दस्तक-विशेष

भारतीय राकेटों के पर्याय कलाम

मेरे पास न धन, न संपत्ति, न मैंने कुछ इकट्ठा किया, कुछ नहीं बनाया है, जो ऐतिहासिक हो, शानदार हो, आलीशान हो। पास में कुछ नहीं रखा है- कोई परिवार नहीं, बेटा-बेटी नहीं। मैं नहीं चाहता कि मैं दूसरों के लिए कोई उदाहरण बनूं, लेकिन मुझे विश्वास है कि कुछ लोग मेरी इस कहानी से प्रेरणा जरूर ले सकते हैं और जीवन में संतुलन लाकर संतोष प्राप्त कर सकते हैं।

Captureसवीं सदी में मानवीय मेधा के चरमोत्कर्ष अल्बर्ट आइंस्टाइन निरीश्वरवादी थे। उनका कहना था कि ‘मुझे ईश्वर में कोई आस्था नहीं है, लेकिन उसके बनाए हुए नियमों में पूर्ण आस्था है।’ एक अन्य अवसर पर आइंस्टाइन ने कहा कि ‘पथ तो पूर्व निर्धारित हैं। हमारी भूमिका क्या है? बस इतनी ही कि हमें उस पर से गुजर जाना है। तो क्या हम नियति की डोर से बंधी हुई कठपुतलियां हैं? गोसाईं जी ने तो आइंस्टाइन से सदियों पूर्व ही लिख दिया था-‘सबहिं नचावत राम गोसाईं।’ तो क्या यह नियति की डोर ही थी जिसने कलाम को शून्य से शिखर तक पहुंचा दिया? कदाचित ऐसा ही!
कम से कम कलाम साहब तो ऐसा ही मानते थे। उनके जीवन की दिशा नियति ने पूर्व निर्धारित कर दी थी और उन पगडंडियों की प्रतीति उनके बाल्यकाल में ही करा दी थी। इतना ही नहीं, नियति से मिलन का संदेश भी नियति ने उन्हें दे दिया था। इस दुनिया से महाप्रयाण का आभास उन्हें हो चुका था जिसे उन्होंने आखिरी अपनी किताब में लिपिबद्ध भी कर दिया था, जिसकी चर्चा हम इस आलेख के अंत में करेंगे।
बाल मन की ऊंची उड़ानें
भारत के पहले राकेट एसएलवी-3 के जनक और प्रक्षेपास्त्र पितामह डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (अवुल पकीर जैनुल आब्दीन अब्दुल कलाम) का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को रामेश्वरम् तमिलनाडु में एक साधारण से परिवार में हुआ था। आजीविका का कोई ठोस आधार न था। उनके पिता जैनुल आब्दीन रामेश्वरम् के मछुआरों को अपनी नावें किराये पर देते थे और इस प्रकार जो कुछ राशि अर्जित होती थी, उसी से बालक कलाम की शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न हुई जो आगे चलकर भारतीय राकेटों का जनक और देश के रक्षा कार्यक्रम का पितामह बन गया।
डॉ. कलाम इतने महान रक्षा वैज्ञानिक कैसे बने, कदाचित इसके पीछे उनके बाल्यकाल की एक छोटी सी घटना प्रेरणा बन गई। कलाम के चाचा रामेश्वरम में एक अखबार विक्रेता थे। रेलवे स्टेशन से रोज प्राय: पचास अखबारों का बंडल एकत्र करते थे। एक बार उन्हें किसी काम से बाहर जाना पड़ गया। अत: उन्होंने अखबार बांटने की जिम्मेदारी बालक कलाम को सौंप दी। यह महज संयोग की बात है कि उस समय रामेश्वरम स्टेशन से गुजरने वाली एक्सप्रेस गाड़ी को रेलवे अधिकारियों ने वहां रोकना बंद कर दिया। अत: अखबारों का बंडल चलती ट्रेन से रोज स्टेशन पर फेंक दिया जाता। बालक कलाम इसे एकत्र कर लोगों के घरों तक पहुंचा दिया करता था।
एक दिन बंडल फट गया और अखबार बिखर गया। फैले हुए अखबारों को इकट्ठा करते समय बालक कलाम की नज़र अखबार में छपे एक लेख पर जाकर ठहर गयी। उस लेख में दूसरे महायुद्ध में ब्रिटेन द्वारा प्रयुक्त एक युद्धक विमान केबारे में चर्चा की गयी थी। बालक कलाम ने उस लेख को कई बार पढ़ा और तभी उसने दृढ़ संकल्प किया कि वह आगे चलकर एक इंजीनियर बनेगा और अपने देश के लिए भी ऐसे आयुध बनायेगा। बाल्यकाल की एक छोटी सी घटना ने तत्क्षण एक महान प्रतिभाशाली वैज्ञानिक बनने की शक्ति एवं सामथ्र्य दे दी बालक कलाम को। कदाचित नियति को यही मंजूर था। इस घटना ने बालक कलाम के जीवन की दिशा को ही परिवर्तित कर दिया, फलत: देश को एक महान रक्षा वैज्ञानिक मिला जिसकी प्रतिभा के आगे दुनिया नतमस्तक है।
कलाम ने उड़ाया था पहला राकेट
21 नवंबर, 1963 की शाम को थुंबा, केरल की सेंट मैरी मैग्डालेन चर्च से भारत के पहले राकेट ‘नाइक अपाचे’ का प्रक्षेपण किया गया। यह राकेट हमें अमेरिका ने दिया था। इसी प्रक्षेपण के साथ भारतीय राकेट विज्ञान का उद्भव होता है। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों के जनक डॉ. विक्रम अंबालाल साराभाई ने ए.पी.जे.अब्दुल कलाम को छह महीने के विशेष प्रशिक्षण के लिए ‘नासा’ भेजने का प्रबंध किया था। कलाम के सामने ही यह राकेट निर्मित हुआ था।
तब हमारे पास राकेट प्रक्षेपण के लिए कोई केंद्र नहीं था। अत: मजबूरी में उक्त चर्च की दीवार के सहारे ‘नाइक अपाचे’ को दागा गया। यह अपने आप में रोमांचक किंतु मनोरंजक प्रकरण था जिसकी चर्चा कुछ इस प्रकार डॉ. कलाम ने अपनी आत्मकथा ६्रल्लॠ२ ङ्मऋ ऋ्र१ी में की है-‘राकेट को ले जाने के लिए उपकरण के नाम पर हमारे पास एक ट्रक और हाथ से चलाने वाली हाइड्रोलिक न थी। जोड़कर तैयार किए गए इस पूर्ण राकेट को चर्च से प्रक्षेपण स्थल तक ट्रक से ले जाया गया। जब राकेट को क्रेन से उठाया गया और लांचर पर रखा जाने लगा, तभी इसमें झुकाव आना शुरू हो गया। क्रेन की हाइड्रोलिक प्रणाली में रिसाव आने से यह गड़बड़ी उत्पन्न हो रही थी। तब राकेट को हम लोगों ने ही हाथों और कंधों पर उठा लिया और लांचर पर स्थापित कर दिया। इस राकेट प्रक्षेपण और इसकी सुरक्षा प्रणाली का प्रभारी मैं ही था। इस राकेट को छोड़े जाने में मेरे दो साथियों डी. ईश्वरदास और अर्वामुदन ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण और सक्रिय भूमिका निभाई। राकेट का प्रक्षेपण बहुत ही आसानी से तथा बिना किसी कठिनाई के हो गया। हमें उड़ान संबंधी आंकड़े बहुत ही बेहतर मिले और हम काम पूरा करके गर्व से ऊंचा सिर लिए लौटे।’
पृथ्वी के निचले वायुमंडल का अध्ययन करने के लिए छोड़े जाने वाले छोटे-छोटे राकेटों को परिज्ञापी राकेट २ङ्म४ल्ल्िरल्लॠ १ङ्मू‘ी३ कहते हैं। अमेरिका द्वारा प्रदत्त ‘नाइक अपाचे’ भी इसी कोटि का राकेट था। फिर अमेरिका ने हमें एक और साउंडिंग राकेट दिया जिसका नाम हमने(रोहिणी-70) रख दिया जिसका अर्थ यह है कि इसका व्यास 70 मिमी. था। इसके बाद हमने अपना स्वदेशी राकेट बना लिया जिसे ‘रोहिणी-75’ फँ-75 नाम से अभिहित किया गया। इसका व्यास 75 मिमी. था।
20 नवंबर, 1967 को भारत ने थुंबा से ‘रोहिणी-75’ का सफल प्रक्षेपण किया, तब अमेरिका ने ही इसे खिलौना कहकर मजाक उड़ाया था जिसने हमें ऐसे दो खिलौने दिए थे। पर जब ‘रोहिणी-75’ ने आशाजनक परिणाम प्रदर्शित किए तो एक स्वर से स्वीकारा गया कि मात्र आकार ही सब कुछ नहीं है। प्रश्न तो यह है कि तकनीकी रूप से दक्षता प्राप्त कर ली गई है अथवा नहीं।
डॉ. विक्रम अंबालाल साराभाई द्वारा 1964 में फ्रांस से किए गए एक समझौते के अनुसार भारत ने ‘सेन्तोर’ नामक दो खंडों वाले राकेट बनाने का मार्ग प्रशस्त कर लिया। अब तो विभिन्न राकेटों, उनसे सम्बद्ध उपकरणों के साथ 10 से अधिक राकेट प्रणालियां विकसित की जा चुकी हैं। जिनमें फँ-70 फँ-100, फँ-125, फँ-560, मेनका-1, मेनका-2आदि बहुखंडीय राकेट शामिल हैं। परिज्ञापी राकेटों की शृंखला का आखिरी राकेट फँ-560 था और इसी के साथ परिज्ञापी राकेटों की शृंखला समाप्त घोषित कर दी गई। एस एल वी-3 की उड़ान और संशय की वह घड़ी परिज्ञापी राकेटों की विकास यात्रा के बाद भारत ने ए.पी.जे.अब्दुल कलाम के निर्देशन में भारत के पहले राकेट एसएलवी-२ं३के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ की। इसके लिए हमने ‘रोहिणी’ शृंखला के उपग्रहों का निर्माण किया जिनका उद्ेश्य ही था इस बात की जांच करना कि हमारा एसएलवी-3 राकेट 38-40 किग्रा. वजनी उपग्रहों को पृथ्वी की 400-500 किमी. की निचली कक्षा में स्थापित कर सकता है या नहीं? इसका प्रथम परीक्षण 10 अगस्त 1979 को किया गया। यह एसएलवी-3 की प्रथम प्रायोगिक उड़ान थी। राकेट उड़ा तो जरूर पर चार चरणीय राकेट के दूसरे खंड की नियंत्रण प्रणाली में खराबी आ जाने (चौथे खंड के सक्रिय होने से पूर्व ही) आसमान में जाने की बजाय बंगाल की खाड़ी में जा समाया।
इस विफलता से अब्दुल कलाम (एसएलवी-3 के परियोजना निदेशक) बुरी तरह टूट चुके थे और उन्हें लगा कि इस विफलता की जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं के कंधों पर है, लेकिन प्रो. ब्रहम प्रकाश ने उन्हें संभाला, दिलासा दिलाया और इस प्रकार अब्दुल कलाम अवसाद से मुक्त हुए। बकौल कलाम-‘पहले चरण ने पूर्ण सफलता से अपना काम किया। हम एसएलवी-3 को उड़ता हुए देखने की उम्मीदें लिए हुए थे, लेकिन अचानक एक गड़बड़ी आ गई और हमारी उम्मीदों को धक्का लगा। राकेट का दूसरा चरण नियंत्रण से बाहर हो गया। 317 सेकंड के बाद ही उड़ान बंद हो गई और चौथे चरण सहित पूरा यान श्रीहरिकोटा से 560 किमी. दूर समुद्र में जा समाया।
इस घटना से हम सबको गहरा धक्का लगा। मुझे नाराजगी और निराशा दोनों हुई। आपको ‘इसका क्या कारण लगता है?’ किसी ने ब्लॉक हाउस में मुझसे यह पूछा। मैंने इसका जवाब ढूढ़ने की कोशिश की, लेकिन मैं काफी थका हुआ था। अत: मैंने निरर्थक समझते हुए इसका कारण ढूंढ़ने की कोशिश छोड़ दी। प्रक्षेपण जल्दी सुबह हुआ था। पूरी रात उल्टी गिनती चली थी। पिछले एक हफ्ते से मुश्किल से ही थोड़ा सो पाया था। मानसिक और शारीरिक रूप से थका हुआ मैं अपने कमरे में गया और बिस्तर पर कटे पेड़ सा जा गिरा। मेरे कंधे पर हाथ रखकर किसी ने मुझे जगाया। दोपहर खत्म हो चुकी थी और शाम होने जा रही थी। मैंने देखा, डॉ. ब्रहम प्रकाश मेरे पास बैठे हुए हैं। ‘खाने का क्या हो रहा है?’ उन्होंने पूछा। उनका यह स्नेह व चिंता मुझे गहराई तक छू गई। मुझे बाद में पता चला कि इससे पहले भी दो बार डॉ. ब्रहम प्रकाश मेरे कमरे में आए थे, लेकिन मुझे सोता देखकर लौट गए थे।
वह पूरे समय यह प्रतीक्षा करते रहे कि मैं उठ जाऊं और फिर उनके साथ दोपहर का भोजन करूं। मैं उदास तो था, लेकिन अकेलापन नहीं लग रहा था। डॉ. ब्रहम प्रकाश के साथ ने मेरे भीतर एक नया विश्वास जगाया। खाना खाते वक्त उन्होंने बहुत ही कम बातचीत की और सावधानीपूर्वक एसएलवी-3 के जिक्र से बचते हुए बहुत ही शालीनता से मुझे दिलासा दी।’ और इस प्रकार प्रो. ब्रहम प्रकाश जैसे तपोनिष्ठ विज्ञानी ने तरूण कलाम को संजीवनी शक्ति दी, फलस्वरूप उन्हें भारतीय राकेटों के जनक होने का श्रेय मिला। इसके बाद एसएलवी-3 की दूसरी उड़ान 18 जुलाई, 1980 को आयोजित की गई जिसमें इसे ‘रोहिणी-आरएस-1’ नामक उपग्रह को 400-500 किमी. की ऊंचाई वाली पृथ्वी की निचली कक्षा में स्थापित करना था। राकेट ने ऐसा किया भी लेकिन उसने उपग्रह को वांछित कक्षा से कहीं अधिक ऊंचाई पर स्थापित कर दिया, फलत: उसका जीवन काल 100 दिनों से बढ़कर एक वर्ष हो गया। यह एक तकनीकी त्रुटि थी जिसका निराकरण जरूरी था। लेकिन एसएलवी-3 की अगली उड़ान में भी हम उसे नियंत्रित नहीं कर सके।
एसएलवी-डी 3 की तीसरी उड़ान (पहली विकासात्मक उड़ान) और भी दुर्भाग्यपूर्ण रही। 31 मई, 1981 को राकेट ने ‘रोहिणी-आरएस-डी1’ नामक उपग्रह को लेकर उड़ान भरी। पूर्व घोषणा के अनुसार इसे अंतरिक्ष में 300 दिनों तक रहना था पर राकेट उसे वांछित कक्षा में पहुंचा ही नहीं सका, फलस्वरूप यह सप्ताह भर में गिर कर विनष्ट हो गया।17 अप्रैल, 1983 को एसएलवी-3 की चौथी और आखिरी उड़ान (दूसरी विकासात्मक उड़ान) आयोजित की गई जिसमें इसने ‘रोहिणी-आरएस-डी 2’ नामक उपग्रह की सफल स्थापना की। इसी के साथ भारत अंतरिक्ष क्लब का छठा सदस्य राष्ट्र बन गया। इसका तात्पर्य यह है कि जो राष्ट्र अपने ही राकेटों से अपने उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण कर लेते हैं, उन्हें ‘स्पेस क्लब’ में शामिल कर लिया जाता है।
एक निर्णायक मोड़
इस छोटी सी सफलता ने भारतीय विज्ञान में एक निर्णायक मोड़ लिया। एसएलवी-3 राकेट से ‘रोहिणी-आरएस-डी 2’ की सफल स्थापना से भारतीय विज्ञान में दो समानांतर धाराएं पनपीं। इसी सफल प्रक्षेपण के साथ छोटे राकेटों का एक युग समाप्त हो गया और भारत शनै: शनै: बड़े और शक्तिशाली राकेटों के विकास की ओर उन्मुख होता चला गया और साथ ही भारत के प्रक्षेपण कार्यक्रम की आधारशिला निर्मित हो गई जिसकी चर्चा आगे की गई है।

प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम के पुरोधा
तिरुचिरापल्ली के सेंट जोसेफ कालेज से विज्ञान में स्नातक करने के बाद उन्होंने आई.आई.टी., मद्रास से वैमानिक अभियांत्रिकी  रक्षा वैज्ञानिक के रूप में कार्य करने लगे। 1963 में इन्हें ‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ ्र२१ङ्म) में स्थांतरित कर दिया गया। 1963 से 1980 तक वह ‘इसरो’ से सम्बद्ध रहे, जहां परियोजना निदेशक के रूप में उन्होंने प्रथम भारतीय राकेट ‘एसएलवी.-3’ को अंजाम दिया।
1982 में वह रक्षा अनुसंधान और विकास प्रयोगशाला के निदेशक के रूप में हैदराबाद चले गये और इस तरह उन्हें रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन में पुन: सम्मिलित कर लिया गया और जब जुलाई 1983 में ‘समेकित निर्देशित प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम’ (्रॠेस्रि का गठन हुआ तो निस्संदेह डॉ. कलाम को इसका अगुआ बनाया गया। मिसाइलों के निर्माण के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जुलाई 1983 में एक परियोजना की आधारशिला रखी थी, जिसका नाम था -‘समेकित निर्देशित प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम’ और इस योजना की शुरुआत के लिए उन्होंने 380 करोड़ रुपये की धनराशि स्वीकृत की। प्राय: 6 वर्षों की लघु अवधि में ही कलाम और उनके सहयोगियों ने 5 प्रक्षेपास्त्रों- पृथ्वी, अग्नि, नाग, आकाश और त्रिशूल का सफल परीक्षण और विकास सम्पन्न करके दिखा दिया। इनमें से तीन प्रक्षेपास्त्रों पृथ्वी, अग्नि और आकाश की सैन्य तैनाती भी हो चुकी है।
नियति से मिलन का संदेश
जैसा कि मैंने इस आलेख के आरंभ में ही लिख दिया था कि डॉ. कलाम की ईश्वर में गहन आस्था थी। उन्हें इस दुनिया से जाने का संदेश भी नियति ने दे दिया था। 83 वर्षीय कलाम 27 अगस्त 2015 को इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट शिलांग के विद्यार्थियों को संबोधित कर ही रहे थे कि अचानक उनकी आवाज चली गई। उन्हें हृदयाघात हो गया और अंतत: डॉ. कलाम कालातीत हो गए लेकिन नहीं, हम जब भी भारतीय राकेटों और प्रक्षेपास्त्रों पर पुनश्चर्चा करेंगे तो डॉ. कलाम की हमें याद आयेगी। डॉ. कलाम की चर्चा के बिना भारतीय राकेट विज्ञान और प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम की चर्चाअधूरी रहेगी। विज्ञान ऋषि, भारत के पूर्व राष्ट्रपति और ‘भारत रत्न’ समादृत डॉ. कलाम को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि! 

आस्थावादी थे कलाम

आइंस्टाइन तो अनास्थावादी थे, लेकिन कलाम को ईश्वर की सार्वभौमिकता में पूर्ण आस्था थी। कलाम ने इसकी स्वीकारोक्ति भी की है-‘मेरी कहानी जैनुलआब्दीन के बेटे की कहानी है, जो रामेश्वरम् की मस्जिदवाली गली में सौ साल से ज्यादा तक रहे और वहीं अपना शरीर छोड़ा। यह उस किशोर की कहानी है, जिसने अपने भाई की मदद के लिए अखबार बेचे। यह कहानी शिव सुब्रहम अय्यर एवं अयादुरै सोलोमन के शिष्य की कहानी है। यह उस छात्र की कहानी है जिसे पनदलाई जैसे शिक्षकों ने पढ़ाया। यह उस इंजीनियर की कहानी है जिसे एम. जी. के. मेनन ने उठाया और प्रो. साराभाई जैसी हस्ती ने तैयार किया, और एक ऐसे कार्यदल नेता की कहानी, जिसे बड़ी संख्या में विलक्षण व समर्पित वैज्ञानिकों का समर्थन मिलता रहा। यह छोटी सी एक कहानी मेरे जीवन के साथ ही खत्म हो जाएगी। मेरे पास न धन, न संपत्ति, न मैंने कुछ इकट्ठा किया, कुछ नहीं बनाया है, जो ऐतिहासिक हो, शानदार हो, आलीशान हो। पास में कुछ नहीं रखा है- कोई परिवार नहीं, बेटा नहीं, बेटा-बेटी नहीं।
मैं नहीं चाहता कि मैं दूसरों के लिए कोई उदाहरण बनूं। लेकिन मुझे विश्वास है कि कुछ लोग मेरी इस कहानी से प्रेरणा जरूर ले सकते हैं और जीवन में संतुलन लाकर वह संतोष प्राप्त कर सकते हैं, जो सिर्फ आत्मा के जीवन में ही पाया जा सकता है। मेरे परदादा अवुल, मेरे दादा पकीर और मेरे पिता जैनुलआब्दीन की पीढ़ी अब्दुल कलाम के साथ ही खत्म होती है, लेकिन उस सार्वभौम ईश्वर की कृपा इस पुण्यभूमि पर कभी खत्म नहीं होगी, क्योंकि वह तो शाश्वत है।

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