दस्तक-विशेषस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित

कविता और विज्ञान एक साथ नहीं मिलते

हृदयनारायण दीक्षित
स्तम्भ : काव्य में भाव अभिव्यक्ति की प्रमुखता होती है और विज्ञान में प्रत्यक्ष सिद्धि की। विज्ञान में पृथ्वी सौर मण्डल का ग्रह है। पृथ्वी पर तमाम वस्तुएं, खनिज, वनस्पतियां और जल पृथ्वी का भाग है। तमाम जीव भी इस पृथ्वी पर हैं। इन सबका अध्ययन विज्ञान है। इनसे नेह स्नेह प्रीति और राग विराग भाव जगत् के भाग है। सौन्दर्य बोध और भाव प्रवणता में काव्य का जन्म होता है। विज्ञान और भाव प्रवणता अलग-अलग हैं लेकिन अथर्ववेद का भूमि सूक्त विज्ञान और भाव प्रवणता की एकात्म कविता है। भूमि सूक्त में भूसांस्कृतिक प्रीति और प्रत्यक्ष भौतिकवाद का प्रणय है। ऋषि कवि अथर्वा रचित यह सूक्त काव्य सौन्दर्य की अनूठी अभिव्यक्ति है। अमेरिकी विद्वान ब्लूम फील्ड ने इसकी प्रशंसा की है। लिखा है कि “इस सूक्त में अथर्वन् की विशिष्टता है। यह विशेष आकर्षक है। इसमें देवकथात्मक विचार धारणा कम है। मनुष्य, पशु वनस्पति से पृथ्वी का सम्बंध ही प्रमुख है।” ब्लूम फील्ड भूमि सूक्त के प्रति आदर भाव से भरे जान पड़ते है लेकिन इन्हीं ब्लूम फील्ड ने अथर्ववेद को जादू-टोने से भरा बताया है। ऐसा सही नहीं है। अथर्ववेद के अधिकांश सूक्तों में सांसारिक यथार्थवाद है।
विज्ञान और अनुभूति का संगम अनूठा होता है। लेकिन आसान नहीं होता। वैदिक ऋषियों का प्रत्यक्ष संसार से रागात्मक सम्बंध है। प्रकृति के गोचर प्रपंचों मे उनकी रूचि है। वे इन प्रपंचों के प्रति जिज्ञासा से भरे पूरे हैं। पृथ्वी जीवन का रंगमंच है। जीवन का प्रवाह और अंत पृथ्वी पर ही होता है। सो पृथ्वी से प्रीति स्वाभाविक है। अथर्वा का भूमि सूक्त ऋग्वेद की परंपरा है। ऋग्वेद में भी भूमि की स्तुति है। ऐसी स्तुति में पृथ्वी का दैवीकरण नहीं है, मानवीकरण भी कम ही है। ऋग्वेद (5.84) में “पृथ्वी पर ऊंचे पहाड़ हैं। वह पर्वतों का भार वहन करती है। यह वन-वनस्पतियों वनों का आधार है।” एक सूक्त (10.18.10) में “पृथ्वी माता है। यह जीवन भर भार ढोती है। मृत्यु के बाद भी यह अपनी गोद में रखती है।”
पृथ्वी को माता कहना सही है। माता गर्भ में रखती है। बाद में पोषण देती है। तरूण होने पर शुभाशीष देती है। पृथ्वी भी ऐसी ही है। हम सब इसी में उगते हैं। सभी सांसारिक व आध्यात्मिक कार्यों का स्थल यह पृथ्वी ही है। मोक्ष या मुक्ति के प्रयत्नों का आधार भी यही पृथ्वी है। मुद मोद प्रमोद और आनंद का क्षेत्र भी पृथ्वी है। हम सबकी काया पृथ्वी से बनती है। 5 महाभूतों में पृथ्वी ही हमारा आधार है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में अथर्वा स्वभाविक ही पृथ्वी माता के गुण गाते हैं। भूमि माता है। सभी जीवों का आधार है। यह सबको संरक्षण देती है। इसलिए इसका संरक्षण सबका दायित्व है। भूमि सूक्त (12.1) में कहते है, “अविचल निष्ठा, यथार्थ बोध, कर्म कुशलता, तेजतप और ज्ञान आदि पृथ्वी के पोषक है। अब तक जो जीव प्राणी हो चुके है और जो भविष्य में होंगे – सा नो भूतस्य भव्यस्य यह सबका संरक्षण करने वाली माता भूमि हमे स्थान दे।” भूत और भविष्य की काल धारणा ऋग्वेद के पुरूष सूक्त का स्मरण कराती है – पुरूष एवमेदं सर्वं यद् भूतं भव्यं च। पृथ्वी की अनुकम्पा और धारक शक्ति में काल अखण्ड इकाई है। भूत और भविष्य एक ही निरंतरता में है।
पृथ्वी पर अनेक प्राणी है, भिन्न-भिन्न वनपतियां व जीव-जंतु हैं। मनुष्य भी गुण, इच्छा व कर्म के कारण भिन्न-भिन्न है। ऋषि कवि की अभिलाषा है कि भिन्नता के बावजूद सब एक होकर इसी पृथ्वी पर रहते हैं, यह पृथ्वी तमाम औषधियां धारण करती है, यह पृथ्वी हमारी कामना पूरी करे और यशवृद्धि करे। (वही 2) ऋषि पृथ्वी को ध्यान से देखता है। पृथ्वी पर अनेक रूप हैं। जल जीवन है। जलों के भी तमाम रूप हैं। फल, अन्न, शाक हैं। वह इन्हें भी ध्यान से देखते हैं। कहते हैं, “इस भूमि पर समुद्र, महा समुद्र हैं, नदियां हैं, झीले हैं, कूप हैं, अन्न फल आदि हैं। इससे सभी प्राणी सुखी हैं। कृषक कृषि करते हैं, शिल्पी संगठित शिल्पकर्म करते हैं। यह हमारी पृथ्वी हमें श्रेष्ठ भोजन व ऐश्वर्य दे।” (वही 3) अथर्ववेद के रचनाकाल में कृषि कर्म का विकास हो चुका है, शिल्पी भी है। यह काल ऋग्वेद का परवर्ती हैं। तब मनुष्य अपने कर्म फल के लिए किसी अज्ञात शक्ति पर निर्भर नहीं है। उसे अपने कर्म फल व भूमि की पोषण शक्ति पर विश्वास है।
भूमि पर तप कर्म करने का सुदीर्घ इतिहास है। अथर्वा इस इतिहास से परिचित है। लेकिन उन्हें लोकहित में किए गऐ कर्म व युद्धों के प्रति ज्यादा लगाव है। कहते है “इस पृथ्वी पर पूर्वजों ने अनेक पराक्रम किये हैं। सत्य के पक्ष में युद्ध भी किये हैं। यहां गाय और अश्व रहते हैं। पशु-पक्षी इसी पृथ्वी पर आश्रय पाते हैं। ऐसी पृथ्वी हमारे ज्ञान-विज्ञान व ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाली है।” (वही 5) मंत्र में जोर पृथ्वी के खूबसूरत हो जाने पर है। अश्व और गाय ऋग्वैदिक समाज में उल्लेखनीय रहे हैं। अथर्ववेद में भी उनकी प्रतिष्ठा है। आलस्य व अज्ञान आदि की लत दुर्गुण है। इन दुर्गुणों से मुक्ति श्रेयस्कर है। कहते हैं कि इन दुर्गुणों से रहित देवगण इस भूमि की रक्षा प्रमादरहित करते हैं। यह भूमि ज्ञान व ऐश्वर्य दे। (वही 7) यहां भूमि के रक्षक देव हैं। दुर्गुणविहीन देव ही पृथ्वी की रक्षा करते हैं। दुर्गुणविहीन देव वस्तुतः मनुष्य ही हैं। भूमि अखण्ड है। भूमि का राष्ट्र-राज्यों में विभाजन मनुष्यकृत है। वैदिक पूर्वज पृथ्वी, आकाश को समग्रता में देखते हैं लेकिन अथर्वा के सामने सरस्वती सिंधु की भूमि है। यहां संन्यासी रहते हैं। उपदेश देते हैं। अथर्वा कहते हैं, “इस पृथ्वी पर सब तरफ परिव्राजक विचरण करते हैं। वे जल की तरह शीतल उपदेश देते हैं, ज्ञान देते हैं। यह भूमि अन्न, जल, दूध देती है। यह पृथ्वी हमारी तेजस्विता बढ़ाए।” (वही 9) इस सूक्त में अन्न, दूध, फल आदि की इच्छा का दोहराव है। मांस का उल्लेख कहीं नहीं। वैदिकजन अपने प्रिय खाद्य में अन्न, दूध व फल को ही महत्व देते थे। एक मंत्र (वही 16) में कहते हैं “सूर्य की किरणें हमारे लिए प्रजा व वाणी का संग्रह करे। पृथ्वी हम सबको मधुर पदार्थ व मधुवाणी दे-मधु पृथिवि होहि मह्यम्।”
ऋग्वेद के ऋषि धरती को माता व आकाश को पिता कहते हैं। इसी परंपरा में अथर्वा स्वयं को पुत्र व भूमि को माता कहते हैं, “माता भूमिः पुत्रो अहम् पृथिव्याः।” (वही 12) ऋग्वेद में पिता आकाश है। अथर्ववेद में पिता पर्जन्य है। पर्जन्य आकाश में व्याप्त जलवायु चक्र हैं। आधुनिक विज्ञान की भाषा में ईकोलोजिकल साइकिल है। पर्जन्य से वर्षा है। वर्षा के सेचन से माता पृथ्वी आनंदित होती है। अन्न, जल, फल आदि पर्जन्य व पृथ्वी का ही प्रसाद हैं।
प्रकृति के 5 महाभूतों में पृथ्वी सर्वाधिक स्थूल है। सूक्ष्मतम आकाश का गुण शब्द है। वायु का गुण स्पर्श है। अग्नि का गुण ताप है। जल का गुण रस है। पृथ्वी का गुण गंध है। पृथ्वी सगंधा है। पृथ्वी से उत्पन्न सभी प्राणियों में गंध है। अथर्वा कहते है “हे भूमि आपके भीतर गंध भरी हुई है। यह औषधियों वनस्पतियों में प्रकट होती हैं। इस गंध को अप्सराएं व गंधर्व धारण करते है। देव भी गंध प्रिय हैं। हे भूमि! आप हमे उसी गंध से आपूरित करें। हम किसी से द्वैष न करें। हम सब प्रेमभाव से रहें।” (वही 23) पृथ्वी की गंध सभी जीवों में है। अथर्वा गाते है “यस्ते गंधः पुरूषेषु स्त्रीषु पुंसु-जो गंध पुरूषों स्त्रियों, चारो पैरों वाले प्राणियों में है, वही गंध हमको भी आपूरित करे। हमसे कोई द्वैष न करे।” (वही 25) अथर्ववेद का भूमि सूक्त गंधमादन है। गंध आपूरित है। अथर्वा इस गंध को सब तरफ पाने के अभिलाषी है। यह प्रार्थना समूची मानव जाति को द्वैषरहित गंधपूर्व बनाने की आकांक्षा है। अथर्वा ऋग्वेद के विवाह सूक्त का स्मरण करते हैं। यह सूक्त सूर्य पुत्री सूर्या के विवाह से सम्बंधित है। अथर्वा कहते हैं, “हे भूमि आपकी गंध कमल में प्रकट हुई है। इसी गंध को सूर्या के विवाह के समय वायुदेव ने धारण किया था। आप हमे उसी गंध से भरें। संसार में परस्पर द्वैषभाव न रहे।” (वही 24) ऋग्वेद के ऋषि प्रकृति को मधु आपूरित बनाने के मंत्र गा गए हैं। अथर्वा ने भी मधु अभिलाषा वाले मंत्र गाए हैं लेकिन भूमि सूक्त में वे सुगंध अभिलाषी हैं। द्वैषरहित समाज के लिए वातायन में प्रेम गंध का आपूरण अनिवार्य है भी।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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