दस्तक-विशेष

कांग्रेस का क्षरण जनता पार्टी की राह पर

दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह-शाह आलम के संदर्भ में एक कहावत प्रचलित है- ‘शाह आलम लाल किले से पालम’, लेकिन वे कहलाते थे हिन्दू स्थान के शाहे-शाह। सोनिया गांधी की मान्यता कांग्रेस चाहे जो स्थापित करने में लगी रहे, उनका अस्तित्व कुछ शाह आलम के समान ही होता जा रहा है।

Captureयह घटना 1977 की है। नई दिल्ली के प्रगति मैदान के एक मंडप में विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपना अस्तित्व खत्म कर जनता पार्टी का गठन किया था। चन्द्रशेखर उस नवगठित जनता पार्टी के अध्यक्ष चुने गये थे। एक दिन पूर्व मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके थे। प्रधानमंत्री पद के दो और दावेदार थे, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम। वरिष्ठता और चरण सिंह के खुले समर्थन के कारण जयप्रकाश नारायण ने भी मोरार जी देसाई का पक्ष लिया था। जगजीवन राम के समर्थक इससे कुपित थे। इन कुपित लोगों में चंद्रशेखर के अभिन्न मित्र रामधन भी थे जिन्होंने पार्टी से त्यागपत्र देने की धमकी सार्वजनिक तौर पर दे डाली थी। प्रगति मैदान से आकर अपने साउथ एवेन्यु आवास पर बैठे थे। वे कुछ खिन्न थे। हम चार-पांच पत्रकार भी उनके साथ थे। इस बीच रामधन का फोन आया और दोनों के बीच काफी तल्ख संवाद हुए। वहां बैठे लोगों में खुसुर-फुसुर चल रहा था कि चन्द्रशेखर के अत्यधिक नजदीकी और उनकी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ का संपादन कर रहे सिद्दीक अहमद सिद्दीक ने कहा- नेताजी (चन्द्रशेखर के लिए यही संबोधन था) आप क्यों चिंतित हैं आप तो पार्टी के अध्यक्ष हो ही गये हैं और तब तक बने रहेंगे जब तक पार्टी निगम बोध घाट (श्मशान) न पहुंच जाये। खिन्न चन्द्रशेखर ने उन्हें ‘बेहूदी बात’ करने पर झिड़की दी। सब चुप हो गये। लेकिन इतिहास गवाह है कि 1977 से लेकर 1988 तक कई बार बिखरित होने के बावजूद चन्द्रशेखर जनता पार्टी का अस्तित्व रहने तक उसके अध्यक्ष बने रहे। इस बीच कौन-कौन किन-किन कारणों से जनता पार्टी छोड़ता गया उसकी कथा बहुत विस्तृत है। मेरा इरादा उसके विस्तार में जाने का नहीं है। लेकिन यह बताना शायद उचित होगा कि 1979 में चौधरी चरण सिंह लोकदल और 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जनसंघ-जनता पार्टी से अलग हुआ था।
चन्द्रशेखर जनता पार्टी के प्रथम और अंतिम क्षण तक अध्यक्ष बने रहे, भले ही उसका क्षरण होता रहा। कुछ वर्षों तक सुब्रह्मण्यम स्वामी ने अवश्य जनता पार्टी का नाम जीवित रखा लेकिन वह बस नाम भर की पार्टी थी। अब वह भी नहीं रह गयी है।
मुझे जनता पार्टी के उदय से अंत तक का इतिहास और सिद्दीकी की भविष्यवाणी का एकाएक स्मरण यह समाचार सुनकर आया कि कांग्रेस ने संगठनात्मक चुनाव टाल दिया है और सोनिया गांधी का अध्यक्षीय कार्यकाल एक वर्ष के लिए और बढ़ गया है। सोनिया गांधी 1997 में कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गयी थी। इस प्रकार फिलहाल उनके कार्यकाल का अट्ठारहवां वर्ष चल रहा है। उनकी अध्यक्षता मताधिकार की उम्र में आ गयी है। देश की सबसे पुरानी और अधिकतम वर्षों तक सत्ता में रहने वाली इस पार्टी में कोई व्यक्ति इतने वर्षों तक अध्यक्ष पद पर नहीं रहा है। कांग्रेस के संस्थापक ह्यूम भी ग्यारह वर्ष तक अध्यक्ष रहे। सोनिया गांधी ने उनका रिकार्ड तो कबका तोड़ दिया था। अब वे नया रिकार्ड भी बना चुकी हैं। इस अवधि में कांग्रेस में कोई टूट-फूट भी नहीं हुई, सिवाय शरद पवार के जो बाद में शरणागत हो गये। यहां तक कि नरसिंह राव के नेतृत्व के समय जो लोग तिवारी कांग्रेस के नाम से अलग खड़े हो गये थे वे सभी नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह आदि फिर से पार्टी में लौट आये। ममता बनर्जी अवश्य अलग हुईं, लेकिन साथ-साथ खड़ी भी रहीं। जहां जनता पार्टी चन्द्रशेखर का ग्यारह वर्ष की अध्यक्षता में टूटती ही रही, कांग्रेस सोनिया गांधी के नेतृत्व में एक होती रही। फिर भी कांग्रेस की ताकत घटती रही और 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल 44 सीटें जीतकर उसने न्यूनतम होने का रिकार्ड बनाया है। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहते हुए भी जिस रायबरेली से चुनाव हार गयी थीं, सोनिया गांधी उस पर कब्जा बनाये रखने में सफल अवश्य रहीं। घोर जनविरोध के बावजूद 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्र्रेस को डेढ़ सौ से अधिक सीटें मिली थीं और कांग्रेस का विभाजन हो जाने के बाद भी 1980 में इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आ गयी थीं।
सोनिया गांधी के नेतृत्व की एक ही उपलब्धि है लोकसभा में सदस्यों की संख्या घटने के बावजूद मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस वर्ष तक यूपीए सरकार पर नियंत्रण। इस नियंत्रण का परिणाम कांग्रेस के लिए कैसा रहा यह 2014 के लोकसभा और उसके बाद होने वाली विधानसभाई चुनाव परिणाम से स्पष्ट है। सोनिया गांधी के 18 वर्ष के कार्यकाल में सत्ता भले एक दशक तक हाथ में रहा हो कांग्रेस का प्रभाव सिमटता ही गया और सिमटता ही जा रहा है। उससे केन्द्र के समान ही अधिकांश राज्यों से भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता छीन ली है। बंगाल, उड़ीसा और तमिलनाडु जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व जनता पार्टी ने सत्ता छीन लिया है। बंगाल, उड़ीसा और तमिलनाडु जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व है। देश के बड़े राज्यों की गिनती में कर्नाटका और असम में ही उसकी सरकार बनी है जिनके नीचे की धरती भी खिसक चुकी है। कुछ छोटे राज्यों जैसे हिमाचल, उत्तराखंड और अरुणाचल में कांग्रेस की सरकार अवश्य है लेकिन वहां के लिए भी प्रश्न पूछा जाने लगा कब तक?
इस अवधि की एक और बड़ी उपलब्धि है स्कैंडल। यूपीए के दस वर्ष का कार्यकाल स्कैंडल के रूप में ही चर्चित है। प्रधानमंत्री तक स्कैंडल के मामले में अदालती निगरानी के दौर से गुजर रहे हैं। सोनिया गांधी, उनके पुत्र राहुल गांधी और दामाद राबर्ट वाड्रा के खिलाफ भी मामला अदालत में पहुंच चुका है, लेकिन सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह-शाह आलम के संदर्भ में एक कहावत प्रचलित है- ‘शाह आलम लाल किले से पालम’, लेकिन वे कहलाते थे हिन्दू स्थान के शाहे-शाह। सोनिया गांधी की मान्यता कांग्रेस चाहे जो स्थापित करने में लगी रहे, उनका अस्तित्व कुछ शाह आलम के समान ही होता जा रहा है।
कांग्रेस पिछले कई वर्षों से राहुल गांधी को ‘महत्वपूर्ण’ जिम्मेदारी सौंपने की अफवाहें फैलाती रहती है। पिछले दिनों तो ऐसा आभास दिया जाने लगा था जैसे सोनिया गांधी, राहुल को सब कुछ सौंपकर संन्यास ले लेंगी। राहुल को ‘कांग्रेसियों की मांग पर’ पहले पार्टी का प्रधानमंत्री बनाया गया, उसके बाद और अधिक जिम्मेवारी की मुहिम चलवाकर उपाध्यक्ष। अब जबकि सोनिया गांधी का कार्यकाल एक वर्ष के लिए और बढ़ गया है, जो आगे कब तक बढ़ता रहेगा कहना कठिन है- तो यह कहा जा रहा है कि सोनिया गांधी के परिपक्व नेतृत्व में राहुल गांधी कांग्रेस को संगठनात्मक मजबूती प्रदान करेंगे। यह किसी से छिपा नहीं है कि कांग्रेस में वही होता है जो मां और बेटे चाहते हैं। बाकी सब गौड़ हैं। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते हुए भी यदि गौड़ थे ऐसे में यदि कांग्रेस का मतलब सोनिया गांधी और राहुल गांधी समझा जाये तो गलत नहीं होगा। राहुल गांधी को और जिम्मेदारी सौंपने की चर्चाओं का दौर चलते रहने के बावजूद सोनिया गांधी का आवरण बनाये रखना शायद इसलिए आवश्यक हो गया है क्योंकि जब से राहुल गांधी ने चुनाव अभियान की कमान संभाली है तब से उसे पराजय का ही सामना करना पड़ रहा है। अब बिहार के चुनाव सिर पर हैं और 2017 में कई विधानसभाओं के भी चुनाव हैं जिनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है। जहां भी चुनाव प्रस्तावित हैं, कांग्रेस की दयनीय स्थिति है। पंजाब में उसकी स्थिति अकाली दल की धूमिल छवि के कारण मजबूत अवश्य है, लेकिन वहां के मजबूत कांगे्रस नेता कैप्टन अमरेन्द्र सिंह क्षेत्रीय दल बनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। कर्नाटका में खींचतान से हालात बिगड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात जहां भाजपा ने उसे ध्वस्त कर दिया है। इतना वैमनस्य है कि सभी कांग्रेसी एक मंच पर आने के लिए भी तैयार नहीं होते।
जहां तक देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का सवाल है तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने रायबरेली और अमेठी से बाहर एक भी कदम नहीं रखा है। उन्होंने इस प्रदेश के कांग्रेसियों के साथ एक बार भी सामूहिक समागम भी नहीं किया। इसलिए राहुल को ‘बदनाम’ होने से बचाने की जुगत में सोनिया गांधी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी अनिश्चित काल तक संभाले रह सकती हैं और सोनिया गांधी में ही अपना भविष्य देखने वाले कांग्रेसी एक के बाद एक किला ध्वस्त होते देखते रहने की विवशता की जकड़न से बाहर निकलने की मानसिकता विहीनता से ग्रस्त रह सकते हैं।
सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर किसी ने व्यंग्यपूर्वक कहा था कि जिस संस्था की स्थापना एक विदेशी मूल के व्यक्ति ने किया है, उसका विसर्जन भी विदेशी मूल के व्यक्ति द्वारा होना सुनिश्चित है। यह कथन वैसा ही हास परिहास के लिए हो सकता है जिस भावना से सिद्दीकी ने जनता पार्टी के संदर्भ में चन्द्रशेखर से कहा था, लेकिन ज्यों-ज्यों सोनिया गांधी के अध्यक्षीय कार्यकाल का विस्तार होता जा रहा है कांग्रेस सिमटती जा रही है। लाल किले से पालम तक की कहावत बार-बार सुनने को मिल रही है। तो क्या यह समझा जाय कि कांग्रेस के विसर्जन का समय निकट आता जा रहा है। कुछ पुराने कांग्रेसी व्यंग्यपूर्वक कहते सुने जाते हैं कि महात्मा गांधी की सच्ची अनुगामी सोनिया गांधी ही हैं। अन्य कांग्रेसियों ने कांग्रेस को विसर्जित करने की गांधी की सलाह नहीं मानी। सोनिया गांधी उस पर अमल कर रही हैं। जनता पार्टी के समान ही कांग्रेस का क्षरण हो रहा है, लेकिन दोनों के क्षरण में एक बड़ा अंतर भी है। जहां जनता पार्टी का क्षरण निरंतर टूटन से हुआ है वही कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के नेतृत्व संभालने के बाद ममता बनर्जी का अपवाद छोड़कर एकजुटता बढ़ी है। उनके और राहुल गांधी के नेतृत्व पर कोई विवाद कांग्रेस में नहीं है। इस एकजुटता के बावजूद यदि कांग्रेस का क्षरण होता जा रहा है तो उसके लिए नेतृत्व को ही दोषी माना जा सकता है।

सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर किसी ने व्यंग्यपूर्वक कहा था कि जिस संस्था की स्थापना एक विदेशी मूल के व्यक्ति ने किया है, उसका विसर्जन भी विदेशी मूल के व्यक्ति द्वारा होना सुनिश्चित है। यह कथन वैसा ही हास परिहास के लिए हो सकता है जिस भावना से सिद्दीकी ने जनता पार्टी के संदर्भ में चन्द्रशेखर से कहा था, लेकिन ज्यों-ज्यों सोनिया गांधी के अध्यक्षीय कार्यकाल का विस्तार होता जा रहा है कांग्रेस सिमटती जा रही है।

सबसे प्यारी अपनी जान

अकबर-बीरबल के संवाद की अनेक कहानियां प्रचलित हैं, उन्हीं में से एक का यहां उल्लेख है। बादशाह अकबर और बीरबल दोनों ही उद्यान में टहल रहे थे। अकबर ने इधर-उधर कूद रही एक बंदरिया की ओर बीरबल का ध्यान आकर्षित किया। बंदरिया अपने बच्चे को चिपकाये हुए थी। उसे दिखाकर अकबर ने पूछा, क्यों बीरबल सबसे प्यारी किसकी जान? बीरबल का उत्तर था- हुजूर अपनी जान। अकबर सहमत नहीं हुए, बोले नहीं। सबसे प्यारी बच्चे की जान। देख नहीं रहे हो किस तरह वह बंदरिया अपने बच्चे का बोझ उठाये हुए कूद रही है। बीरबल सहमत नहीं हुए।
तय हुआ परीक्षा हो जाये। शीशे का एक बड़ा पिजड़ा मंगाया गया और उसमें बंदरिया को बच्चे सहित बंद कर पानी भरना शुरू कर दिया गया। ज्यों-ज्यों पानी ऊपर चढ़ता गया, बंदरिया बच्चे को ऊपर उठाती गयी। पानी जब बंदरिया के गर्दन तक आ गया तो उसने बच्चे को सिर पर बैठा लिया। अकबर ने कहा, देखा बीरबल- अपनी परवाह किये बिना उसने बच्चे को सिर पर बैठा लिया है। मेरी बात सच निकली। बीरबल बोले, हुजूर थोड़ा और प्रतीक्षा कीजिए। पानी ऊपर ही चढ़ता गया। बंदरिया पंजे के बल खड़ी हो गयी। पानी उसके सिर के ऊपर जाने लगा। बंदरिया ने बच्चे को नीचे उतारा और उसके ऊपर खड़ी हो गयी। बीरबल ने कहा, हुजूर अब देखिये। बच्चे की चिंता उसे तब तक थी जब तक अपनी जान पर नहीं आ बनी थी। अपनी जान को खतरा होने पर उसने बच्चे की चिंता छोड़ दी। अकबर ने कहा, बीरबल तुम्हारी बात सही है, सबसे प्यारी अपनी जान।

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