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उपनिवेशवाद दो ढाई सौ वर्षों का संक्षिप्त विवरण

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग-6

2005-2020, विश्व पटल पर विश्व व्यापार संगठन निस्तेज होने लगा। Trade War के आसार नजर आने लगे। चीन भी आग्रही वैश्विक भूमिका मे आ गया। वैश्विक स्तर पर गरीबी बढ़ी। आर्थिक समझौता गरीब देशों के गले में फंदा बनने लगा। अफ़्रीकी देशों में भुखमरी गृह युद्ध की स्थितियां बनने लगी। नव उपनिवेशवाद युग मानो चला आया हो। शोषण, उत्पीड़न के शिकार दुनिया मे लगभग 400 करोड़ लोग हैं। 700 करोड़ दुनिया की आबादी है ही। उसमे से 140 करोड़ लोग ऐसे है जो एक सवा डॉलर से कम में रोज की जिन्दगी गुजार रहे है।

पलायन विश्व मे हर कहीं आम हो गया है। माइग्रेशन वैश्विक तथ्य बन चुका है। बाड लगाना, वीजा नियम कड़े करना आम बात हो गई है। विश्व ग्राम, ग्लोबल विलेज आदि हावी हो गई है। भारत मे जमीन, जल, जंगल, जानवर की हालत बेहद ख़राब है। 50 करोड़ तो प्रवासी असंगठित क्षेत्र मे देश में अपने गाँव से दूर जैसे-तैसे जी रहे है।

भारत के पिछले 50 वर्षों में 50% जैव-विविधता नष्ट हो गई है। करोड़पतियों की संख्या हर क्षेत्र में प्रभावी ढंग से बढ़ रही है। बेरोजगारी से त्रस्त और अभावग्रस्त लोगों की संख्या लगभग 70% हो गई है। भारत के 1% लोग 57% संसाधनों का उपयोग करने की स्थिति में है।

हाल की प्रवासी मजदूरों की घर वापसी दुःखान्तिका सब बातें साफ-साफ बयान कर रही है। पिछले 15-20 वर्षों में फ्रैंक की कही हुई बातों की चर्चा समयोचित है।

5000 वर्षों मे जितना बदलाव संसार में हुआ उससे कहीं बहुत ज्यादा बदलाव पिछ्ले 500 वर्षों मे हुआ। यों कहा जाय तो उसी श्रृंखला मे लगता है कि पिछले 500 वर्षों मे जितना बदलाव हमने सुना, देखा उससे कही अधिक तेज गति से पिछले 50 वर्षों मे दुनिया मे और भारत मे देखने में आया है। आर्थिक ही नही समाज संरचना, सांस्कृतिक मूल्य आदि सभी पहलुओं मे भारी परिवर्तन अनुभव मे आ रहे है। तकनीकी हावी होती गई है पिछले 50 वर्षों में। पिछले 150 वर्षों मे ही तो रेडियो, टीवी, रेलगाड़ी, कारें, हवाई जहाज, फोन, मोबाइल, इंटरनेट, सुचना प्रद्योगिकी, मॉल संस्कृति, कनवर्जेंस, बायोटेक्नोलॉजी, हाइब्रिड बीज, जी एम् फसलें, क्लोनिंग, जेनेटिक इंजीनियरिंग, रोबोटिक्स, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस आदि शब्द आम हो रहे हैं। इस टेक्नोलॉजी के कारण मानव की भूमिका और उपयोगिता के बारे में सवाल कई तरह के उठने लगे है।

जैसे फ्रैंक ने बदलाव की गति के बारे में लिखा वैसा ही ऐतिहासिक प्रस्तुति हेरारी ने होमोसेपियन्स में की है। टेक्नोलॉजी क्या मानव को अर्थहीन बना देगी? यदि हाँ तो क्या यह उचित है? तो समाधान क्या है? आदि प्रश्न उठाये गये है।

मनुष्य एकाकी असहाय पड़ रहा है। फेसबुक पर 5000 मित्रों के बावजूद आदमी अकेला और खाली महसूस कर रहा है। दौड़ रहा पर मंजिल से अनजान है। आत्महत्या, अवसाद, हिंसा, अधैर्य आदि अभी की पीढ़ी के लक्षण से बन गये है। समाज और सत्ता का एक डिस्कनेक्ट की अवस्था हो रही है।

भारतीय संदर्भ में भी कमोवेश ये स्थितियाँ उभरने लगी है। समाज मे परस्पर अविश्वास, संवादहीनता बढ़ी है। फिर भी भारत जड़ों से जुड़ा है।

परिवार-व्यवस्था, बचत की मानसिकता और कम खर्चा की सरल जिन्दगी आम व्यक्ति का बचाव कर रही है। पर कुछ दशकों मे चुनावी राजनीति ने जाति, क्षेत्र, भाषा, संप्रदाय आदि के वाद मजबूत कर दिये है। समाज की पारस्परिकता, पारिवारिकता घटी है खासकर उन तबकों में जो पढ़ लिख गये है और अपने जीवन को अपेक्षाकृत रूप में सुरक्षित अनुभव कर रहे हैं।

सामान्य जन परिवार, गाँव, समाज से भावनात्मक स्तर पर जुड़ा हुआ है। सामाजिक पूंजी और सांस्कृतिक परंपरा भारत की सबसे बड़ी ताकत है। प्रकृति की दयालुता दूसरी बड़ी ताकत है।

भारत भगवद् सत्ता के अधीन है। धर्मसत्ता के अंतर्गत समाजसत्ता, समाजसत्ता के अंतर्गत राजसत्ता, राजसत्ता के अंतर्गत अर्थसत्ता के हिसाब से चल रहा है।

समाज ही एक मायने में समाज की ताकत है। इसके सहारे ही आज की सभ्यतामूलक चुनौतियों का सामना किया जा सकता है और भारत दुनिया के प्रति अपना दायित्व भी निभा सकेगा।
अंग्रेजों के जाने के बाद भारत का स्वरूप कैसा हो इस बहस को गांधीजी ने शुरू किया था। वह सब गांधीजी द्वारा लिखिल “हिन्द स्वराज” की परिधि में ही थी। नेहरूजी उन बातों से असहमत थे, उन बातों को मन बुद्धि के स्तर पर अस्वीकार कर रहे थे। बहस को सार्वजनिक हो जाना चाहिये थी जो कई कारणों से हो नही पाई। उस मे से बड़ी दिशा भूल हो गई। अब 80 वर्षों की कमियों को भी भरा जाना है। विवेकपूर्वक पहले का, अभी का के बीच संतुलन बिठाना है, कुछ अपरिवर्तनीय पहलुओं पर आग्रह कायम भी रखना है।

पुरानी नींव, नया निर्माण अर्थात “पुनर्निर्माण” ही रास्ता हो सकता है। देश के हर नागरिक को ईमान की रोटी और इज्जत की जिन्दगी मयस्सर हो। सम्यक् आजीविका की समाज में आश्वेस्ति हो। देश राम राज्य साधना की ओर बढे इसके लिये 500 वर्ष से स्थापित मानव केन्द्रिक विकास की व्यवस्था और अवधारणा को काल बाह्य मानकर प्रकृति केन्द्रित विकास की अवधारणा और व्यवस्था को रूपायित करें यह वक्त का तकाजा है।

उस लक्ष्य मे रामराज्य, हिन्द स्वराज या प्रकृति केन्द्रिक विकास, स्वदेशी और आत्मनिर्भरण एक ही तत्व के तीन नाम है ऐसा समझें।

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