दस्तक-विशेषस्तम्भ

2010-2020 का विवरण और आगे की बात

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग 2

विचारहीन वैश्वीकरण के परिणाम देश के लिये हितकर नही हुए। आर्थिक दृष्टि से ग्राम उजड़े। बूढ़े, बच्चे गाँव में रह गये। स्वस्थ लोगों को घर छोड़कर आजीविका के लिये बाहर अन्य जिलों में, प्रदेशों में या विदेश जाना पड़ा। ग्रामीण गरीबी नही घटी।

शहरी गरीबी कुछ घटी पर उसके बदले शहरों को गंदगी, अपराध, बेरोजगारी की सौगात मिली। आर्थिक गैरबराबरी कई स्तरों पर बढ़ी। गरीब और साधनहीन बने। प्राकृतिक साधनों का विध्वंस तथा प्रभु वर्ग के द्वारा उन पर कब्जा हुआ। उन साधनों पर आजीविका के लिये निर्भर लोगों को पलायन करना पड़ा। महिलाओं को विशेष झटका झेलना पड़ा।

एनरान का घटनाक्रम आगे की आशंकाओं को सही साबित कर रहा था कि अर्थव्यवस्था और राजनैतिक व्यवस्था पर धन बल, कॉर्पोरेट्स और विदेशी आर्थिक ताकतों का प्रभाव बढ़ेगा।
2004 में श्रीमती सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी का मुकाबला सामान्य जन ने किया। राजनैतिक दल संविधान की दुहाई देते हुए हथियार डाल चुके थे। राष्ट्रीय चेतना के आग्रह ने मजबूती दिखाई। वह संकट टला।

ज्यों-ज्यों प्रकृति विध्वंस बढ़ा, भीमकाय मशीनों का चलन पिछले 20 वर्षों मे बेतहाशा बढ़ा।
2जी, 3जी घोटाले सामने आये। 2000-2020 की कहानी लगभग समान सी है। दलों का कांग्रेसीकरण, राजनीति मे काम करने मे प्रेरणा के स्तर पर ही प्रदूषण, दलों मे मूल्यक्षरण, करोड़ों रूपये के घोटाले आदि आम हो गये।

इंटरनेट एजेंसी, फेसबुक, गूगल की कमाई भारत मे कई-कई गुना बढ़ गई। साइबर क्षेत्र पर नियंत्रण के बारे में सरकारें सोयी पड़ी रहीं। आम आदमी खारिज होता गया। कॉर्पोरेटोक्रेसी, क्रोनी कैपिटलिज्म आदि शब्द चलन मे आ गये।  सन् 65-80 सत्ता बल, 80-95 बाहुबल, 95-2010 के बीच धनबल की भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर परते चढ़ गई। फलतः न्यस्त स्वार्थी तत्व प्रभावी हुए।

राजनीति जनाभिमुखी से हटते-हटते सत्ताभिमुखी हुई। येनकेन प्रकारेण सत्ता पाना, काबिज रहना ही राजनीति का मकसद रह गया। काला धन और कॉर्पोरेट चंदा दलों को चलाने के लिये अनिवार्य माध्यम बन गया।  सभी दल एक से हो चलने के कारण विपक्ष की अलग पहचान नही बन सकती थी। चोर कौन और साव कौन? की बहस बेमानी हो गई।

स्व. नेता श्री सिकंदर बख्त के शब्दों में टकराव के विषय मेरा चोर, तेरा चोर, छोटा चोर, बड़ा चोर Convinient चोर और Inconvinient चोर सरीखा वर्गीकरण ही सच्चाई को बयान करता है।
दलों का आंतरिक लोकतंत्र कमजोर हुआ। विचारधारा पर आधारित दल नेता आधारित, जाति आधारित स्वरुप पाने लगे। समाज परिवर्तन प्रेरणा नही रही। तो विचारधारा महज लफ्फाजी का ही रूप ले गई।

दलों में आत्म विवेचन या सुधार की गुंजाइश क्षीण होती गई। चरित्र मे सभी एक जैसे दिखने लगे। तो दल बदल का अर्थ नही रहा। जिस दल मे अपने लिये ज्यादा कुछ पाने की गुंजाइश होती उसमे घुसने का वातावरण बना। कोई दल किसी के लिये अछूत नही रहा। “जिताऊ” और “कमाऊं” ही निर्णायक तत्व था।

प्रमुख दलों में सामाजिक सांस्कृतिक पहलुओं पर समझ के बारे में कुछ फर्क तो था मगर राजनैतिक, आर्थिक संदर्भ में सभी दलों ने बाजारवाद के बारे मे एवं नेता आधारित स्वरुप और अवसरवादी रवैया के बारे में चरित्रगत समानता पा ली। फलतः सामान्यजन की जरूरतों को पूरा करने की बजाय, दलीय हित और नेताहित ही सर्वोपरि हो गये।

बाजारवाद, अर्थवाद और प्रौद्योगिकी का असर धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता आदि सभी आयामों पर पड़ा। भाषा, भूषा, भोजन, भवन का आर्किटेक्चर, भेषज, भजन सभी पहलुओं पर असर पड़ा।

Party of workers with a mission बदलकर Parties of candidates for power यह स्वाभाविक था। Party with a difference की धार सत्ता की आंच मे पिघल गई । Nation first जुमला बनकर रह जाता यह भी स्वाभाविक था। 2010 तक स्विस बैंकों मे भारतीयों के काले धन के बारे मे शोरगुल मचने लगा। भारतीय चेतना की ओर से भी मुखर होने की छटपटाहट था।

जब राजनैतिक दल, कार्यपालिका, मीडिया और बुद्धिजीवियों के अंदर बाजारवाद के पक्ष मे निस्तेज होकर आम सहमति बन रही थी उसी समय भारत की तासीर, अस्मिता, अभीप्सा, चेतना भी अभिव्यक्ति के लिये व्याकुल हो उठी।  वर्चुअल संवाद, संचार माध्यम, सोशल मीडिया का आभासी संवाद, आदि मिलाकर गढ़े आभासी नेतृत्व के लिये मिथकीय वायुमंडल, आभामंडल निर्मित होने का युग प्रारंभ हुआ। पिछला 10 वर्ष का समाज इसका स्रष्टा और भोक्ता दोनों है।

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