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सत्ता और दल की राजनीति को चाहिये कि चुनावी जीत या सरकार बनाने की करतब को सब कुछ न मान ले

के.एन. गोविन्दाचार्य

स्तम्भ: भारतीय समाज भगवद्सत्ता से प्रेरित है। इसका संचालन, धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता-इस अनुक्रम से होता है। समाज और सत्ता दो पहलू है जो लोकतंत्र के पक्षी के पंख है। दोनो पंखों में मेल, संतुलन जरुरी है। राजसत्ता, धर्मसत्ता, समाजसत्ता, अर्थसत्ता समाजहित के साथ अनुबंधित होकर अंतिम व्यक्ति के हक़ और हित मे कार्यरत हो यह अपेक्षित है।

एतदर्थ राजसत्ता पर समाजसत्ता और धर्मसत्ता का अंकुश लगना भी जरुरी है। जो भी कुछ लेने के लिये हाथ फैलायेगा वह अंकुश का काम नही कर सकेगा। इसका ध्यान अपनी तरफ से ही धर्मसत्ता और समाजसत्ता को तो रखना होगा। अर्थसत्ता भी राजसत्ता के साथ देशहित मे तालमेल कैसे बिठाये इसका भी विचार सभी को करना होगा। राजसत्ता के पास समाज प्रदत्त नैतिक और तंत्र की ताकत है। इसका उपयोग दलहित में नहीं देशहित में करना अपेक्षित है।

सत्ता का नैसर्गिक विकार है सर्वंकशता, एकाधिकार की इच्छा, एवं कालक्रमेण भ्रष्ट होते जाना। इस पर ही सामाजिक दंडशक्ति द्वारा अंकुश लगे यह जरुरी है। राजसत्ता के लिये अपने विकारों से उदभूत दो शस्त्रास्त्र है लोभ और भय। सामाजिक दण्डशक्ति तभी कुछ कर सकेगी जब वह लोभ या भय के दबाव मे न आये, नुकसान उठाने के लिये तैयार रहे। तभी जन चेतना, जन की समझ और जन सहभाग बढ़कर जनदबाव का रूप ले सकेगा।

समाज सत्ता और धर्मसत्ता के शस्त्र हैं। आत्मबल, नैतिकता, और जनबल की साख। ऐसी पहचान बने यही निष्पक्ष, निर्वैर, निर्भय आचार्यकुल से थी। आचार्य विनोबा भावे का नैतिक नेतृत्व शीर्ष पर था। इसी भावना से एक बार संसद मे बहस हुई थी। पं. नेहरूजी ने किसी बात पर नाराज होकर कहा – I will crush this mentality तब सदन मे आवाज प्रतिरोध मे उठी कि I will crush this crushing mentality.

उस युग परंपरा के शीर्षस्थ लोगों में एक स्व. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का दो दिन पहले जन्मदिन था। उनके यशस्वी एवं नैतिक जीवन की ताकत थी भारतीय जनसंघ की स्थापना के पीछे। उनकी मृत्यु संदेहास्पद स्थिति में हुई। उस कालखंड में ऐसा भी हुआ था कि एक नेता ने कांग्रेस छोड़ी। तब उन्होंने जनप्रतिनिधि का पद भी छोड़ दिया। फिर से चुनाव मे गये। जीत नही सके। पर लोकतंत्र जीत गया।

लोकतंत्र की मजबूती के लिये नैतिक बल जरुरी है। सरकारें संख्या से नही इकबाल या साख से चलती है। लोकतंत्र में सत्ता मे प्रवेश का माध्यम है चुनाव। इसलिये दल और चुनाव का अन्तरंग संबंध है। फिर भी सत्ता सही काम कर सकेगी जब उसके पास केवल संख्या बल नहीं नैतिक बल भी हो। इसके लिए जरुरी है कि दलों के नेता अपनी ओर से एकतरफा परहेज का पालन करें कि हर कीमत पर चुनाव जीत लेना दल का उद्देश्य नही हो। अन्यथा दल जीतेगा लोकतंत्र हारेगा।

दलों को संचालित करने वाले नेतृवर्ग को सावधानी रखना है कि हर कीमत पर चुनाव जीतने, या सरकारें बना लेने को उपलब्धि न माने। बेंचमार्क को नीचे न लाये बल्कि स्वयं को ऊँचे स्तर पर उठायें। अपनी अनैतिकता को व्यावहारिकता का जामा न पहनाएँ। व्यवहारवाद को अवसरवाद मे बदलते देर नही लगती। फिर उसकी तासीर पहले कमजोर विरोधी एवं दमनकारी बनती है, तत्पश्चात् वह स्वाभाविक तौर पर न्यस्तस्वार्थी तत्वों की गिरफ्त मे आकर जनविरोधी हो जाती है। राजनैतिक क्षेत्रों मे कार्यरत सभी महानुभावों से यह समाजसत्ता का यह निवेदन है।

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