दस्तक-विशेषव्यापार

तकरार से इकरार  

सरकार बनाम आरबीआई 

पिछले दिनों सरकार और केन्द्रीय बैंक के बीच 10 मुद्दों पर टकराव रहा, जिसमें 5 ज्यादा अहम थे। इन मद्दों में पहला है- मुख्य ब्याज दर (प्राइम लेंडिंग रेट)। इस मामले पर उर्जित पटेल के नेतृत्व वाली मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने दरों पर फैसला लेने से पहले मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम से मुलाकात करने से मना कर दिया था। इसका मतलब यह हुआ कि आरबीआई प्राइम लेंडिंग रेट के मसले पर सरकार से डिक्टेशन लेना नहीं चाहती थी जबकि सरकार इस पक्ष में थी। यहीं से उर्जित पटेल की उलटी गिनती शुरू हो गयी थी। हालांकि ऐसा लग रहा था कि वे इतने कमजोर साबित नहीं होंगे जो पद छोड़कर भाग जाएं। दूसरा मुद्दा लाभांश भुगतान सम्बंधी है। दरअसल सरकार बजटीय प्रावधान के तहत आरबीआई से 66 हजार करोड़ रुपये लाभांश प्राप्त करना चाहती थी।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) तथा केंद्र सरकार के बीच विभिन्न मुद्दों को लेकर जो टकराव चल रहा था, वह उर्जित पटेल के इस्तीफे के साथ कमोबेश समाप्त हो गया लेकिन एक बहस फिर छिड़ गयी कि क्या नए गवर्नर शक्तिकांत दास आरबीआई की स्वायत्तता को बरकरार रख पाएंगे। उर्जित पटेल कई दृष्टियों से एक कमजोर गवर्नर साबित हुये अब देखना है कि शक्तिकांत दास कमिटेड गवर्नर के रूप में काम करेंगे या फिर स्वतंत्र हैसियत से? दरअसल शक्तिकांत दास के साथ कुछ वैचारिक पूर्वाग्रह भी जुड़े हैं। एक तो यह कि वे नौकरशाह रहे और उनकी विशेषज्ञता अर्थशास्त्र में नहीं हैं, दूसरे वे विमुद्रीकरण के अंधसमर्थक रहे जो कि तथ्यात्मक दृष्टि से अनुचित था। इस लिहाज से यह कहना गलत नहीं होगा कि वे सरकार के इन्स्टूमेंट के रूप में कार्य करेंगे। अगर ऐसा होता है तो बात चिंताजनक होगी लेकिन यदि वे सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के बीच में समन्वय स्थापित करते हुए आगे बढ़ते हैं तो फिर देश की अर्थव्यवस्था के लिए वे बेहतर भी साबित हो सकते हैं। पिछले दिनों सरकार और केन्द्रीय बैंक के बीच 10 मुद्दों पर टकराव रहा, जिसमें 5 ज्यादा अहम थे। इन मुद्दों में पहला है – मुख्य ब्याज दर (प्राइम लेंडिंग रेट)। इस मामले पर उर्जित पटेल के नेतृत्व वाली मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने दरों पर फैसला लेने से पहले मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम से मुलाकात करने से मना कर दिया था। इसका मतलब यह हुआ कि आरबीआई प्राइम लेंडिंग रेट के मसले पर सरकार से डिक्टेशन लेना नहीं चाहती थी जबकि सरकार इस पक्ष में थी। यहीं से उर्जित पटेल की उलटी गिनती शुरू हो गयी थी। 

हालांकि ऐसा लग रहा था कि वे इतने कमजोर साबित नहीं होंगे जो पद छोड़कर भाग जाएं। दूसरा मुद्दा लाभांश भुगतान सम्बंधी है। दरअसल सरकार बजटीय प्रावधान के तहत आरबीआई से 66 हजार करोड़ रुपये लाभांश प्राप्त करना चाहती थी लेकिन आरबीआई ने केवल 30 हजार करोड़ रुपये के लाभांश ही हस्तांतरित किए। परिणाम यह हुआ कि वित्त मंत्री ने केन्द्रीय बैंक से और भुगतान की मांग की लेकिन उसने ऐसा करने से भी इनकार कर दिया था। तीसरा मुद्दा लोन रिस्ट्रक्चरिंग (ऋण पुनर्संरचना) सम्बंधी है। दरअसल आरबीआई ने कई लोन रिस्ट्रक्चरिंग स्कीम्स को बंद कर दिया है और बैंकों से सभी संभावित नुकसान के लिए फंड (प्रोविजनिंग) अलग करने को कहा, चाहे डिफॉल्ट एक दिन का ही क्यों न हो। चौथा मुद्दा-सरकारी बैंकों के रेग्युलेशन सम्बंधी है। यह मुद्दा मूलत: नीरव मोदी प्रकरण के बाद उपजा जिसमें सरकार ने आरबीआई पर नाकामी का आरोप लगाया और बैंक ने स्वतंत्रता न देने का। पांचवा मुद्दा प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (पीसीए) सम्बंधी है। भारतीय रिजर्व बैंक ने सार्वजनिक क्षेत्र के लगभग आधे बैंकों को प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (पीसीए) के दायरे में रखा है, जिसके कारण उनपर कर्ज देने को लेकर कई तरह की पाबंदियां लगी हुई हैं। पीसीए के तहत अगर बैंकों को कर्ज देना है, तो सरकार को पहले उन्हें रिकैपिटलाइज करना पड़ेगा। सरकार व्यवस्था में नकदी की समस्या के चलते आरबीआई पर इन पाबंदियों को हटाने का दबाव बना रही थी जबकि आरबीआई ने साफ शब्दों में कह दिया था कि कि पीसीए के कारण ही बैंकों का बैड लोन (फंसा कर्ज) बढ़ने से बचा है, अत: इसमें ढील नहीं दी जा सकती। 

सरकार का मानना है कि आरबीआई के पास अतिरेक रिजर्व (सरप्लस रिजर्व) मौजूद हैं फिर भी आरबीआई इस रिजर्व के एक हिस्से को सरकार को हस्तांतरित करना नहीं चाहता। उधर आरबीआई का तर्क था कि ये रिजर्व विनिमय दर को नियंत्रित करने का जरिया है, इसलिए इनका इस्तेमाल केंद्र सरकार राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए नहीं कर सकती। व्यवसायिक दृष्टि से भारतीय रिजर्व बैंक के पास यह अधिकार है कि वह जिस तरह से चाहे अतिरेक सांविधिक रिजर्व (एक्सेस स्टेच्युटरी रिजर्व) को होल्ड कर सकता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक दो प्रमुख जोखिमों के मद्देनजर वैधानिक भण्डार बनाए रखता है। इनमें से एक है-एक्सचेंज रेट मूवमेंट दूसरे शब्दों में कहें तो विनिमय दर गतिविधि (या विनिमय दर को स्थिर रखने हेतु) को संतुलित रखना और दूसरा है-सोने की वैश्विक कीमतों में परिवर्तन के खिलाफ सुरक्षा के उद्देश्य से करेंसी और स्वर्ण पुनर्मूल्यांकन खाते को बनाए रखना।
इस टकराव में एक और महत्वपूर्ण पक्ष है और वह है मीडिया। मीडिया प्राय: हर मुद्दे पर विभाजित होती है, यहां पर भी वह विभाजित दिखी। यहां पर मीडियाई दृष्टिकोण खेमेबंदी का शिकार दिखा। पहला नजरिया मुंबई केन्द्रित है जबकि दूसरा दिल्ली केन्द्रित। पहला आरबीआई की स्वायत्तता की पैरोकारी कर रहा है और दूसरा राजनीतिक स्टैब्लिशमेंट के पक्ष में है। पहले का नैरेटिव है- केन्द्र सरकार की इस आक्रामकता के पीछे प्रमुख कारण शार्ट टर्म चुनावी लाभ हासिल करना है। इस नैरेटिव में यह बात भी निहित है कि सरकार वित्तीय संकट के दौर से गुजर रही है लेकिन वह डेटा इकोनॉमिक्स के जरिए अर्थव्यवस्था को बेहतर स्थिति में दिखाने की कोशिश कर रही है। लेकिन दिल्ली सेंटर्ड नजरिया ठीक इसके विपरीत है। वह मान रहा है कि उर्जित पटेल के नेतृत्व में आरबीआई सरकार की मंशा के विरुद्ध काम कर रहा था। इस वजह से औद्योगिक क्षेत्र में गतिशीलता नहीं आ पायी और आर्थिक विकास को उतनी तेजी हासिल नहीं हो सकी जितनी कि होनी चाहिए। लेकिन सच क्या है?
आइए पुराने झगड़े की वजह और सरकार की जरूरतों पर बात करें। सरकार का मानना है कि आरबीआई के पास अतिरेक रिजर्व (सरप्लस रिजर्व) मौजूद हैं फिर भी आरबीआई इस रिजर्व के एक हिस्से को सरकार को हस्तांतरित करना नहीं चाहता। उधर आरबीआई का तर्क था कि ये रिजर्व विनिमय दर को नियंत्रित करने का जरिया हैं इसलिए इनका इस्तेमाल केंद्र सरकार राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए नहीं कर सकती। व्यवसायिक दृष्टि से भारतीय रिजर्व बैंक के पास यह अधिकार है कि वह जिस तरह से चाहे अतिरेक सांविधिक रिजर्व (एक्सेस स्टेच्युटरी रिजर्व) को होल्ड कर सकता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक दो प्रमुख जोखिमों के मद्देनजर वैधानिक भण्डार बनाए रखता है। इनमें से एक है-एक्सचेंज रेट मूवमेंट दूसरे शब्दों में कहें तो विनिमय दर गतिविधि (या विनिमय दर को स्थिर रखने हेतु) को संतुलित रखना और दूसरा है-सोने की वैश्विक कीमतों में परिवर्तन के खिलाफ सुरक्षा के उद्देश्य से करेंसी और स्वर्ण पुर्नमूल्यांकन खाते को बनाए रखना। इसके अतिरिक्त रिजर्व बैंक के पासएक आकस्मिक निधि (कटिंजेंसी फंड) भी होती है। ध्यान रहे कि सांविधिक फंड औपचारिक एकाउंटिंग नियमों द्वारा निर्धारित किया जाता है जबकि कटिंजेंसी फंड अधिक लचीला होता है। नवीनतम उपलब्ध बैलेंस सीट के अनुसार आरबीआई के पास पुनर्मूल्यांकन खाते (रिवैलुएशन एकाउंट) में 6.9 ट्रिलियन रुपये तथा आकस्मिक निधि में 2.3 ट्रिलियन रुपये उपलब्ध हैं यानि आरबीआई के पास 9.2 ट्रिलियन रुपये का रिजर्व मौजूद है।
सरकार के लिए जरूरी होगा कि वह यह बताए कि अर्थव्यवस्था में संकट है। दूसरा-सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस हस्तांतरित होने वाली निधि के सम्बंध में अंतिम रूप से सरकार ही जवाबदेह होगी। जबकि सरकार इन दोनों विषयों को गौण रखना चाहती है। रघुराम राजन ने सुझाव दिया है कि संस्थाएं कार की सीट बेल्ट की तरह होती हैं जिनका उचित प्रयोग सुरक्षा के लिहाज से बेहतर होता है। लेकिन यह चालक (यानि सरकार) पर निर्भर करता है कि वह सीट बेल्ट का प्रयोग करे या न करे। अब देखना यह है कि शक्तिकांत दास सरकार को सीटबेल्ट बांधे रहने की सलाह देते हैं अथवा खोल देने की। ध्यान रहे कि दूसरी स्थिति अर्थव्यवस्था की दृष्टि से रपटीली लेकिन बेहद खतरनाक होगी। जिस तरह की स्थिति बैंकों की है और औद्योगिक क्षेत्र गति नहीं पकड़ पा रहा है, उसे देखते हुए रिजर्व बैंक को बहुत संभल कर चलना होगा।
सिद्धांतत: भारतीय रिजर्व बैंक सरकार के स्वामित्व वाली संस्था है इसलिए भारत के लोगों का प्रतिनिधि करने वाले राजनीतिक प्राधिकरण (पॉलिटिकल अथॉरिटी) से उसकी सम्पूर्ण आजादी का तो प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन यहां पर असली विषय कानूनी स्वतंत्रता का नहीं है बल्कि परिचालन (ऑपरेशनल) की स्वतंत्रता के साथ-साथ वित्तीय स्वतंत्रता का है। एक पक्ष यह भी है कि केन्द्रीय बैंक वित्त मंत्रालय का विभाग नहीं होता है, इसलिए वह चाहता है कि संसदीय अधिनियम द्वारा उसे प्रदान किए गये लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मौद्रिक नीति उपकरणों (मॉनीटरी पॉलिसी टूल्स) का प्रयोग करने की उसे आजादी प्राप्त हो। केन्द्रीय बैंक वित्तीय आजादी भी चाहता है ताकि आर्थिक स्थिरता को बनाए रखने के लिए वह बैलेंस शीट में लचीलापन ला सके। इसका मतलब यह हुआ कि केन्द्रीय बैंक सरकार से भिन्न एक स्वायत्त संस्था न होकर सरकार के साथ चलने वाला एक ऐसा संस्थान है जिसे संसदीय कानून द्वारा प्रदत्त लक्ष्यों को हासिल करना है साथ ही उसे लोकप्रिय सरकार की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए वित्त की व्यवस्था करनी है। आरबीआई एक पूर्ण सेवा प्रदाता केन्द्रीय बैंक है, इसका अधिकांश एसेट विदेशी प्रतिभूतियां हैं और एक्सचेंज रेट भी पूरी तरह से लचीला होने की बजाय ‘मैनेज्ड फ्लोट बेस्ड’ है। इसलिए सांविधिक फंड में से सरकार को हस्तांतरण अधिक तर्कसंगत नहीं लगता। लेकिन आरबीआई को 2.3 ट्रिलियन रुपये के आकस्मिक निधि की जरूरत नहीं है और संकट के समय यह आसानी से सरकार को दिया जा सकता है। लेकिन यहां पर सरकार के लिए जरूरी होगा कि वह यह बताए कि अर्थव्यवस्था में संकट है। दूसरा-सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस हस्तांतरित होने वाली निधि के सम्बंध में अंतिम रूप से सरकार ही जवाबदेह होगी। जबकि सरकार इन दोनों विषयों को गौण रखना चाहती है।
रघुराम राजन ने सुझाव दिया है कि संस्थाएं कार की सीट बेल्ट की तरह होती हैं जिनका उचित प्रयोग सुरक्षा के लिहाज से बेहतर होता है। लेकिन यह चालक (यानि सरकार) पर निर्भर करता है कि वह सीट बेल्ट का प्रयोग करे या न करे। अब देखना यह है कि शक्तिकांत दास सरकार को सीटबेल्ट बांधे रहने की सलाह देते हैं अथवा खोल देने की। ध्यान रहे कि दूसरी स्थिति अर्थव्यवस्था की दृष्टि से रपटीली लेकिन बेहद खतरनाक होगी। जिस तरह की स्थिति बैंकों की है और औद्योगिक क्षेत्र गति नहीं पकड़ पा रहा है, उसे देखते हुए रिजर्व बैंक को बहुत संभल कर चलना होगा। लेकिन इससे पहले देखना होगा कि सरकार में बैंकिंग क्षेत्र को कौन सी दिशा देती है और रिजर्व बैंक उस पर किस तरह का रेस्पांस देता है।
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

डॉ. रहीस सिंह

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