नई दिल्ली : लोकतांत्रिक देश में बड़े राजनीतिक विरोध कई उद्देश्यों को पूरा करते हैं। खास तौर से एक ऐसी पार्टी के लिए जो निराशा में हो, उसके लिए यह नई ऊर्जा और गति का स्रोत बन सकते हैं। अगर शीर्ष नेता को निशाना बनाया जाता है, तो विरोध वफादारी और एकजुटता दिखाने का भी काम कर सकता है। फिलहाल, कांग्रेस शायद दोनों की उम्मीद कर रही है क्योंकि राहुल गांधी को नेशनल हेराल्ड मामले में समन किए जाने के खिलाफ बड़ी संख्या में पार्टी नेता प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के कार्यालय तक पहुंचे। लेकिन क्या इससे पार्टी को सत्ता हासिल करने के लिए जनता का समर्थन हासिल करने में मदद मिलेगी, खासकर तब जब केंद्रीय मुद्दा भ्रष्टाचार का हो?
कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों की ओर से इस तरह के बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन गायब रहे हैं। उदाहरण के लिए, रविवार को प्रयागराज सहित उत्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों में बुलडोजर चलने का मामला है। यह ऐसा मुद्दा जिसने अल्पसंख्यकों को नाराज कर दिया है, जो मानते हैं कि उन्हें निशाना बनाया जा रहा है। इस बारे में कांग्रेस की उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा ने कोई ट्वीट तक नहीं किया। असदुद्दीन ओवैसी बुलडोजर और अल्पसंख्यक नफरत के खिलाफ विरोध की आवाज उठा रहे हैं। इसी तरह, मुद्रास्फीति और मूल्य वृद्धि के मुद्दे पर कांग्रेस की ओर से बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन गायब रहे हैं। पार्टी ने इस मामले में आखिरी बार मार्च में अभियान चलाया था, जबकि यह ऐसा मुद्दा है, जो आम आदमी को परेशान करता है।
इन दोनों मुद्दों पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की मौजूदगी सड़कों पर नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर ज्यादातर रही है। इसके विपरीत, जब भ्रष्टाचार के मामले में उसके नेता को तलब किया जाता है, तो पूरी पार्टी सड़कों पर उतर आती है। ऐसा हो सकता है कि यह प्रयास जनता के बीच उस तरह से काम न करे जैसा कि कांग्रेस कल्पना कर रही है और कुछ मामलों में उल्टा भी पड़ सकता है। जनता का मूड पहले से ही वंशवाद की राजनीति के खिलाफ है और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यूपीए सत्ता से बाहर हुई थी। राहुल गांधी के लिए सड़कों पर रैली करना यह दर्शाता है कि पार्टी अभी भी पुराने वंशवाद के दौर में फंसी हुई है। बजाय इसके कि उन्हें सम्मानजनक तरीके से कानून का सामना करने दिया जाए। घटनाएं इस विचार को पुष्ट कर सकती हैं कि कांग्रेस को केवल गांधी परिवार की ही परवाह है।