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भारतवर्ष : आज की स्थिति, लक्ष्य, दिशा और तदर्थ कार्य

के.एन. गोविन्दाचार्य

1980 से लेकर 2020 तक चली उदारीकरण या वैश्वीकरण की प्रक्रिया का भारत पर क्या असर पड़ा?, इसका लेखा-जोखा होना चाहिये था। वह नही हुआ। सरकारी पूंजीवाद से ज्यादा निर्मम और घातक निजी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था सिद्ध हुई। समाज का एक छोटा हिस्सा भौतिक उपभोग की दिशा मे सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों की कीमत पर थोड़ा लाभान्वित हुआ।

राजसत्ता, अर्थसत्ता का अनुसरण करने लगी। सन् 2000 तक यह सब दृश्य साफ़-साफ़ नजर आने लगा। पूरा सत्ता प्रतिष्ठान समाज के कमजोर वर्ग की तरफदारी न कर आर्थिक ताकतों के पक्ष मे खड़ा दिखने लगा। Trolling ने हाल के 20 वर्षों में भीषण और वीभत्स रूप लिया। जो भी गरीब तबके के मुद्दे को उठाता उस पर अर्बन नक्सल का आरोप लगने लगा।

मानो भय, भूख, भ्रष्टाचार आदि राष्ट्रवादियों के मुद्दे न रह गये हों। राज्य की प्रासंगिकता इस बात में होती है कि वह उनका बचाव करे जो खुद का बचाव न कर सकते हों। पिछले 20 वर्षों मे सामाजिक एवं आर्थिक विषमता बढ़ी। फासला और बढ़ा।

2003 में की एक अध्ययनकर्ता की उदारीकरण और वैश्वीकरण के समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर पड़े प्रभावों की रिपोर्ट बताती है कि –

  1. ग्रामीण गरीबी नही घटी। पलायन, बेबसी, बेरोजगारी बढ़ी।
  2. शहरी गरीबी कुछ घटी, मगर एवज मे अपराध, गंदगी, और बेरोजगारी को साथ लाई। स्लमीकरण तेजी से छोटे शहरों तक जा पहुँचा।
  3. अमीर-गरीब का फासला बढ़ा।
  4. कमजोर वर्ग और विशेषकर महिलाएँ अधिक नुकसान मे रही।
  5. सस्ते किस्म का उपभोगवाद, स्वैराचार समाज मे फैला। वैश्वीकरण की प्रवृति है केन्द्रीकरण, एकरूपीकरण, भूमंडलीकरण और बाजारीकरण।
  6. प्रकृति, पर्यावरण का विध्वंस देश मे और दुनिया भर मे भरपूर हुआ।

भारत में राष्ट्रीय चेतना और जीवनीशक्ति ने राजसत्ता और अर्थसत्ता की अनैतिक प्रवृतियों के खिलाफ मोर्चा बाँधा। भारतीय सभ्यतामूलक चेतना का प्रभाव धर्मसत्ता और समाजसत्ता पर अनुकूल पड़ा। राजसत्ता और अर्थसत्ता की रचना बाजारवाद की ओर बढती गई।

यह आस्था का विषय है कि भगवद्सत्ता की अभिव्यक्ति है, भारत वर्ष। भारतवर्ष के दैवी उद्भव और स्थिति का विशिष्ट उद्देश्य है। वह उद्देश्य वैश्विक है। दूसरे शब्दों में इसे कहा जा सकता है कि भारत वर्ष मोक्षभूमि है। शेष भोगभूमियाँ है। भारत वर्ष प्रस्थापना के नाते किसी व्यक्ति, संगठन या विचारधारा का नहीं अपितु भारत, राम का भारत है। रामराज्य, इसका सहज स्वभाव है।

रामराज्य जहाँ त्रिविध तपों से मुक्ति हो। उसका आधार है – सर्वात्मैक्य की अनुभूति। इसलिये भारत मे समाज की संरचना का आधार है धर्म, जो सत्य और शाश्वत का दूसरा नाम है। ऐसी धर्माधिष्ठित समाज रचना, धर्म नियंत्रित राज्य, धर्मानुकूल समाज और धर्मप्रवण व्यक्ति तदनुसार समाज संचालन होता है धर्मसत्ता से और उसके आधीन समाजसत्ता, उसके आधीन राज्यसत्ता एवं उसके आधीन अर्थसत्ता से।

इन्हीं तत्वों और विधि-विधान के कारण एक रस समाज सर्वात्मैक्य की आदरयुक्त भावना से अपनी जड़ों से, स्मृति से जुड़ता है, झंकृत होता है। इसमे से ही सामान्यजन मे कुछ बड़ा कर गुजरने का संकल्प स्पंदित होता है। उसकी भौतिक और अभौतिक स्तर पर मूल्यों, आदर्शों से परिपूरित जीवनशैली का उदघोस बनता है, वसुधैव कुटुम्बकम्।

विश्व एक परिवार है, बाजार नहीं।  उस रामराज्य की ओर कदम रखा जाना भारतीय अभीप्सा का उदघोष है। उस संकल्पना के अनुसार अविचारित भूमंडलीकरण का उत्तर होगा विकेन्द्रीकरण, बाजारमुक्ति, विविधीकरण और स्थानिकीकरण। इस दिशा मे बढ़ने का मंत्र है “सब जन करहिं परस्पर प्रीति”।

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सर्वे भवन्तु सुखिनः

इसका ही परिपाक है “सर्वे भवन्तु सुखिनः” और इसका फल है भारतीय परंपरा में उदघोषित शान्ति मंत्र। इस तत्वज्ञान के अनुकूल है रामराज्य के अनुकूल, “मानव केन्द्रिक नही” “प्रकृति केन्द्रिक विकास” का पैराडाइम। मनुष्य अपने को एकमेव या सर्वोपरि न माने बल्कि जमीन, जल, जंगल, जानवर के अनुकूल जन और जीविका का रचना में उसे सार्थकता दिखे।

करणीय पक्ष का विचार हुआ। क्रिया पक्ष का आगे विचार हो। इस संदर्भ में भारत की स्थिति, शक्ति और दुर्बलता के बिन्दुओं का विचार अपेक्षित है।

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