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अधिक पेड़ लगायें, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव रोकें

  -प्रो0 भरत राज सिंह, निदेशक,  स्कूल ऑफ मैनेजमेन्ट साइन्सेज, लखनऊ
प्रो0 भरत राज सिंह, निदेशक, स्कूल ऑफ मैनेजमेन्ट साइन्सेज, लखनऊ

लखनऊ : हम सभी जानते है कि पृथ्वी के तापमान में निरंतर वृद्धि का मुख्य कारण भूगर्भ खनिजो का अनाप-सनाप दोहन। इसके लिए मनुष्य को ही जिम्मेदार बनाया जा सकता है, क्योकि मनुष्य प्रकृति के साथ अप्रत्यासित छेड़-छाड़ कर रहा है। इतिहास काल में भी 30 से 40 हजार वर्षों के पश्चात् जलवायु परिवर्तन पाये जाने की प्रमाणिकता मिलती है परन्तु अप्रत्याशित तापमान वृद्धि का उदाहरण नहीं मिलता। वर्तमान में भूमण्डलीय तापमान वृद्धि के कारण ही, जलवायु परिवर्तन हो रहा है तथा उससे उत्पन्न अप्रत्याशित घटनायें निश्चित रूप से हमारी वर्तमान व भावी पीढ़ी के लिए एक अत्यन्त चुनौती पैदा कर दी है। विश्वस्तर पर अब, वैज्ञानिको का समुदाय एकमत होकर, इस तथ्य को स्वीकार रहा है तथा सम्भावित विनाशकारी घटनाओं को गम्भीरता से लेते हुए, इसे रोकने का या कम करने का हर सम्भव प्रयास करने के लिए तत्पर है।     वाहनों, उद्योगों, विद्युत घरों से उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों (कार्बनडाईआक्साईड, मीथेन आदि) से होने वाले प्रदूषण न केवल वातावरण और समुद्रों के तापमान को प्रभावित कर रहे है, अपितु धरती के पटल एवं उसकी संरचना को भी परिवर्तित करने की आशंका से नकारा नहीं जा सकता है। यही नहीं, जलवायु परिवर्तन से समस्त जनजीवन व विकास की गति पर भी दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
    भारत में, पिछलें दो-दशकों में वाहनों से प्रदूषण का स्तर 8-10 गुना तक बढ़ा है एवं वायुप्रदूषण को बढ़ानें में, वाहनों का योगदान 70-77 प्रतिशत तक रहा है। वर्तमान शहरीकरण के दौड़ में, अव्यवसायिक ईधन को व्यवसायिक ईधन में उपयोग, वाहनो का अधिकाधिक उपयोग व  अप्रभावी कोयला चालित विद्युत गृहों के पुराने/अप्रभावी उत्पादन यंत्रों के उपयोगों से, कार्बन उत्सर्जन की स्थिति में अत्यन्त बढ़ोत्तरी हुयी है जिससे भारत वर्ष विश्व में कार्बन उत्सर्जन में तीसरे पायदान पर पहुँच चुका है और इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ वर्षो में इसकी स्थिति और भी भयावाह हो जायेगी। अभी भी दिल्ली शहर दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित शहर तथा लखनऊ 27वें स्थान पर है। यह भी आंकलित किया गया है कि 21वीं सदी के अन्त तक जीवांश ईधन से उत्सर्जित कार्बनडाईआक्साईड के फलस्वरूप विश्व के तापमान में 2-60 सेल्सियस तक की वृद्धि दर्ज हो सकती है जोकि, वर्तमान औसतीय तापमान 1.70 सेल्सियस से कही अधिक है जिसके कारण मौसम में निरन्तर परिवर्तन से चक्रवाती तूफानों, बाढ़ व सूखा के कारण, हमारे खाद्य उत्पादन के लिए एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है। इसी प्रकार समुद्रतल में निरन्तर बढ़ोत्तरी के कारण समुद्र के तटीय शहर, जहाँ एक तरफ स्वच्छ जल के भण्डार से वंचित हो रहे है, वहीं दूसरी तरफ तटीय क्षेत्रों में विनाशकारी बाढ़ का खतरा मन्डरा रहा है। यह भी पाया गया है कि उष्मीकृत ग्रीन हाउस गैस द्वारा वायु मण्डल में कीटों के पनपने, जीवाणुओं के बनने और प्राणघातक बीमारियों के लिए अनुकूल वातावरण उत्पन्न हो रहा है। भूमण्डलीय तापमान वृद्धि के परिणाम स्वरूप, ग्रीनलैण्ड और अंटार्कटिका में भारी मात्रा में हिम चट्टानों के परत का तेजी से क्षरण हो रहा है। इसका साक्षात उदाहरण आर्कटिक महाद्वीपों पर हिम मुक्त रास्तों का बनना है।
    grouptrees-2उत्तरीय धु्रव के हिम चट्टानों के पिघलने से समुद्रजल स्तर में तीव्र वृद्धि के साथ-साथ पोलर बियर, पेन्ग्विन आदि ध्रुवीय पशु-पक्षियों के अस्तित्व समाप्त होने का खतरा उत्पन्न हो सकता है तथा उत्तरीय धु्रव पर 2030 तक नाम मात्र ही बर्फ की चट्टाने पायी जानी की सम्भावना है। जोकि वर्तमान में कुछ ही वर्षो समाप्त होने के कगार पर है। इस प्रकार अगर ध्रुवीय क्षेत्रों (उत्तर-दक्षिण तटीय) की हिम पिघलती है या ग्लेशियर एवं हिमपर्तो का निवर्तन होता है तो निश्चय ही धरती के घूर्णनन कोण जोकि वर्तमान में 23.430 है, में परिवर्तन होने की आशंका बढ़ सकती है। भारतवर्ष में बारिश के मौसम में भारी बरसात, भूस्खलन, ग्लेशियर के टूटने व गिरने से हिमालय के समीपवर्ती क्षेत्रों में जन-जीवन को भारी क्षति उठानी पड़ सकती है। इसके अतिरिक्त, समुद्र तटीय तीन तरफ के क्षेत्रों में चक्रवाती तूफानों से भारी नुकसान का सामना करना पड़ सकता है। हम गत् वर्षो के केदारनाथ, बद्रीनाथ धाम और जम्मू-कश्मीर की बाढ़ त्रासदी से पूर्णतः सबक ले चुके है जिसमे जनजीवन को भारी क्षति हुई थी। इस वर्ष भी हमें आवांछनीय प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ रहा है, जिसका मुख्य कारण ग्लेशियर पर तीव्रता से टूटना। हम इस प्रकार की अप्राकृतिक घटनाओं का अन्देशा हिमालय की श्रंृखलीय मालाओं के विघटन में सहायक भूकम्प को भी कह सकते है जिसकी वजह से ग्लेशियर में अनगिनत गहरी दरारें पड़ जाती है और एक-दिन की बारिश में भी नुकसान उठाना पड़ रहा है।
जलवायु परिवर्तनों को कम कर करने के लिए हम सक्षम है, यदि हम हाईड्रोकार्बन युक्त ऊर्जा प्रणालियों को परिवर्तित कर वायुमण्डलीय स्तर को सुरक्षित कर दें। उत्तर प्रदेश सरकार की ‘ग्रीन प्रदेश-क्लीन प्रदेश’ का नारा बहुत ही उपयोगी होगा, जब हमस भी मिल जुल कर इसमें सामिल हो। क्योंकि पेड़ो को जितना अधिक लगायेंगे उतना ही कार्बन उत्सर्जित गैस को ऑक्सीजन बनाने में मदद मिलेगी। मेरे एक शोध पत्र में यह सिद्ध पाया गया कि यदि हम जिन सड़को पर वाहनों का आवागमन अथवा वाहनों की संख्या का दबाव बहुत अधिक है, उसके किनारे तीन लाइनों में दोनो तरफ पेड़ लगाये जाए तो वाहनों से निकलने वाले कार्बन में अत्यधिक कमी हो जाती है व ऑक्सीजन की मात्रा अधिक बनती है। इससे तापमान में भी 5 से 10 डीग्री सेंटीग्रेड की कमी आती है। इस शोध में यह भी देखा गया कि तीन लाईनों में छोटे पेड़ सड़क के किनारे, उसके बाद दूसरी लाइन में उससे बड़े पेड़ तथा तीसरी लाइन में सबसे बड़े पेड़ लगाने चाहिए। इससे पेड़ो के समूह के बीच एक टनेल बनती है, जिसमें कार्बन के अवशोषण की मात्रा अत्यधिक होती है। प्रदेश सरकार के इस भागीरथ प्रयास की तभी सार्थकता होगी, जब हम सभी मिलकर अधिक से अधिक फलदार पेड़ सड़को के किनारे उपरोक्त निर्देश के क्रम में लगायें व उत्तर प्रदेश व भारत देश को विश्वस्तर पर अपनी सामाजिक चैतन्यता का परिचायक बने।

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