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स्मृतियों के झरोखों से मोती लाल नेहरू

नितिन कुमार गौतम
काशीपुर, उत्तराखंड

जन्म दिवस पर विशेष स्मरण

स्तम्भ: देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पिता और स्वतंत्रता सेनानी मोतीलाल नेहरू का जन्म आज के ही दिन 6 मई, 1861 को आगरा में हुआ था। वह आजादी के पहले देश में सबसे बुद्धिमान वकीलों में से एक के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने कैम्ब्र‍िज यूनिवर्सिटी से ‘बार ऐट लॉ’ किया और कानपुर में एक लॉयर के तौर पर प्रैक्ट‍िस भी किया। बाद में वो इलाहाबाद चले गए।

वर्ष 1900 में इलाहाबाद के सिविल लाइन्स में उन्होंने एक विशाल हवेली खरीदी, जिसका नाम उन्होंने आनंद भवन रखा। बाद में इस भवन को इंदिरा गांधी ने भारतीय सरकार को सौंप दिया था, जिसमें संग्रहालय खोला गया। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए। 1919 से 1920 और 1928 से 1929 के दौरान मोती लाल नेहरू दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। 1920 में कलकत्ता के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के दौरान वो पहली पंक्त‍ि के नेता थे, जिन्होंने असहयोग आंदोलन को अपना समर्थन दिया था।

1923 के स्वराज्य पार्टी के गठन के सूत्रधार थे मोती लाल नेहरू :

महात्मा गांधी की नीतियों से असंतुष्ट होकर देशबंधु चितरंजन दास और पंडित मोतीलाल नेहरू ने एक स्वराज्य दल का गठन इलाहाबाद में 1923 में किया।  स्वराज पार्टी की स्थापना का मुख्य उद्देश्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक सुधारवादी सोच वाले वर्ग को विधान सभाओं में प्रवेश करके सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करना, उसके दोषों को उजागर करना था। यह दल विधान परिषदों में भाग लेने में विश्वास करता था।

उनकी योजना यह थी की विधान परिषद के कार्य में आंतरिक रुप से रुकावट डाली जाए। बजट और विधेयक को पारित ना होने देना भी इसका प्रमुख लक्ष्य था।  1923 के चुनाव में स्वराज्य दल को मध्य प्रांत और बंगाल में पूर्ण बहुमत मिल गया। इसके अतिरिक्त असहयोग आंदोलन प्रारंभ होने से पूर्व विधान परिषदों का बहिष्कार करने का निर्णय लिया गया था। लेकिन असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद कांग्रेस के सामने हैं प्रश्न यह था कि 1919 के एक्ट द्वारा घोषित विधान परिषद के चुनाव में भाग लिया जाए अथवा नहीं।

चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू और विट्ठल भाई ने इन सभाओं में प्रवेश कर असहयोग करने की बात रखी थी। परिषदों के चुनाव में हिस्सा लेने के पक्ष में जो लोग थे वे लोग परिवर्तनवादी कहलाए परन्तु डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद , राजगोपालाचारी, वल्लभभाई पटेल, डॉक्टर अंसारी, एन जी रंगा, आयंगर चक्रवर्ती आदि नेताओं ने परिषदों में प्रवेश करने की नीति का विरोध किया। यह लोग परिषद के चुनाव का बहिष्कार करना चाहते थे यह लोग अपरिवर्तनवादी कहलाये।

दिसंबर 1922 में चितरंजन दास की अध्यक्षता में गया में अधिवेशन हुआ इस अधिवेशन में परिषद में प्रवेश न लेने का प्रस्ताव पारित हुआ जिसके कारण चितरंजन दास ने त्याग पत्र दे दिया लेकिन परिवर्तनवादियों ने हार नहीं मानी । फलस्वरुप इस प्रस्ताव (परिषद में जाने के प्रस्ताव)के समर्थकों ने मार्च 1923 में इलाहाबाद में अपने समर्थकों का अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाया और एक नई राजनीतिक पार्टी स्वराज्य पार्टी की स्थापना की। यह पार्टी कांग्रेस खिलाफत स्वराज्य पार्टी कहलाई। इस पार्टी में तय किया गया कि नई पार्टी कांग्रेस के अंदर ही चुनाव लड़ेगी। इस स्वराज्य पार्टी के अध्यक्ष सी आर दास और महासचिव मोतीलाल नेहरु थे।

परिवर्तनवादियों और स्वराज वादियों में बढ़ती हुई कटुता को दूर करने के लिए सितंबर 1923 में मौलाना अब्दुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में दिल्ली में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन बुलाया गया था। इस अधिवेशन में स्वराज पार्टी को परिषदों का चुनाव लड़ने की अनुमति कांग्रेस ने दे दी थी 1924 में गांधी जी का स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्हें सजा पूर्ण करने से पूर्व भी जेल से छोड़ दिया गया था,महात्मा गांधी जी ने स्वराज पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम का समर्थन किया और स्वराजवादियो ने उनके रचनात्मक कार्यों का।

नेहरू प्रतिवेदन के लिए खास तौर पर जाने गए मोती लाल नेहरू :

वर्ष 1928 में मोती लाल नेहरू ने जिस रिपोर्ट को तैयार किया वो नेहरू प्रतिवेदन के नाम से जाना जाता है। इसे किसी भी भारतीय का पहला लिखित संविधान माना जाता है। इस रिपोर्ट में भारत को आजाद देश के रूप में देखने की अवधारणा दी गई थी। गौरतलब है कि 1928 में तत्कालीन भारत सचिव लार्ड बर्केन्हेड ने भारतीयों को ऐसे संविधान के निर्माण के लिए चुनौती दी जो सभी राजनीतिक दलों और गुटों को मान्य हो। इस चुनौती को स्वीकार कर फरवरी एवं मई 1928 में, देश के विभिन्न विचारधाराओं के नेताओं का एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया। यह सम्मेलन पहले दिल्ली फिर पुणे में आयोजित किया गया।

इस सम्मेलन में भारतीय संविधान का मसविदा तैयार करने हेतु मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक उप-समिति का गठन किया गया। अली इमाम, सुभाष हंड्र बोस एम.एस.एनी, मंगल सिंह, शोएब कुरैशी, जी.आई. प्रधान तथा तेजबहादुर सप्रू उप-समिति के अन्य सदस्य थे। देश के संविधान का प्रारूप तैयार करने की दिशा में भारतीयों का यह पहला बड़ा कदम था। अगस्त 1928 में इस उप-समिति ने अपनी प्रसिद्ध रिपोर्ट पेश की, जिसे नेहरु रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। इस रिपोर्ट की सभी संस्तुतियों को एकमत से स्वीकार कर लिया गया। रिपोर्ट में भारत को डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा दिये जाने की मांग पर बहुमत था लेकिन राष्ट्रवादियों के एक वर्ग को इस पर आपत्ति थी। वह डोमिनियन स्टेट्स के स्थान पर पूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन कर रहा था। लखनऊ में डा. अंसारी की अध्यक्षता में पुनः सर्वदलीय सम्मेलन हुआ, जिसमें नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया।

नेहरू रिपोर्ट की मुख्य सिफारिशें:

इसमें भारत को पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य/ अधिराज्य (डोमिनियन स्टेटस) का दर्जा देने तथा उसका स्थान ब्रिटिश शासन के अधीन अन्य उपनिवेशों के समान ही करने की सिफारिश की गई। नेहरू प्रतिवेदन में सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली (कम्युनल इलेक्टोरेट) को समाप्त कर देने की सिफारिश की गई जो कि अब तक के संवैधानिक सुधारों का आधार था; और इसके स्थान पर संयुक्त निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था करने पर बल दिया गया ;

  • केंद्र एवं उन राज्यों में जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हों, उनके हितों की रक्षा के लिये कुछ स्थानों को आरक्षित कर दिए जाने की सिफारिश की गई। (लेकिन साथ ही यह भी कहा गया कि यह व्यवस्था उन प्रांतों में नहीं लागू की जाये जहां मुसलमान बहुसंख्यक हों जैसे-पंजाब एवं बंगाल)।
  • भाषायी आधार पर प्रांतों का गठन।
  • संघ बनाने की स्वतंत्रता तथा वयस्क मताधिकार जैसी मांगें सम्मिलित थीं।
  • केंद्र तथा राज्यों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाये।
  • केंद्र में भारतीय संसद या व्यवस्थापिका के दो सदन हों- निम्न सदन (हाउस आफ रिप्रेजेंटेटिव) की सदस्य संख्या 500 हो; इसके सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति से हो।
  • उच्च सदन (सीनेट) की सदस्य संख्या 200 हों; इसके सदस्यों का निर्वाचन परोक्ष पद्धति से प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं द्वारा किया जाये। निम्न सदन का कार्यकाल पांच वर्ष तथा उच्च सदन का कार्यकाल सात वर्ष हो।
  • केंद्र सरकार का प्रमुख गवर्नर-जनरल हो, जिसकी नियुक्ति ब्रिटिश सरकार द्वारा की जायेगी; गवर्नर-जनरल, केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद की सलाह पर कार्य करेगा, जो कि केंद्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होगी।
  • प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं का कार्यकाल पांच वर्ष होगा। इनका प्रमुख गवर्नर होगा, जो प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद की सलाह पर कार्य करेगा।
  • मुसलमानों के धार्मिक एवं सांस्कृतिक हितों को पूर्ण संरक्षण।
  • पूर्णधर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना, राजनीति से धर्म का प्रथक्करण।
  • कार्यपालिका को विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बनाया जाये।
  • केंद्र और प्रांतों में संघीय आधार पर शक्तियों का विभाजन किया जाये किन्तु अवशिष्ट शक्तियां केंद्र को दी जायें।
  • सिन्ध को बम्बई से पृथक कर एक पृथक प्रांत बनाया जाये।
  • उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत की ब्रिटिश भारत के अन्य प्रांतों के समान वैधानिक स्तर प्रदान किया जाये।
  • देशी राज्यों के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को सुनिश्चित किया जाये। उत्तरदायी शासन की स्थापना के पश्चात ही किसी राज्य की संघ में सम्मिलित किया जाए।
  • भारत में एक प्रतिरक्षा समिति, उच्चतम न्यायालय तथा लोक सेवा आयोग की स्थापना की जाये।

मुस्लिम एवं हिन्दू साम्प्रदायिक प्रतिक्रियाः नेहरू रिपोर्ट के रूप में देश के उपलब्धि थी। यद्यपि प्रारंभिक अवसर पर रिपोर्ट के संबंध में उन्होंने प्रशंसनीय एकता प्रदर्शित की किन्तु सांप्रदायिक निर्वाचन के मुद्दे को लेकर धीरे-धीरे अनेक विवाद उभरने लगे।

प्रारंभ में दिसम्बर 1927 में मुस्लिम लीग के दिल्ली अधिवेशन में अनेक प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने भाग लिया तथा एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में सम्मिलित 4 मांगों को उन्होंने संविधान के प्रस्तावित मसौदे में सम्मिलित किए जाने की मांग की। दिसम्बर 1927 के कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में इन मांगों को स्वीकार कर लिया गया तथा इसे दिल्ली प्रस्ताव की संज्ञा दी गयी। ये चार मांगें इस प्रकार थीं-

  • पृथक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कर संयुक्त निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था की जाये, जिसमें कुछ सीटें मुसलमानों के लिये आरक्षित की जायें।
  • केंद्रीय विधान मंडल में मुसलमानों के लिये एक-तिहाई स्थान आरक्षित किये जायें।
  • पंजाब और बंगाल के विधान मंडलों में जनसंख्या के अनुपात में मुसलमानों के लिये स्थान आरक्षित किये जायें।
  • सिंध, बलूचिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी सीमांत नामक 3 मुस्लिम बहुल प्रान्तों का गठन किया जाये।

यद्यपि हिन्दू मह्रासभा ने तीन मुस्लिम बहुल प्रांतों के गठन तथा पंजाब एवं बंगाल जैसे मुस्लिम बहुत प्रांतों में मुसलमानों के लिये सीटें आरक्षित किये जाने के प्रस्ताव का तीव्र विरोध किया। मह्रासभा का मानना था कि इस व्यवस्था से इन प्रांतों की व्यवस्थापिकाओं में मुसलमानों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो जायेगा। उसने सभी के लिये समान व्यवस्था किये जाने की मांग भी की। किंतु हिन्दू मह्रासभा के इस रवैये से यह मुद्दा अत्यंत जटिल हो गया। दूसरी ओर मुस्लिम लीग, प्रांतीय तथा मुस्लिम बहुल प्रांतों में मुसलमानों के लिये सीटों के आरक्षण के मुद्दे पर अड़ी हुई थी। इस प्रकार दोनों पक्षों के अड़ियल रवैये के कारण मोतीलाल नेहरू तथा रिपोर्ट से जुड़े अन्य नेता असमंजस में पड़ गये। उन्होंने महसूस किया कि यदि मुस्लिम साम्प्रदायवादियों की मांगे मान ली गयीं तो हिन्दू साम्प्रदायवादी अपना समर्थन वापस ले लेंगे तथा यदि हिन्दुओं की मांगे मान ली गयीं तो मुसलमान इस प्रस्ताव से अपने को पृथक कर लेंगे।

बाद में नेहरू रिपोर्ट में एक समझौतावादी रास्ता अपना कर निम्न प्रावधान किये गये-

  • सीटें उन्हीं स्थानों पर आरक्षित की जायेंगी जहां वे अल्पमत में है।
  • डोमिनियन स्टेट्स की प्राप्ति के बाद ही सिंध को बम्बई से पृथक किया जायेगा।
  • एक सर्वसम्मत राजनीतिक प्रस्ताव तैयार किया जायेगा।

(सामाजिक और ऐतिहासिक मुद्दों के जानकार)

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