ज्ञान भंडारदस्तक-विशेषराष्ट्रीय

नहीं, मुझे गांधी नहीं चाहिए !

-कुमार प्रशांत, गांधीवादी विचारक

कॉलेज के उस हॉल में सौ के करीब युवा होंगे – हमारे देश की नई पीढ़ी के नुमाइंदे ! सभी कॉलेज वाले थे जिन्हें मैं इस देश के युवाअों का सबसे अधिक सुविधा व अवसर प्राप्त वर्ग मानता हूं. सभी गांधी को न मानने व न चाहने वाले थे. मैंने पूछा : अाप सब एक-एक कारण बताएं कि अापको महात्मा गांधी से क्या परेशानी है ?  अभी तक का नकारात्मक माहौल अचानक चुप हो गया ! अापस में खुसफुस चल रही है, यह तो मैं देख रहा था लेकिन कोई जवाब बन रहा हो, यह नहीं देख रहा था. कुछ थे कि जिन्होंने बड़ी हिम्मत जुटा कर अाधे-अधूरे वाक्यों में अपनी बात कही जिसका बहुत सीधा संबंध गांधी से नहीं था. मसलन यह कि गांधीजी ने अहिंसा की बात की जबकि हमें तो सारे भ्रष्टाचारियों को गोली मार देनी चाहिए.
मैंने पूछा : तुम गांधी की बात मानते हो क्या ?  वह तुनक कर बोला : हर्गिज नहीं! “तो फिर रोका किसने ? गोली मार दो न !!” वह हैरानी से मेरी तरफ देखने लगा ! लगा, जैसे ऐसा जवाब या किसी को मार देने के बारे में ऐसी सलाह उसे कभी मिली नहीं हो; या फिर उसने कभी सोचा ही न हो कि मार डालने की जो बात वह हर सांस में बोलता है, उसे करने के बारे में वह एकदम कोरा है !
मैंने थोड़ा अौर इंतजार किया कि कोई मजबूत जवाब अाए लेकिन सब उलझे हुए ही दीखे ! फिर मैंने ही कहा : नहीं भाई, मुझे गांधी की बिल्कुल ही जरूरत नहीं है ! मुझे तो नहीं चाहिए यह गांधी, क्योंकि मुझे पिछड़ापन नहीं चािहए ! गरीबी अौर अशिक्षा को मैं तुरंत दूर करना चाहता हूं जबकि गांधी उसी का गुणगान करते हैं. मुझे ऐसा समाज चाहिए कि जो तेजी से विकास करता हो. इसलिए मैं क्यों देखूं कि दूसरे का क्या हो रहा है, मुझे तो अपना देखना है ! मैं ऐसा समाज चाहता हूं जिसमें सबके पास अफरात हो, किसी चीज की कभी कमी न रहे, इसलिए मुझे यह देखना नहीं है कि पर्यावरण का क्या हो रहा है; कि नदियों का क्या हाल है; कि हमारे पास जो अफरात है ऐसा दीखता है, वह कहां से अाता है. मुझे मेरी जरूरत का मल जाए मांगने से, चुराने से याकि छीनने से तो मेरे लिए बस है. मैं दूसरे का कुछ भी छीनना नहीं चाहता हूं तब तक, जब तक मेरी जरूरतें पूरी हो रही हैं. लेकिन मुझे दिक्कत होगी, तो मैं दूसरों को भी चैन से जीने नहीं दूंगा. गरीबों से मेरी भी हमदर्दी है लेकिन हमदर्दी से पेट तो भरता नहीं है. इसलिए मैं जब इतना कमा लूंगा कि मेरी सारी जरूरतें पूरी हो जाएं, तो फिर दूसरों की सोचूंगा.
मैं ऐसा भारत चाहता हूं क जिसमें भ्रष्टाचार न हो, मिलावट न हो, गंदगी न हो अौर सभी एक-दूसरे की मदद करते हों लेकिन ऐसा भारत बनाने का काम करने का अभी मेरे पास समय नहीं है. अभी तो यह काम दूसरे करें, जब मेरे पास समय होगा तो मैं भी जरूर इस काम में सबके साथ काम करूंगा. मेरा किसी धर्म से कोई झगड़ा नहीं है लेकिन मेरा अपना धर्म भी तो है जिसकी रक्षा करना मेरा धर्म है ! इसलिए मैं जान लगा कर अपने धर्म की रक्षा करूंगा अौर इस रास्ते में जो अाएगा, उसकी जान का भगवान मािलक ! …. मैं अौर भी बहुत कुछ कहना चाह रहा था ताकि गांधीजी की अब हमें कोई जरूरत नहीं है, यह बात पुख्ता प्रमाणित हो कर इन युवाअों के मन में बैठ जाए. लेकिन मेरी हर बात के साथ सामने बैठे युवाअों के चेहरों पर जो उमड़ रहा था वह था गहरे असमंजस का भाव ! यह भाव इतना गहरा व साफ-साफ दिख रहा था कि मुझे रुकना पड़ा ! मैंने बात बंद कर दी. अब दोनों तरफ से प्रश्नाकुल नजरें थीं. कौन बोले, ऐसा भाव था. फिर मैंने ही चुप्पी तोड़ी :
“ क्या हुअा ? … तुम सब मेरी तरफ ऐसी नजरों से क्यों देख रहे हो ?” चुप्पी थोड़ी लंबी खिंची. फिर एक लड़की झिझकते-झिझकते बोली : “ सर, अाप यहां गांधीजी के बारे में बोलने अाए थे न !”  “ हां !”, मैंने जल्दी से अपनी सहमति दे दी. “ तो अाप तो गांधीजी के खिलाफ ही बोल रहे हो !” “ तो तुम लोगों ने भी तो मुझको पहले ही बता दिया था न कि तुम सब न गांधी को मानते हो, न चाहते हो !”  वह फिर बोली : “ लेकिन इसका मतलब ऐसा थोड़े ही न हुआ कि हम गांधीजी के बारे में बुरी बात करें!”  “ लेकिन मैंने गांधीजी के बारे में कोई बुरी बात कही ही कहां ! … मैं तो इतना ही कह रहा था न कि मैं अपनी जिंदगी कैसे जीना चाहता हूं अौर मैं अपना देश कैसा बनाना चाहता हूं !”
“ लेकिन सर,” इस बार वह पहला अहिंसा न चाहने वाला युवक बोला : “ हम वैसा समाज तो नहीं चाहते हैं जैसा अाप बता रहे थे!” “ तो जैसा समाज चाहते हो, वैसा बनाअो तो !… बनाने लगोगे तो गांधी तुम्हारे साथ अा जाएंगे; अागे चलोगे तो तुम गांधी के साथ अा जाअोगे !… गांधी दूसरा कुछ नहीं है मित्रो, अपनी पसंद का समाज बनाने का नाम है ! … हमें गांधी इसलिए पसंद नहीं अाते हैं कि हम चाहते हैं कि समाज बनाने का काम दूसरे करें, हम उनके बनाए समाज में अाराम से रहें ! … गांधी को यह पसंद नहीं है. वे कहते हैं कि हर किसी को अपने रहने का समाज खुद ही बनाना चाहिए, अौर जब तुमको बनाने की अाजादी मिलेगी तो तुम वही बनाअोगे जो तुम्हें पसंद है; अौर तब तुम देखोगे कि तुम्हारी पसंद अौर गांधी की पसंद में ज्यादा कोई फर्क है नहीं !”
ऐसा हाल युवाअों का ही नहीं, हम सबका है. हम मानते हैं कि गांधी हमें पसंद नहीं हैं क्योंकि हम जानते ही नहीं है कि हम गांधी को जानते नहीं हैं ! यह गांधी की भी अौर हमारी भी कमनसीबी है.

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