राजनीति

लोकसभा चुनाव : अखिलेश के सामने चुनौती ही चुनौती


लखनऊ : बसपा और राष्ट्रीय लोकदल से गठबंधन के बाद समाजवादी पार्टी के सामने सामाजिक समीकरणों को साधने की चुनौती है। सपा के हिस्से में 37 सीट आई हैं। इन पर इस तरह से सोशल इंजीनियरिंग करने का दबाव है कि पिछड़ों, अति पिछड़ों को भी वाजिब हिस्सेदारी मिल सके। सपा का पूरा जोर पिछड़ों को साधने पर है। इसके लिए तमाम जिलों में पिछड़े वर्ग के सम्मेलन किए गए। कई जिलों में सामाजिक यात्राएं निकाली गईं। प्रत्येक जिले के पिछड़े नेताओं को सूची बनाकर उन्हें चुनावी जिम्मेदारी सौंपी गई। सपा लगातार कह रही है कि सभी जातियों को आबादी के अनुपात में भागीदारी मिलनी चाहिए। पिछड़ों की आबादी लगभग 54 फीसदी है। ऐसे में उनका दावा आधे से ज्यादा सीटों पर बनता है। वर्ष 2014 के लोकसभा और वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की कामयाबी की वजह गैर यादव पिछड़ी जातियों की लामबंदी रही है। इन्हें भाजपा के पाले से वापस लाना ही सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के लिए असली चुनौती है। इसके लिए उन्हें टिकटों में प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा। सपा ने अभी तक 17 उम्मीदवार घोषित किए हैं। इनमें चार मुलायम परिवार के सदस्य हैं और मौजूदा सांसद हैं। पांचवें सदस्य के रूप में अखिलेश यादव का लडऩा तय है। उनके आजमगढ़ से चुनाव मैदान में उतरने की संभावना है। इन 17 सीटों में सपा ने केवल दो गैर यादव पिछड़ों को टिकट दिए हैं। लखीमपुर खीरी से डॉ. पूर्वी वर्मा और मिर्जापुर से राजेंद्र एस बिंद। ये दोनों क्रमश: कुर्मी व निषादवंशीय समाज से आते हैं। इनकी प्रदेश में अच्छी आबादी है। इनके अलावा 6 दलित, 2 मुस्लिम और एक-एक सीट राजपूत, ब्राह्मण व वैश्य को दी गई है। सपा के सामने असली चुनौती शेष सीटों पर ऐसे उम्मीदवार उतारने की है कि जो सामाजिक न्याय के पैरोकार हों। जिताऊ उम्मीदवार उतारने के दबाव के बीच सपा की सोशल इंजीनियरिंग कसौटी पर है।

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