दस्तक-विशेष

माटी के कथाकार थे रेणु

fd(4 मार्च जयंती पर विशेष)
नई दिल्ली। प्रेमचंदोत्तर हिंदी कथा साहित्य को संवारने में फणीश्वरनाथ रेणु का नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है। हिंदी कथा साहित्य में क्षेत्र विशेष की पीड़ा को देश की पीड़ा के रूप में पेश करने का जो अनूठा अंदाज रेणु ने अपनाया वह अद्वितीय है। उन्होंने कथा साहित्य में ‘आंचलिकता’ को स्थापित किया। बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना (अब रेणु ग्राम) में फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 को हुआ था। उनके पिता शिलानाथ मंडल इलाके के संपन्न किसान थे और कांग्रेसी थे। रेणु का बचपन आजादी की लड़ाई को देखते-समझते बीता। रेणु ने स्वयं लिखा है ‘‘पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज-आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता। खादी पहनते थे घर में चरखा चलता था।’’
रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आजादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। 193०-31 ई. में जब रेणु अररिया हाईस्कूल के चौथे दर्जे में पढ़ते थे तभी महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे। रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका। रेणु को इसकी सजा मिली लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के ‘बहादुर सुराजी’ के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
रेणु की प्रारंभिक शिक्षा फारबिसगंज तथा अररिया में हुई। रेणु ने प्रारंभिक शिक्षा के बाद मैट्रिक नेपाल के विराटनगर के ‘विराटनगर आदर्श विद्यालय’ से कोईराला परिवार में रहकर किया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से 1942 में इंटरमीडिएट करने के बाद रेणु स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 195० में रेणु ने ‘नेपाली क्रांतिकारी आंदोलन’ में भी भाग लिया।
वर्ष 1952-53 के दौरान लंबे समय तक बीमार रहने के कारण वे सक्रिय राजनीति से हट गए। उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ। 1954 में उनका पहला उपन्यास ‘मैला आंचल’ प्रकाशित हुआ। मैला आंचल उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात उन्हें शीर्षस्थ हिंदी लेखकों में गिना जाने लगा।
जीवन के सांध्यकाल में राजनीतिक आंदोलन से उनका पुन: गहरा जुड़ाव हुआ। 1975 में लागू आपातकाल का समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) के साथ उन्होंने भी कड़ा विरोध किया। सत्ता के दमनचक्र के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्मश्री लौटा दी। उन्हें न सिर्फ पुलिस की यातना झेलनी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। 23 मार्च 1977 को जब आपातकाल हटा तो उनका संघर्ष सफल हुआ। परंतु वह इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। कई रोगों से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था। 11 अप्रैल 1977 को उनका पटना के एक अस्पताल में निधन हो गया। फणीश्वरनाथ रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए तब घर लौटने पर उन्होंने ‘बटबाबा’ नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी। उनकी दूसरी कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ 11 दिसंबर 1944 को ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ में छपी। रेणु की अंतिम कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ मानी जाती है। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है। उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम’ ने भी उन्हें काफी प्रसिद्धि दिलवाई। यह फिल्म हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है। कथा-साहित्य के अलावा उन्होंने संस्मरण रेखाचित्र और रिपोर्ताज आदि विधाओं में भी लिखा। उनके कुछ संस्मरण भी काफी मशहूर हुए। ‘ऋणजल धनजल’ ‘वन-तुलसी की गंध’ ‘श्रुत अश्रुत पूर्व’ ‘समय की शिला पर’ ‘आत्म परिचय’ उनके संस्मरण हैं। इसके अतिरिक्त वे ‘दिनमान पत्रिका’ में रिपोर्ताज भी लिखते थे। ‘नेपाली क्रांति कथा’ उनके रिपोर्ताज का उत्तम उदाहरण है।
रेणु की कुल 26 पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों में संकलित रचनाओं के अलावा भी काफी रचनाएं हैं जो संकलित नहीं हो पाईं कई अप्रकाशित आधी अधूरी रचनाएं हैं। असंकलित पत्र पहली बार ‘रेणु रचनावली’ में शामिल किए गए हैं।

Related Articles

Back to top button