा की एक विशिष्ट विकृति (पाठ-विधा) है। चारों वेदों में, पद-पाठ, क्रम-पाठ, जटा, घना, रथ, दंडक, महा-घना आदि मिलकर आठ प्रमुख विकृतियां होती हैं।
दंडक-क्रम की विशेषताएं :
- मंत्र के 1 से 100 तक पद आरोही क्रम में बोले जाते हैं।
- फिर वही 100 से 1 तक अवरोही क्रम में आते हैं।
- हर संयोजन नए पद-संयोजन बनाता है।
- संधि-विच्छेद त्रुटिरहित होना चाहिए।
- मंत्र का स्वर शास्त्रीय होना चाहिए : उदात्त, अनुदात्त, स्वरित
- कई मंत्रों में संयोजन संख्या सैकड़ों में पहुंच जाती है।
वेद विशेषज्ञ कहते हैं, दंडक-क्रम को बोलना नहीं, जीना पड़ता है। यह कठिनाई ही इसे दुनिया की सबसे दुर्लभ वैदिक विधा बनाती है।
प्रश्न : वैदिक ग्रंथों के पुनर्लेखन पर आपका विचार क्या है? क्या उसमें बदलाव उचित है?
देवव्रत : वेद ‘लिखे’ नहीं गए, वे ‘श्रुत’ हैं, एक अनंत ध्वनि, जो ऋषियों ने सुनी। इसलिए वे पूर्ण हैं। पुनर्लेखन का अर्थ सामग्री बदलना नहीं, व्याख्या को आधुनिक पाठकों के अनुकूल बनाना है। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि वेदों की शाश्वत भावना को आज की भाषा, शोध और वैज्ञानिक उदाहरणों से जोड़कर सरल व सुगम बनाया जाए।
प्रश्न : आपकी दृष्टि में भारत का भविष्य वैदिक ज्ञान से कैसे जुड़ सकता है?
देवव्रत : भारत ज्ञान – भूमि है। जब भारत अपनी जड़ों से जुड़ता है, तभी वह विश्वदृगुरु बनता है। वेद भारत की “आध्यात्मिक रीढ़” हैं, जितना हम इसे मजबूत करेंगे, उतना ही समाज नैतिक, मजबूत और वैज्ञानिक बनेगा। मुझे विश्वास है कि आने वाले 20 वर्षों में भारत वैदिक ज्ञान, आधारित शिक्षा, योग – ध्यान, औषधि विज्ञान और पर्यावरण – अनुकूल तकनीकों का सबसे बड़ा केंद्र बनेगा।

प्रश्न : वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में कौन सी मुख्य कमियां आप देखते हैं?
देवव्रत : सबसे बड़ी कमी यह है कि हमारी शिक्षा “नौकरी” पैदा करती है, “चरित्र” नहीं। हम ज्ञान की जगह डिग्री को प्राथमिकता देते हैं। वेदिक शिक्षा का उद्देश्य मानव को समग्र बनाना है, बुद्धि, आत्मा, मन और शरीर सबका समन्वय। अगर हम आधुनिक शिक्षा में नीतिशास्त्र, ध्यान, योग, और वेदों के मूल सिद्धांत जोड़ दें, तो चरित्रवान और सक्षम नागरिक स्वतः तैयार होंगे।
प्रश्न : वैदिक जीवनशैली अपनाने से आज के युवाओं को क्या लाभ हो सकते हैं?
देवव्रत : यह केवल आध्यात्मिक लाभ नहीं, व्यावहारिक लाभ भी देता है, मानसिक शांति, तनाव मुक्ति, ध्यान की क्षमता में वृद्धि, अनुशासन, सकारात्मक सोच, शारीरिक संतुलन, प्रकृति के साथ सामंजस्य. वेद व्यक्ति को संपूर्ण मनुष्य बनाते हैं और आज दुनिया को ऐसे ही मनुष्यों की आवश्यकता है।
प्रश्न : आप अपने भविष्य को कैसे देखते हैं? क्या कोई विशेष लक्ष्य है?
देवव्रत : मेरा लक्ष्य बहुत सरल है, वेदों का ज्ञान जन – जन तक पहुँचे। मैं शोध, व्याख्यान, लेखन और आधुनिक माध्यमों के जरिए वैदिक ज्ञान को सरल भाषा में प्रस्तुत करना चाहता हूँ। अगर वेद किसी एक व्यक्ति के भी जीवन में प्रकाश भर दें, तो मेरा प्रयास सफल होगा।
प्रश्न : युवा पीढ़ी के लिए आपका संदेश?
देवव्रत : युवाओं से मेरा केवल एक निवेदन है, अपनी जड़ों को मत भूलिए।आधुनिक बनिए, पर अपनी आत्मा से मत कटिए। तकनीक अपनाइए, पर परंपरा को मत त्यागिए। ज्ञान अर्जित कीजिए, पर चरित्र को प्राथमिकता दीजिए। भारत का भविष्य किसी सरकार या संस्था पर नहीं, हम युवाओं पर निर्भर है।
प्रश्न : दंडक-क्रम परायण इतना ऐतिहासिक क्यों माना जा रहा है?
देवव्रत : दंडक-क्रम स्वयं में वैदिक वाङ्मय की सबसे जटिल, कठिन और विलुप्तप्राय विधाओं में से एक है। सामान्य क्रमपाठ की तुलना में दंडक-क्रम में एक मंत्र को पदों में विभाजित कर, उसे आरोही और अवरोही दोनों क्रम में,हैंड्रेड संयोजनों में, बिना लिखित सामग्री के, कंठस्थ स्मरण के साथ बोलना होता है। दंडक-क्रम में : स्मरणशक्ति चमत्कारी स्तर की चाहिए। स्वर-स्वरित, अनुदात्त-उदात्त की त्रुटिरहित शुद्धता अनिवार्य है। एक पद गलत बोलने पर पूरा मंत्र पुनः आरंभ से बोलना होता है।
प्रश्न : यह परायण कितना कठिन था? क्या सामान्य वैदिक विद्यार्थी इसे कर सकते हैं?
देवव्रत : सामान्य वैदिक विद्यार्थी पद-पाठ, क्रम-पाठ तक पहुंचते हैं। जटा-घन जैसे पाठ भी कठिन माने जाते हैं। लेकिन दंडक-क्रम, न पद-पाठ है, न जटा-पाठ, न घन-पाठ। यह उन सबका सम्मिलित, उससे कई गुना अधिक जटिल स्वरूप है। एक मंत्र, उदाहरण के लिए “नमस्ते रुद्र” दंडक-क्रम में : 1 → 2 → 3 → 4 → … → 100 और फिर 100 → 99 → 98 → …. → 1. हर चरण में संधि-विच्छेद, स्वर-शुद्धता, उदात्त-अनुदात्त का पालन। एक भी त्रुटि संपूर्ण प्रवाह को बिगाड़ देती है। भारत के अधिकांश वेद विद्यालय भी इस कठिनाई के कारण दंडक-क्रम को अपने पाठ्यक्रम से बाहर कर चुके हैं। उनका मानना है कि “साधारण बुद्धि दंडक-क्रम में सफल नहीं हो सकती, यह दिव्य मेधा का विषय है।” इसी कारण देवव्रत का परायण वैदिक इतिहास में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर चुका है।
प्रश्न : देवव्रत रेखे कौन हैं? इतनी स्मरणशक्ति कहां से आती है?
देवव्रत : वो ग्रामीण महाराष्ट्र के साधारण परिवार से हैं। लेकिन परंपरा साधारण नहीं, उनके पिता एवं गुरु महेश चंद्रकांत रेखे स्वयं वैदिक साधना के गहन अनुयायी हैं।
देवव्रत की दिनचर्या
सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठना, पंचगव्य सेवन, स्वाध्याय, मंत्र-सूक्ष्म अभ्यास, संयमित भोजन, एकांत साधना, निदिध्यासन उनके पिता बताते हैं एक बार देवव्रत ने कोई मंत्र सुन लिया, तो वह उसे कभी भूलते नहीं। श्रृंगेरी मठ के विद्वानों ने भी उनकी स्मरणशक्ति को “अलौकिक” और “अद्वितीय” कहा है। उनकी साधना में आधुनिक विचलन, जैसे मोबाइल फोन, सोशल मीडिया, बाहरी संपर्क एकदम शून्य है। उनका पूरा समय वेदमय है।
प्रश्न : काशी में यह आयोजन पहली बार क्यों माना जा रहा है?
द्रेवव्रत : काशी सदियों से : वेद, शास्त्र, दर्शन, पुराण, तंत्र, योग, सबका केन्द्र रही है। लेकिन काशी में दंडक-क्रम का ऐसा अखंड, एकाकी, कंठस्थ परायण पूर्व में नहीं हुआ। विद्वान इसका प्रमाण कई ग्रंथों और ऐतिहासिक चर्चाओं में खोजते हैं, पर इस रूप में पहली बार संपन्न होने पर सहमति व्यक्त करते हैं। कई शास्त्री तो कहते हैं, काशी के इतिहास में यह वह क्षण है, जब शहर ने स्वयं अपनी जड़ें फिर से पहचानी हैं।
प्रश्न : श्रृंगेरी शंकराचार्य मठ की इसमें क्या भूमिका रही?
देवव्रत : श्रृंगेरी मठ वैदिक परंपरा का प्राचीनतम केंद्र है। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित यह मठ वेदों का संरक्षण, अध्ययन और परंपरा की शुद्धता का सबसे महत्वपूर्ण संस्थान माना जाता है। इस आयोजन के पीछे : मठ की अनुमति, मार्गदर्शन, आशीर्वाद, विद्वानों का मार्गदर्शन, अनुशासन व्यवस्था, अनमोल भूमिका में थे। श्रृंगेरी मठ की मान्यता है : “वेद केवल उच्चरित ध्वनि नहीं, बल्कि साधक की चेतना में स्थापित होने वाली अनुभूति है।” देवव्रत इसी अनुभूति का जीवंत रूप बनकर सामने आए।
प्रश्न : 50 दिनों का प्रतिदिन का परायण कैसा था? क्या लोग उपस्थित रहते थे?
देवव्रत : परायण प्रतिदिन लगभग 3.5 से 4 घंटे चलता था। प्रांगण में प्रतिदिन सैकड़ोंदृहजारों लोग बैठते थे। विद्वान, शास्त्री, विद्यार्थी, संत, गृहस्थ, हर वर्ग के लोग इस दिव्यता का अनुभव करने आते थे। जब मंत्रों की ध्वनि एकाकी स्वर में उठती थी, तो परिसर में ऐसी गंभीरता स्थापित होती थी कि : पक्षियों का कलरव धीमा हो जाता, वातावरण स्थिर हो जाता, लोग घंटों बिना हिले बैठे रहते। एक साधक का एकाकी स्वर… और सामने बैठे हजारों अनुयायी …. यह काशी के लिए नया लेकिन शाश्वत अनुभव था।
प्रश्न : क्या इस परायण का कोई सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व भी है?
देवव्रत : हाँ, अत्यंत। 1. युवा पीढ़ी में वेद के प्रति सम्मान बढ़ा। 2. दंडक-क्रम जैसी दुर्लभ विद्याएँ फिर से चर्चा में आईं। 3. काशी के सांस्कृतिक गर्व में नए आयाम जोड़े गए। 4. देशभर के वेद विद्यालयों में नई ऊर्जा आई। 5. युवाओं ने देखा कि “स्मरण, साधना और एकाग्रता से असंभव भी संभव है।” एक विद्वान ने कहा, यह आयोजन जागरण है, केवल वेदों का नहीं, समाज की चेतना का भी।
प्रश्न : क्या यह आयोजन भविष्य में भी दोहराया जाएगा?
देवव्रत : विद्वानों का मत विभाजित है. इतनी कठिन साधना, इतना लंबा परायण और इतनी विलक्षण मेधा हर पीढ़ी में नहीं जन्म लेती। लेकिन इस आयोजन ने यह आशा अवश्य जगा दी है कि वेदों की परंपरा जीवित है, और आगे भी जीवित रहेगी।
प्रश्न देवव्रत रेखे के प्रति काशी का क्या भाव है?
देवव्रत : काशी ने उन्हें “बाल-ऋषि”, “वैदिक मेधावी” और “नव-ऋषिकुमार” जैसे सम्मानसूचक नाम दिए हैं। घाटों पर, गलियों में, मंदिरों में, विद्वत-परिषदों में, हर कहीं एक ही चर्चा, “19 साल में ऐसा कैसे संभव?” काशी के संतों ने कहा, “देवव्रत की साधना काशी के अनादि स्वर को पुनः जागृत करती है।” फिरहाल, काशी का यह ऐतिहासिक 50 दिवसीय दंडक-क्रम परायण केवल एक युवा की साधना नहीं, यह भारत की सांस्कृतिक अस्मिता, वैदिक परंपरा और आध्यात्मिक जड़ों का पुनर्जागरण है। जब देवव्रत रेखे की ध्वनि काशी के आकाश में गूंजी, तो लगा जैसे ऋषियों की वाणी पुनः लौट आई हो। यह आयोजन केवल वर्तमान का नहीं वह भविष्य का भी इतिहास लिख गया।



