1950 से लेकर 2024 तक स्त्री-यात्रा
देह की आजादी नहीं स्त्री विमर्श
–नासिरा शर्मा
गुज़री सदी के अंतिम पांच दशकों ने यह साबित कर दिखाया था कि भारत की आधी आबादी ने अपनी उपस्थिति जीवन के हर कार्यक्षेत्र में दजऱ् कराके अपना लोहा मनवा लिया था। साहित्य में पुरुषों की तुलना में उनकी संख्या कम नहीं थी मगर अवसर न मिलने या उपेक्षा के कारण वह या तो नज़र नहीं आती थीं या फिर बैकबेंचर बन कर रह गई थीं। उन पर रोशनी तभी पड़ती थी जब किसी सम्पादक को महिला विशेषांक निकालना होता था या फिर कोई खुले दिल व दिमा़ग का साहित्यकार वास्तव में महिला लेखकों को गम्भीरता से लेता और उनको सम्मान से छापता व देखता था। अन्य कई और कारण थे जिससे लेखिकाएं पुरुष आलोचकों, सम्पादकों व प्रकाशकों की ओर हसरत भरी नज़रों से देखती थीं कि वह उनके लेखन का सही मूल्यांकन करें। यहां पर मैं अपवाद की बात नहीं कर रही हूं बल्कि उस परिवेश व मानसिकता कि तऱफ इशारा कर रही हूं जिससे 90 प्रतिशत से ज़्यादा औरतें जूझ रही थीं। उनकी लगन, मेहनत और निष्ठा ने उनको आज उस ज़मीन तक पहुंचाया जिस पर वह पूरे विश्वास से खड़ी हुईं।
इसी बीच 90 के दशक में राजेंद्र यादव जी ने स्त्री विमर्श की घोषणा ‘हंस’ पत्रिका के मंच से कर दी और शुरुआत हुई स्त्री लेखन में एक आंदोलन की, जिसमें ज़्यादातर शामिल हुए नई पीढ़ी के लेखक व लेखिकाएं। स्त्रियां मुखर हुईं और लेखन में एक बाढ़-सी आ गई और फिर संतुलन बिगड़ गया। स्त्री विमर्श सिमट कर पुरुष विरोधी हो उठा और देह की आज़ादी का अर्थ फ्री-सेक्स हो गया। ‘कहो आम समझे इमली’ वाली कहावत चल पड़ी। जो बहुत से गम्भीर लेखकों को पसंद नहीं आई। पुरानी सदी के गुज़रने और नई सदी में कदम रखते ही मुझे महसूस हुआ कि स्त्री विमर्श के बैनर तले जो लेखन हुआ है वह तीन तरह से हुआ है पहला बेहद गम्भीर जो नारे के नहीं बल्कि यथार्थ के रूप में पहले से अधिक गहराई और शोध के रूप में नए से नए विषय को लेकर निकला दूसरा व्यक्तिगत कुंठा अर्थात मर्दविरोधी, एकतऱफा सियापा। तीसरा शार्टकट इंट्री जिसमें संघर्ष की अवधि कम और फोकस तुरंत मिले। तब एक खतरा ज़हन में उभरा कि यदि यही हाल रहा तो हिंदी साहित्य में कहीं इंसान के नाम पर मर्द नज़र ही न आएं और खराब मर्दों के चित्रण का अम्बार न लग जाए तब मुझे सोचना पड़ा कि इस सैलाब को रोका कैसे जाए?
पिछली सदी में मेरे दो उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ व ‘शाल्मली’ आ चुके थे, वह मेरी सोच का सिलसिला था। पहले औरत का एक घर और होता है जो पिता व पति से हटकर उसकी मेहनत और पहचान का होता है, दूसरे विवाह के बाद पति पत्नी के बीच बराबरी व इंसानी व्यवहार का पालन। मुझे पूरे तीन और यानी कुल पांच उपन्यास लिखने थे। उस इरादे को बीच में छोड़कर मैंने चार उपन्यास 2003 से लेकर 2020 तक पुरुष प्रधान लिखे जिस में ज़हीर, (अक्षयवट) डाक्टर कमाल (कुइयांजान) सिद्धार्थ (ज़ीरो रोड) और रोहनदत्त (पारिजात) जैसे चरित्र उठाए थे। बार-बार यह बात दोहराती रही कि जो स्त्रियां एक मु़काम तक पहुंच चुकी हैं, वह अब बैलेंस लाना शुरू करें ताकि मर्दों पर बात हो। उनके बदलने से औरत को राहत मिलेगी वरना विलाप चलता रहेगा। इस बीस वर्षों में साहित्य में औरतों का योगदान महत्वपूर्ण रहा, इसके बावजूद मुझे महसूस होता रहा कि इन वर्षों में स्त्री-विमर्श बीच में अटक कर रह गया है जो न अब तक नया आकाश रच पाया न ही बुनियाद जमा पाया, केवल मैन-वूमन पर पूरी उर्जा डाल, ठहर-सा गया है।
आज कुछ लेखिकाएं और अध्यापिकाओं ने अपनी लगन और शोध से इस कमी को पूरा किया है, जिनसे हमारी उन जड़ों का पता चलता है कि वह कितनी गहरी हैं जिनका काम किसी भी तरह से पुरुषों से कम नहीं आंका जा सकता है। यह शक्ति व जागरूकता है, उन खुददार व खुद-मुख़्तार स्त्रियों की जो अपने बल-बूते पर नये आकाश का निर्माण आने वाले दशकों में बेहतर ढंग से बेहतर कर पायेंगी। रहा जीवन के दूसरे कार्यक्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का तो वह बहुत से मामलों में बहुत आगे जा चुकी हैं सारे दबाव, तनाव और रुकावटों के बावजूद। चूंकि वह आज़ादी का मज़ा चख चुकी हैं, इसलिए उन्हें अब पीछे धकेलना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है।