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नजीब की अजीब रवानगी से खत्म नहीं होने वाली जंग

राम शिरोमणि शुक्ल

देश की राजधानी दिल्ली अक्सर विवादों में रहती है। इन विवादों के समय-समय पर अलग-अलग विषय होते हैं, लेकिन पिछले करीब दो वर्षों से केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच का विवाद शुरू हुआ तो वह थमने का नाम नहीं ले रहा है। एक खत्म नहीं होता कि दूसरा खड़ा हो जाता है। इसीलिए कुछ लोग इसे केंद्र तथा केंद्र शासित राज्य के बीच के विवाद के रूप में देखते हैं तो कई लोग इसे नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल के बीच अहम के टकराव के रूप में भी परिभाषित करते हैं। कई ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि यह पूरा विवाद-झगड़ा यूपीएससी से आए दो अधिकारियों के बीच का भी रहा है। अब इस झगड़े में एक नया पेंच भी आ गया है, जिसको लेकर तमाम तरह की अटकलें लगाई जाने लगी हैं। यह भी समझने की कोशिश की जा रही है कि आने वाले दिनों में दिल्ली विवाद किस रूप से परिलक्षित हो सकता है। यह नया पेंच है उपराज्यपाल नजीब जंग का अचानक पद से इस्तीफा और फिर नए उपराज्यपाल अनिल बैजल की उपराज्यपाल पद पर नियुक्ति। नजीब जंग के रहते जहां दिल्ली में जंग शब्द ही विवाद का पर्याय बन गया था, वहीं भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान गृह सचिव का पद संभाल चुके अनिल बैजल के आने के बाद यह समझने की कोशिश में हर कोई लगा है कि आखिर आने वाले दिनों में उपराज्यपाल और राज्य सरकार के रिश्ते कैसे रहते हैं, केंद्र का हस्तक्षेप किस तरह का रहता है और दिल्ली सरकार का रुख कैसा हो सकता है? इस सबके बीच सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर लगी हैं कि वहां से क्या फैसला आता है। सुप्रीम कोर्ट से दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर कोई निर्णय सुनाए जाने की उम्मीद है। यह उम्मीद इस आधार पर बढ़ी है कि सर्वोच्च अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली एक संघ शासित राज्य है, लेकिन काम करने के लिए एक चुनी हुई सरकार के पास भी कुछ अधिकार होने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के मद्देनजर अगर ‘दिल्ली की जंग’ के बारे में देखा जाए तो चीजें कुछ ज्यादा स्पष्ट तरीके से समझी जा सकती हैं। यदि केवल ऊपरी तौर पर देखा जाए तो किसी को लग सकता है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अनावश्यक रूप से केंद्र और उपराज्यपाल के साथ जंग ठाने हुए हैं। कुछ अन्य को समझ में आ सकता है कि केंद्र के जरिये उपराज्यपाल (तत्कालीन) नजीब जंग अनावश्यक रूप से एक चुनी हुई सरकार को काम करने नहीं दे रहे थे। दोनों पक्षों के अपने तर्क हो सकते हैं और दोनों की अपनी मजबूत काट हो सकती है, लेकिन इससे तो इन्कार नहीं किया जा सकता कि दिल्ली में एक शाश्वत जंग चल रही थी जिसके अपने परिणाम-दुष्परिणाम भी थे जिसे सभी संबंधित पक्षों को झेलना पड़ रहा था। इस जंग में अचानक दिलचस्प मोड़ तब आ गया जब उपराज्यपाल नजीब जंग ने अपने त्यागपत्र का ऐलान कर दिया, जिसके बारे में किसी को किसी तरह का अंदेशा नहीं था। दरअसल, दिल्ली में केंद्र के लिहाज से सब कुछ ठीक चल रहा था क्योंकि कथित रूप से उपराज्यपाल नजीब जंग वह सब कुछ कर रहे थे, जो केंद्र की ओर से कहा जा रहा था। दिल्ली सरकार के लिहाज से कहा जाए तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हमेशा कहा करते थे कि उन्हें और उनकी सरकार को केंद्र के इशारे पर उपराज्यपाल काम नहीं करने दे रहे हैं। केजरीवाल तो यह भी कहते थे कि उपराज्यपाल जो चाहें करें, वह व उनकी सरकार जनता के हित में काम करती रहेगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली सरकार ने अपने वायदों के मुताबिक बहुत सारे काम तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद किए हैं, लेकिन यह भी सच्चाई रही है कि केंद्र सरकार ने शुरू से ही दिल्ली सरकार के साथ ऐसा व्यवहार करना शुरू कर दिया था, जिससे साफ लगता था कि सब कुछ परेशान करने की नियति से किया जा रहा है। इस प्रसंग में दो बातों पर गौर करने की जरूरत है। पहली तो यह कि लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी थी, लेकिन दिल्ली के चुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त मिली थी और आप अप्रत्याशित रूप से सर्वाधिक सीटें जीत सकी थी। यह भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए बहुत झटका था। राजनीतिक हलकों में तब यह माना जाता था कि केंद्र नहीं चाहता था कि दिल्ली में आप की सरकार बने। केंद्र की तमाम कोशिशों के बावजूद तब दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से आप की सरकार बन गई थी। हालांकि यह ज्यादा समय तक नहीं चल सकी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया। यह एक तरह से केंद्र की जरूरतें पूरी करने वाला साबित हुआ। फिर काफी समय तक दिल्ली में उपराज्यपाल का शासन रहा, लेकिन अंतत: विधानसभा का चुनाव कराया गया। इस चुनाव में आप को प्रचंड बहुमत मिल गया। दिल्ली की जनता ने अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी आप में विश्वास जताया। परिणाम यह रहा कि भाजपा के तीन प्रत्याशी ही जीत सके। इसके अलावा सभी सीटें आप को मिल गईं। यह केंद्र और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए और ज्यादा बड़ा झटका साबित हुआ। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना था कि इसी वजह से दिल्ली सरकार को कहीं अधिक परेशान किया जाने लगा। हद तो तब हो गई जब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव के दफ्तर में सीबीआई का छापा मरवा दिया गया। इसे राजनीतिक साजिश के रूप में प्रचारित किया गया जिसके लिए उपराज्यपाल नजीब जंग को जिम्मेदार ठहराया गया। इसके साथ ही एक तरह से यह स्थापित सत्य हो गया कि केंद्र के इशारे पर जंग केजरीवाल के खिलाफ काम कर रहे हैं। अब इस आरोप में सच्चाई के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता था, लेकिन कम से कम केजरीवाल और उनके समर्थक ऐसा ही प्रचारित करने में एक तरह से सफल भी रहे। अब जबकि नए उपराज्यपाल अनिल बैजल पदभार ग्रहण कर चुके हैं, इस जंग को लेकर नए तरह से कयास लगाए जाने लगे हैं। वैसे तो उन्होंने शपथ लेने के बाद पत्रकारों के सवालों पर बहुत स्पष्ट तौर पर कहा है कि सभी समस्याओं का समाधान मिल-बैठ कर बातचीत के आधार पर सुलझाया जाएगा, लेकिन यह उतना आसान लगता नहीं जितना कहा जा रहा है। पेचींदगियां कम नहीं हैं।
अरविंद केजरीवाल का काम करने का अपना तरीका है, जिसके बारे में कुछ लोगों को आपत्तियां हो सकती हैं। इसी तरह केंद्र भी अपनी आदतों से बाज आएगा, ऐसा मानना भी बहुत मुफीद नहीं लगता। जहां तक नए उपराज्यपाल अनिल बैजल की बात है, वह भारतीय प्रशासनिक सेवा से आए हैं। इसके अलावा केंद्र जब उन्हें लेकर आया है, तो उसकी भी अपनी प्राथमिकताएं होंगी, जिसे वह बैजल के माध्यम से पूरा कराना भी चाहेगा ही। ऐसे में अधिक संभावना इसी बात की है कि पुरानी जंग अभी रुकने वाली नहीं है बल्कि जारी ही रहने वाली है। उसका रूप भले ही थोड़ा भिन्न हो। इसके पीछे सबसे बड़ा आधार यह बताया जा रहा है कि बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियां बखूबी संभाल चुके बैजल के इतिहास में एक अहम फैसला भी जुड़ा हुआ है। वह यह है कि केंद्रीय गृह सचिव रहते बैजल ने किरण बेदी को यह आरोप लगाते ही जेल हेड के पद से हटा दिया था कि वह जेल के हर नियम तोड़ रही हैं। विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन कार्यकारिणी समिति के सदस्य भी रहे हैं। वह दिल्ली विकास प्राधिकरण के वाइस चेयरमैन रहने के साथ ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के दौरान जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन से जुड़े रहे हैं। 60 हजार करोड़ रुपये की यह योजना पिछली सरकार के दौरान शुरू की गई अहम योजनाओं में शामिल है।
टर्निंग प्वाइंट होगा सुप्रीम कोर्ट का फैसला
अरविंद केजरीवाल और नजीब जंग के बीच का झगड़े का जंग के इस्तीफे के बाद भी अंत होता नहीं लग रहा है। भले ही अब जंग उपराज्यपाल नहीं हैं और उनकी जगह नए राज्यपाल आ चुके हैं, लेकिन शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट व सुप्रीम कोर्ट का आने वाला फैसला बहुत निर्णायक साबित होने वाला है। अगस्त 2016 में उपराज्यपाल नजीब जंग ने दिल्ली सरकार के लिए फैसलों की वैधता की जांच के लिए शुंगलू कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी और पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रदीप कुमार भी शामिल थे। कमेटी नजीब जंग को अपनी रिपोर्ट सौंप चुकी है। बताया जाता है कि कमेटी ने दिल्ली सरकार की चार सौ फाइलों की जांच में कई खामियां पाई हैं जिसमें गलत तरीक से नियुक्तियों से लेकर टेंडर आवंटित करने तक की प्रक्रिया में गड़बड़ी उजागर की गई है। इस रिपोर्ट को सार्वजनिक किए जाने को लेकर भी विवाद था।
हालांकि रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई है, इसलिए कहा जा सकता है कि इसको लेकर राजनीतिक विवाद ज्यादा है। इस रिपोर्ट को लेकर आप सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि सर्वोच्च अदालत में विचाराधीन दिल्ली-केंद्र के बीच विवाद पर कोई फैसला आने तक शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट पर कोई जल्दबाजी में कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। कांग्रेस नेता अजय माकन का आरोप था कि नजीब जंग रिपोर्ट सार्वजनिक करना चाहते थे, इसीलिए उन्हें इस्तीफे के लिए मजबूर किया गया। बहरहाल, अभी सुप्रीम कोर्ट से दिल्ली सरकार के अधिकारों पर फैसला आना है। अगर यह फैसला दिल्ली सरकार के पक्ष में जाता है, जिसकी ज्यादा संभावना व्यक्त की जा रही है, तो माना जा सकता है कि जंग के इस्तीफे के पीछे एक बड़ा कारण यह हो सकता है। इससे भी ज्यादा यह फैसला वर्तमान उपराज्यपाल के अधिकारों के बारे में प्रभावकारी होगा क्योंकि तब आप सरकार और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अधिक आक्रामक हो सकते हैं। उपराज्यपाल की अपनी सीमाएं हो सकती हैं। ऐसे में यह देखने की बात होगी कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केंद्र और उपराज्यपाल किस रूप में सामने आते हैं। संभावना है कि सुप्रीम कोर्ट 18 जनवरी को फैसला सुना सकता है।

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