दस्तक-विशेष

टू मिनट मैगी मानसिकता

दस्तक : अनिल यादव
images (3)इस झटपट तैयार होने वाले फास्टफूड की लोकप्रियता और पहुंच का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बच्चे किसी घुंघराले बालों वाले आदमी को मैगी कहने लगे हैं. किसी खाने की चीज का स्वाद और पोषण वगैरा की हदों से बहुत आगे जाकर भाषा में घुसपैठ कर लेना यूं ही नहीं होता. इसी तरह एक दौर में चापलूसी करना पोल्सन लगाना हुआ करता था और हर तरह का वनस्पति घी डालडा था. कहने की जरूरत नहीं कि पोल्सन और डालडा ऐसे ही मशहूर ब्रांड हुआ करते थे।
गरज यह है कि जो मैगी हमारे रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा बन चुकी है उसमें एक सरकारी लैबोरेट्री की जांच में शीशा और मोनोसोडियम ग्लूटामैट (एमएसजी) इतनी मात्रा में पाए गए हैं कि कैंसर और अन्य बीमारियों के कारण बन सकते हैं लिहाजा उस बैच के सभी पैकेटों के वापस लेने के आदेश दिए गए हैं। यह जांच रिपोर्ट आने में एक साल से ज्यादा का समय लगा, जिस अवधि में उस बैच के अधिकांश पैकेट खाए जा चुके हैं और मैगी बनाने वाली कंपनी नेस्ले इंडिया सरकारी जांच को मानने को तैयार नहीं है। इस मामले में अचरज की बात घातक रसायनों का पाया जाना नहीं यूपी के खाद्य महकमें का तत्परता से कार्रवाई करना और एक साल में ही सही रिपोर्ट का आ जाना है। यह चमत्कार है वरना आमतौर पर खाद्य पदार्थों के सैंपल भरे ही नहीं जाते, भरे गए तो मौके ही पर ही मामला रफा दफा हो जाता है, सैंपल लैब भेजा गया तो रास्ते में बदल दिया जाता है, नहीं बदला जा पाया तो जांच रिपोर्ट बदल दी जाती है।
मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार के आपस में मिले हुए हाथों की ओट में जो चीज छिपाई जा रही है वह हृदयविदारक है और हमारे समाज की हालत के बारे में बहुत कुछ कहती है. दूध, घी, तेल, फुलेल, शराब, शर्बत, मिठाई, फल, सब्जियों से लेकर हर खाने पीने की चीज में और इन्हें खाने से होने वाली बीमारियों के इलाज के के लिए दी जाने वाली दवाइयों में खतरनाक रंगो और रसायनों की मिलावट का कारोबार बहुत बड़े पैमाने पर धड़ल्ले से चल रहा है। हमें खबर तब लगती है जब त्योहारों के समय मांग बढ़ जाने के कारण नकली और मिलावटी चीजें बनाने के लिए सीधे सीधे जहरखुरानी की जाने लगती है। मुनाफाखोरों ने कैसी कैसी प्रतिभाओं को काम पर लगा रखा है आप जानेंगे तो दंग रह जाएंगे, वे अपने पुश्तैनी देसी फार्मूलों से पानी में किसी भी खाद्य सामग्री का स्वाद, रंग, गंध यहां तक कि स्पर्श भी पैदा कर सकते हैं।
व्यापार के नाम पर जहरखुरानी करने वाले मुनाफाखोरों को किसी के जीने मरने से नहीं न्यूनतम लागत से कमाए गए अधिकतम रोकड़े से मतलब होता है जिसे ठगी के रोमांच के साथ गिना जाता है। मिलावटखोरी से होने वाली तबाही झेलते उपभोक्ताओं की विशाल संख्या को देखते हुए एक बड़ी कंपनी सहारा इंडिया ने इंडियन क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों को ब्रांड एम्बेस्डर बनाकर क्वालिटी के ठप्पे के साथ शुद्धता को बेचना शुरू किया ही था कि कंपनी आर्थिक कानूनों को झांसा देते पकड़ी गई और इससे कर्मयोगी कर्ताधर्ता जेल चले गए।
यदि प्रचलित अर्थों में किसी जागरूक यानि टीवी पर बहसों में गला साफ करने के अभ्यस्त आदमी से इसका हल पूछा जाए तो वह वगैरह समेत बताएगा कि उपभोक्ता को सचेत किया जाना चाहिए, मिलावट रोकने के कानूनों को सख्त बनाया जाना चाहिए, पर्याप्त संख्या में खाद्य निरीक्षक नियुक्त किए जाने चाहिए, जांच करने वाली आधुनिक लैबोरेट्रीज खोली जानी चाहिए…लेकिन वह नहीं बताएगा कि चाकलेट में घातक रसायन मिलाने वालों और नदियों में जहर घोलने वालों, जंगलों को उजाड़ने वालों, कुदरत का संतुलन बिगाड़ देने वालों में क्या बुनियादी अंतर है? उस बीमारी का क्या इलाज है जिसके कारण पिछले साठ सालों में सरकारों की नाक के नीचे जिम्मेदार महकमों की मिलीभगत से यह मिलावटखोरी लगातार बढ़ते हुए जानलेवा हद तक पहुंच गई है?
जब से मनुष्य को उपभोक्ता (कंपनियों के नियम एवं शर्तों से बंधा ऐसा रोबोट जिसकी जेब में नोट हैं) कहा जाने लगा तब से उत्पादन की क्वालिटी से ज्यादा पैकेजिंग की चमक और दिमाग फेर देने वाली मार्केटिंग महत्वपूर्ण हो गई। इस करिश्में से बहुत कम समय में कानून को झांसा देकर अरबपति बनने वाले, अपराधबोध छिपाने के माहिर चेहरों का जमाना आया। इन्हीं “आज के गौरव-कल के कैदी” रुपया बटोरेने के उस्तादों का अनुकरण करते हुए लालच जो स्कूली बच्चों को किताबों में एक बुराई की तरह पढ़ाया जाता था, समाज में एक मूल्य की तरह स्थापित हुआ है। अब मिलावट करने वाले ही नहीं लगभग हर चलता पुर्जा दो मिनट में (जितना समय मैगी बनने में लगता है) चाहे जिस तिकड़म से बेहद अमीर होना चाहता है। आम उपभोक्ता टाइप लोग इसी जहरीली टू मिनट मैगी मानसिकता की कीमत चुका रहे हैं। ग्

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