ज्ञानेंद्र शर्मादस्तक-विशेषराष्ट्रीयस्तम्भ

तुम्हें बुरी सांस से बचाए भगवान!

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: माताएं एक जमाने से अपने लाडलों को बुरी नजर से बचाने के लिए माथे पर काला टीका लगाती रही हैं। उनकी एक ही प्रार्थना होती है- हमारे लला पर कोई बला न आए और आए भी तो वह टल जाए, उससे रक्षा हो जाय। पर अब तो नजर न तो चुराना है, न अच्छी-बुरी नजर से बचना-बचाना है।

असल में अब नजर से नहीं सांस से बचना है, बुरी सांस से बचना है और नजरों से तो हंसना है, बोलना भी है। किसी ने कहा भी है , सीख लो अब आंखों से मुस्कराना क्योंकि होठों की मुस्कान तो मास्क ने छिपा ली है। और सरकार भी न केवल पीछे है बल्कि पीछे भी पड़ी है। पहले उसने हेलमेट अनिवार्य किया, लेकिन ज्यादातर लोग अब भी उसकी सुनते नहीं।

कुछ समय पहले हम मोदी जी के और अमित शाह जी के गांधीनगर गए पर वहां हमें एक भी व्यक्ति हेलमेट लगाए नहीं दिखा! पान मसाला पर रोक लगाई, फिर खुद ही हटा ली, फिर पाॅलिथीन रोकी फिर उससे भी नजर चुरा ली। अब दो चीजों पर जोर है- मास्क नहीं लगाओगे तो 100 दण्ड और थूकोगे तो भी दण्ड।

वैसे सरकार के कड़े आदेश तो यह भी हैं कि ओवरलोडिंग कदापि बर्दाश्त नहीं होगी, लेकिन आज तड़के ही औरैया के पास एक ट्राला में ठूंस ठूंस कर जानवरों से भी बदतर तरीके से भरे गए 81 मजदूरों में से 24 उसी समय मौके पर ही अकाल मौत के शिकार हो गए जब उनके खडे ट्राला को दूसरे ने भीषण टक्कर मार दी। यह एक और आगे की कड़ी थी मजदूर नाम के इन अभागों का पीछा कर रहे दुर्भाग्य की।

वैसे सरकार के कड़े आदेश तो यह भी हैं कि ओवरलोडिंग कदापि बर्दाश्त नहीं होगी, लेकिन आज तड़के ही औरैया के पास एक ट्राला में ठूंस ठूंस कर जानवरों से भी बदतर तरीके से भरे गए 81 मजदूरों में से 24 उसी समय मौके पर ही अकाल मौत के शिकार हो गए जब उनके खडे ट्राला को दूसरे ने भीषण टक्कर मार दी। यह एक और आगे की कड़ी थी मजदूर नाम के इन अभागों का पीछा कर रहे दुर्भाग्य की।

तो अब जरा इस पर भी गौर करिए कि ये ‘मास्क’ आखिर क्या बला है। हिन्दी शब्दकोष कहते हैं कि मास्क का मतलब होता है मुखौटा। पर अर्थ सही नहीं लगता। तो फिर? मास्क का मतलब क्या नकाब है या चिलमन है या फिर मुखावरण या फिर फिल्म स्टार धर्मेन्द्र की वो बात जो साहिर लुधियानवी की कलम से निकली थी, मोहम्मद रफी के बोलों में उभरी थी और फिल्म ‘इज्जत’ से पर्दे पर छा गई थी: ‘क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छिपी रहे, नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छिपी रहे’।

आखिर साहिर ने समय से बहुत पहले मास्क की पहचान तो कर ली थी, लेकिन यह अनुमान नहीं कर पाए कि कुछ साल बाद यही चेहरे के ऊपर चेहरा यानी मास्क शोभा भी बढ़ाएगा, रक्षा भी करेगा। कहा जाता है कि जो मास्क पहनते हैं वे ज्यादा सच बोलते हैं, अपने खुद के कहीं अच्छे रक्षक हैं, उनकी तुलना में जो इसे नहीं पहनते। केवल मास्क को या नकाब को न देखिए, उसके पीछे की सोच बड़ी हो सकती है। अगर आप चाहें भी तो यह नहीं कह सकते कि मुझे मास्क की जरूरत नहीं, मैं वैसे भी सुंदर हूं। वरना मिलने वाले भी तो ये कह सकते हैं : क्या बताएं कि क्यों उनसे इतने संभल के मिले, आखिर वो जब भी मिले चेहरा बदल के मिले। और फिर अब आराम से यह भी कह सकते हैं , उस पार की मुस्कान तो मुखौटा है साहब, कभी अंदर झांकना, सब कुछ जर्जर मिलेगा।

लेकिन ये जो मास्क है, यह नकली चेहरा नहीं है, यह तो कवच है उस महामारी के हमले से जिसका नाम हे कोरोना। तो भी मास्क तो मास्क है सो उसे अपनी कथा सुनाने का हक है। इसीलिए कहते हैं कि ये मास्क हटाना भी तो एक हाॅरर है, डरावना है, दहशत है, संत्रास है। लाख लाख शुक्र है कि मास्क हटाने में डर लगता है।

किसी ने आखिर कहा है -‘‘जनाब मुखौटे को जरा अदब से पकड़िए, कहीं गिर गया तो मैला मुखौटा नहीं, आप हो जाएंगे’’।

यह भी कह सकते हैं: उन आंखों की कद्र करता हूं जो सच कह जाती हैं वरना चेहरों पर नकाब पहनकर तो हर कोई घूम रहा है। फिर आप आराम से कभी सवाल भी कर सकते हैं- अपने अपनों से-:‘तुम मुझे प्यार करते हो या फिर मेरे मास्क से जो मैं रोज चेहरे पर लगाकर तुमसे मिलता हूॅ’?

और अंत में, अब मास्क लगाए बिना बाहर निकलने पर दंड का प्रावधान है पर अभी दो महीने पहले का हाल क्या था? जरा गौर करिए 18 मार्च 2020 के 11 बजकर 2 मिनट की राज्यसभा की कार्यवाही पर। तृणमूल कांग्रेस के कुछ सदस्य सदन में मास्क पहन कर आते हैं तो सभापति महोदय कड़ी आपत्ति करते हैं। वे कहते हैं -सदन में मास्क पहन कर आना एलाऊ नहीं है। आप सीनियर मेंबर हैं, बाहर जाइए मास्क उतारकर आइए। सदन के अंदर मास्क पहनने की अनुमति नहीं दी जा सकती। …. हालांकि जब वरिष्ठ सदस्य चिदांबरम ने अनुरोध किया कि अपने बचाव के लिए मास्क पहनने की इजाजत होनी चाहिए तो सभापति मान गए।

इसे कहते हैं, समय का फेर! है न? वरना सदन के बाहर की विडम्बना तो यह भी है कि जो मास्क पहनते हैं, वे कहीं ज्यादा सच बताते हैं, उनकी तुलना में जो खुला चेहरा लेकर घूमते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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