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आओ तोड़ें मौन खुद से पूछें, मानव-वन्यजीव संघर्ष’ के लिए जिम्मेदार कौन?

गुलदार बीते दो महीने में राजधानी देहरादून में दो मासूमों की जान ले चुका है। गुलदार द्वारा नन्हें मासूम को घर के आंगन से उठाकर ले जाना हतप्रभ करने जैसा है। गुलदार के हमले में कई लोग जख्मी भी हुए। पिछले 23 वर्षों में प्रदेश में जंगली जानवरों के हमले से 1115 जानें गईं, जिनमें 50 फीसदी जानें गुलदार ने ली हैं। आज पर्वतीय इलाके ही नहीं, शहर भी गुलदार के आतंक से पीड़ित हैं। पिछले कई वर्षों में मानव पर गुलदार के हमले निरंतर बढ़ रहे हैं। वहीं, हाथी व भालू भी जानलेवा हमले कर चुके हैं। यह स्थिति मानव व वन्यजीवों के बीच संघर्ष चरम पर पहुंचना दर्शाता है। मानव व वन्यजीव संघर्ष न सिर्फ मानव व वन्यजीवों के जीवन के लिए खतरनाक हैं, बल्कि यह जैव-विविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। अत: अब समय आ गया है कि मानव-वन्य जीवों के संघर्ष के कारणों का गंभीरता व ईमानदारी से विश्लेषण किया जाए और इसके स्थायी समाधान के लिए प्रयास किए जाएं। ताकि, मानव व वन्यजीवों के बीच छिड़ी जंग को यही रोका जा सके।

राम कुमार सिंह

हिमालयी राज्य उत्तराखंड में मानव-वन्य जीव संघर्ष की निरंतर बढ़ रही घटनार्एं ंचताजनक हैं। जिस प्रकार वन्य जीव आबादी में प्रवेश कर रहे हैं और मानव पर जानलेवा हमले कर रहे हैं, इससे मानव भौतिकवादी सुविधाओं के बावजूद खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। गत वर्षों में मानव पर गुलदार, भालू, हाथी जैसे खतरनाक वन्य जीवों के हमले निरंतर बढ़ रहे हैं। इसमें गुलदार का आतंक मुख्य है। अभी पर्वतीय जिलों में दहशत फैलाने वाले गुलदार की आमद शहरी क्षेत्रों में भी देखने को मिलने लगी है। गुलदार न सिर्फ शहरी इलाकों में पशुओं को निवाला बना रहा है, बल्कि छोटे बच्चों पर भी जानलेवा हमला करने से गुरेज नहीं कर रहा है। पिछले दो महीने में राजधानी देहरादून में भी गुलदार को कई बार आबादी में देखा गया है। इतना ही नहीं, गुलदार के दो अलग-अलग हमलों में दो मासूमों की जान भी चली गई। इससे राजधानी में भी जंगलों से सटे आबादी वाले इलाकों में लोग खौफजदा हैं। वहीं, गत वर्ष प्रदेश में 14 से ज्यादा गुलदार के जानलेवा हमले हुए हैं। इसके अलावा भालू के भी पांच हमले हो चुके हैं। हाथी व जंगली सुअर भी निरंतर खतरा बनते रहे हैं। यह दर्शाता है कि वर्तमान समय में मानव-वन्य जीव संघर्ष पर्वतीय क्षेत्रों तक सीमित न होकर शहरी क्षेत्रों में भी विस्तार ले रहा है। इससे मानव व वन्य जीवों के बीच छिड़ी जंग को आसानी से समझा जा सकता है।

मानव-वन्यजीवों के संघर्ष के कारणों पर ईमानदारी से गौर करें तो ऐसा नहीं है कि वन्यजीवों के मानव पर हमले अचानक ही हो रहे हों। इसके लिए कहीं न कहीं मानव ही जिम्मेदार है क्योंकि, वन्यजीव हमले शहरीकरण व आधुनिक विकास की दीर्घकालिक प्रक्रिया की प्रतिक्रिया है। यह ऐसी जटिल समस्या है, जिसका स्थायी समाधान कोई सरकार व वन विभाग खोजने में नाकाम रहे हैं। जंगली जानवरों के बड़े हमलों के बाद सरकार व विभाग सक्रिय तो नजर आते हैं, परंतु दिन गुजरने के साथ प्रतिबद्धता भी नगण्य सी प्रतीत होती रही हैं। सरकारी विभाग को ऐसा समाधान प्रस्तुत करना चाहिए, जिससे वन्यजीवों को आबादी में प्रवेश करने से रोका जा सके और मनुष्यों का भी प्राकृतिक आवासों में हस्तक्षेप न हो। भले ही वर्तमान में आबादी को व्यवस्थित व विकास को विस्तार देना समय की नितांत आवश्यकता हो, परंतु मानवीय हितों की पूर्ति के सापेक्ष वन्यजीवों के आवासों को संकट में डालना कतई न्यायोचित नहीं है।

उत्तराखंड अपनी अनूठी जैव-विविधता के लिए प्रसिद्ध है। राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में भौगोलिक और जलवायु विविधता के कारण हिमालय से लेकर तराई के मैदानों तक विभिन्न प्रकार के वन पाए जाते हैं। राज्य में मौजूद जैव विविधता के कारण कुल भौगोलिक क्षेत्र का 12 प्रतिशत संरक्षित क्षेत्र है जिसमें 6 राष्ट्रीय उद्यान, 7 वन्यजीव अभ्यारण्य, 4 संरक्षण और एक बायोस्फीयर रिजर्व शामिल हैं। उत्तराखंड पौधों और जानवरों की दुर्लभ प्रजातियों का घर है, जिनमें से कई अभयारण्यों और भंडारों द्वारा संरक्षित हैं। अब इतने समृद्ध जैवविविधता वाले राज्य उत्तराखंड में वन्य जीवों की संख्या और उनके भ्रमण के पैटर्न को देखते हुए मानव पशु संघर्षों के समाधान की प्रभावी रणनीति बनाना आवश्यक हो जाता है। उत्तराखंड में मानव पशु संघर्ष इसलिए गंभीर चुनौती बन सकता है क्योंकि वन्यजीवों से मानव जीवन खतरे में पड़ जाने के कारण पहाड़ों से पलायन भी बढ़ता जा रहा है और गांव निरन्तर खाली होते जा रहे हैं। जिन गावों में थोड़े बहुत लोग टिके हुए भी हैं, उनका जीवन गुलदार, भालू, बंदर एवं सुअर जैसे वन्य जीवों ने संकट में डाल दिया है। गांव के लोग ठीक तरीके से कृषि गतिविधियों को भी नहीं कर पाते। इससे उनके सामने आजीविका का संकट भी पैदा हो सकता है। गौरतलब है कि उत्तराखण्ड विधानसभा में पिछले साल 29 नवम्बर को एक प्रश्न के उत्तर में राज्य के वनमंत्री ने गत तीन वर्षों में वन्य जीवों द्वारा 161 लोगों के मारे जाने की बात कही थी। इनमें सर्वाधिक मानव मौतें गुलदार के हमलों से बताई गईं थीं।

डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 2000 से लेकर 2015 तक उत्तराखण्ड में 166 तेंदुए और 16 बाघ मानवभक्षी घोषित कर उन्हें मारने के आदेश जारी हो चुके थे, जबकि टाइम्स आफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 2000 से लेकर 2019 तक राज्य में 60 मानवभक्षी मारे गए। इनमें 4 बाघ और 56 तेंदुए थे। वन्यजीवों से मानव जीवन के लिए सर्वाधिक खतरा पहाड़ों में ही है, क्योंकि पहाड़ों में सामान्यत: हाथी और टाइगर जैसे बड़े जीव नहीं चढ़ते। हालांकि अब हाथी और टाइगर भी पहाड़ चढ़ने लगे हैं, क्योंकि पलायन के कारण गांव वन्यजीवों के लिए नए आवास बनते जा रहे हैं।उत्तराखंड में वनों के अन्दर या नजदीक की बस्तियों में मवेशी उठाने और मानवों पर तेंदुओं के हमले की घटनाएं सालाना बढ़ जाती हैं। टिहरी जिले में देवप्रयाग-कीर्तिनगर रेंज और पौड़ी जिले में पौड़ी रेंज उत्तराखंड में मवेशी उठाने और मानव मृत्यु के लिए सबसे अधिक संवेदनशील माने गए हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान के मनोज अग्रवाल आदि वैज्ञानिकों के शोध पत्र के अनुसार पौड़ी जिले में समुद्रतल से 900 मीटर से लेकर 1500 मीटर की ऊंचाई वाला क्षेत्र मानव गुलदार संघर्ष के लिए सबसे अधिक संवेदनशील है। जिले में 400 से लेकर 800 मीटर और 1600 से लेकर 2300 मीटर की ऊंचाई तक यह खतरा बहुत मामूली है जबकि 2300 मीटर से ऊपर और 400 मीटर से नीचे कोई मानव-गुलदार संघर्ष नहीं पाया गया है।

शोधपत्र के अनुसार नरेंद्र नगर वन प्रभाग गढ़वाल हिमालय में जैव विविधता का एक महत्वपूर्ण भंडार है। यहां जंगल में पादप विविधता के चलते जंगली जानवरों के बड़े समूहों को अनुकूल स्थिति मिलती है। इस वन प्रभाग के 3 रेंज मानिकनाथ, शिवपुरी और सकलाना के साथ-साथ हाल ही में बनाए गए नरेंद्रनगर और कीर्तिनगर रेंज हाथियों, बाघों, तेंदुओं, जंगली सुअरों, बंदरों, हिरणों आदि की आबादी के लिए मुफीद माने जाते हैं। इन वन्यजीवों की निकटता से आसपास की आबादी और वन्यजीवों का संघर्ष बढ़ जाता है। वन्यजीव संस्थान के डी.एस. मीना और डीपी बुलानी आदि के एक अध्ययन के अनुसार चार धाम मार्ग के चौड़ीकरीण एवं रेल आदि परियोजनाओं के कारण भी वन्य जीवन प्रभावित हुआ है। मार्ग के लम्बे समय तक अवरुद्ध रहने से भी गुलदार जैसे वन्य जीवों को आसपास की बस्तियों में घुसने की आजादी मिली है। वास्तव में मानव-वन्यजीव संघर्ष को रोकना उत्तराखंड वन विभाग के लिए बड़ी चुनौती है। पूरा राज्य जंगली जानवरों के हमले से प्रभावित है। गढ़वाल में गुलदारों का आतंक है तो कुमाऊं के रामनगर-हल्द्वानी बेल्ट में जंगली हाथियों के हमले बढ़ रहे हैं। गुलदार खासतौर पर छोटे बच्चों पर हमला करते हैं। ग्रामीणों के मवेशियों पर घात लगाते हैं। इससे जंगल के इर्द-गिर्द रहने वाले लोग भी वन्यजीवों से नाराज रहते हैं। उत्तराखंड वन विभाग के मुख्य वन्यजीव वार्डन के अनुसार, लगभग वन्य जीवों के हमलों में 75 प्रतिशत मौतें महिलाओं की होती हैं। अधिकांश महिलाएं चारा इकट्ठा करने, मवेशियों को चराने या सुबह या देर शाम को कृषि कार्य के लिए खेतों में जाती हैं।

मानव-पशु संघर्ष मुद्दे पर धामी सरकार के नए निर्णय

इस मामले की गंभीरता को देखते हुए इंसान और वन्य जीव संघर्ष मामले में उत्तराखंड की धामी सरकार ने साफ किया है कि वह ऐसा ब्लू प्रिंट तैयार कर उस पर काम करेगी जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष पर लगाम लगाई जा सके। इस बीच, उत्तराखंड सरकार ने मुआवजे की राशि बढ़ा दी है। वन्यजीवों के हमले में मौत होने पर चार लाख की जगह अब छह लाख रुपए का मुआवजा दिया जाएगा। इस तरह मानव वन्यजीव संघर्ष राहत वितरण निधि नियमावली 2024 की अधिसूचना जारी कर दी गई है। इसके साथ ही भवन व फसल क्षति के मामलों में भी मुआवजा राशि चार लाख से बढ़ाकर छह लाख कर दी गई है। उत्तराखंड सरकार ने यह भी निर्णय लिया है कि फसलों, मकानों, पशुओं पर भी जंगली जानवरों के नुकसान पर मुआवजा मिलेगा। जंगली जानवरों से होने वाले नुकसान के मुआवजा प्रबंधन के लिए प्रमुख वन संरक्षक की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय समिति गठित की जाएगी। इस समिति की देखरेख में 20-20 लाख रुपये सभी वन प्रभागों के खातों में भेजे जाएंगे। अगर कोई संस्था इस निधि में दान करेगी तो उसे आयकर अधिनियम के तहत छूट मिलेगी।

स्थानीय जनप्रतिनिधि व वन विभाग के कर्मियों की पुष्टि बाद 48 घंटे के भीतर मानव हानि पर 30 प्रतिशत, पशु हानि पर 20 प्रतिशत मुआवजा मिल जाएगा। वहीं, फसलों की क्षति की सूचना दो दिन के भीतर स्थानीय वन अधिकारी को लिखित रूप से देनी होगी, जिस पर जांच के बाद 15 दिन के भीतर मुआवजा मिल जाएगा। मुआवजे की राशि राज्य आपदा मोचन निधि और मानव वन्यजीव संघर्ष राहत वितरण निधि से मिलेगी। अगर मुआवजे के लालच में किसी ने अपने परिवार के सदस्य या बाकी व्यक्ति को जो बुजुर्ग, बीमा, विकलांग या मानसिक रूप से असंतुलित हो को, जंगल में भेजा तो उसे मुआवजा नहीं मिलेगा। मुआवजे के दावे के अवैध होने की पुष्टि पर मुकदमा दर्ज होगा। अभी हाल ही में अभिनेता पंकज त्रिपाठी अभिनीत फिल्म ‘शेरदिल: द पीलीभीत सागा’ आई थी जिसमें यही दिखाया गया था कि मुआवजा पाने की लालसा में अभिनेता जंगल में जाकर अपने को जंगली जीवों का आहार बनवाने की कोशिश करता है।

सवाल यह भी उठता है कि अगर हिंसक जंगली पशु रिहायशी इलाकों में आकर इंसानों की मौत का कारण बन रहा है तो क्या उसे मारा जा सकता है। हमारे देश में इन मामलों को वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत देखा जाता है जिसमें महत्वपूर्ण वन्य जीवों जिनके बिना जंगल जंगल नहीं रहेगा जैसे शेर, बाघ, तेंदुआ, हाथी आदि को शेड्यूल-1 जीव के रूप में सूचीबद्ध किया गया है जिनको मारने पर तीन साल और अधिकतम 7 साल की सजा और 25 हजार रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। इस प्रकार हमारा कानून तेंदुओं, गुलदार को मारने पर प्रतिबंध लगाता है। यहां पर एक सवाल यह उठता है कि क्या सरकारों और कानूनों को केवल वन्य जीव अधिकारों के प्रति ही संवेदनशील होना चाहिए और जिन इंसानों को यह जानवर निशाना बना रहे हैं उनका कोई अधिकार नहीं? क्या उनके जीवन के अधिकार का उल्लंघन नहीं हो रहा है तो इसका जवाब है कि बिलकुल हो रहा है लेकिन तर्क यह है कि सरकारों, वन्य जीव संस्थाओं के अधिकारियों, ग्रामीणों सभी की जिम्मेदारी है कि जंगल में वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों को नष्ट न होने देने में अपना योगदान करें और यही स्थाई समाधान है। आज जंगली जीवों के प्राकृतिक आवासों का क्षरण हो रहा है, ग्रामीणों द्वारा जंगली क्षेत्रों का अतिक्रमण, चारे, लकड़ी ईंधन की प्राप्ति के लिए जंगलों से छेड़छाड़ की जा रही है, विकास परियोजनाओं के नाम पर जंगली जीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं, जंगली नदियों की जलधार सूख रही है। जंगली जीवों को खाने पीने की कमी भी पड़ रही है। अवैध शिकार, तस्करी के चलते बड़े जीवों के लिए आहार कम पड़ रहा है। विदेशी आक्रामक पादप प्रजातियां जंगलों में उगकर घास भूमियों को नष्ट कर रही हैं। लैंटाना जैसे प्लांट्स के चलते घास की कमी, घास की कमी के चलते शाकभक्षी जीवों (हर्बीवोर जैसे हिरन आदि) की संख्या में कमी आने से गुलदार, तेंदुओं, बाघ जैसे कार्नीवोर जीवों के लिए खाने की कमी पड़ रही है और वे रिहायशी इलाकों की तरफ रुख कर रहे हैं।

बिहार एवं हिमाचल प्रदेश को 1972 के वन्यजीवन सुरक्षा अधिनियम के अतंर्गत कुछ वन्य प्रजातियों को अपराधी की श्रेणी में रखकर उन्हें मारने का अधिकार दे दिया है। इन हत्याओं को लेकर कोई अभियोग नहीं लगाया जाएगा। इसी तरह से महाराष्ट्र और तेलगाना ने भी निर्देश जारी किए हैं। बिहार और महाराष्ट्र में नीलगाय, हिमाचल प्रदेश में बंदर तथा अन्य राज्यों में जंगली सूअरों के नष्ट किए जाने पर कोई अभियोग नहीं लगाया जाएगा। इसका मुख्य कारण इनके द्वारा फसल को बर्बाद करना है। दूसरे इनकी संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है। वन्य पशुओं के कारण हुई मानवीय मौतों को रोकने के लिए उनके आगमन या स्थिति की सही जानकारी देने वाले तंत्र के विकास की आवश्यकता है। जैसे कि हाथी अक्सर झुंड में चलते हैं और उनकी गतिविधियों की दिशा की जानकारी वन विभाग को मिलती रहती है। हाथी-बहुल इलाकों में वन विभाग कुछ सड़कों को रात के समय बंद भी कर देता है, तथा वहां हाथियों से सावधान रहने संबधी चेतावनी भी लगा दी जाती है। आज वन्य जीवन संरक्षणकर्ता अनेक प्रकार के आधुनिक यंत्रों से लैस होते हैं। उनके पास एसएमएस एलर्ट के लिए मोबाइल फोन, वन्यपशु की स्थिति की जानकारी के लिए स्वचालित प्रणाली एवं चेतावनी देने वाले तंत्र होते हैं। इनकी मदद से वन्य पशुओं की गतिविधियों को जानकर मानव-जीवन की, फसल की एवं संपत्ति की रक्षा की जा सकती है।

जंगलों के मध्य बसे गांवों में सुरक्षित आवास, बिजली की उपलब्धता, घर में शौचालयों के निर्माण एवं इन क्षेत्रों को अच्छी परिवहन सेवा से जोड़कर मानव-वन्यजीवन संघर्ष को बहुत कम किया जा सकता है। पशुओं के आवास को खनन या मानव बस्तियों के लिए उजाड़ा जा रहा है। पशु किसी भी खेत में तब घुसते हैं, जब वह खेत उनके आवासीय क्षेत्र के आसपास हो, फसल खाने योग्य हो, जल स्रोत के पास हो या पशुओं के विचरण क्षेत्र में आते हों। ऐसे खास स्थानों को पहचानकर उनकी बाड़बंदी या बिजलीयुक्त बाड़ लगवाई जा सकती है। पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय फसल बीमा योजना में वन्य पशुओं के कारण हुई फसल क्षति को भी बीमा में शामिल करने की सिफारिश की है। इसके साथ ही विनाशकारी पशुओं पर आरोप लगाने की बजाय ऐसे समस्याग्रस्त जगहों की पहचान करके वहां के लोगों को समय-समय पर सतर्क किया जाना चाहिए। स्थानीय जनता और वन विभाग कर्मचारियों को पशुओं से बचने के लिए प्रशिक्षित एवं सशक्त बनाने की बहुत जरूरत है।

भारतीय वन्यजीव संस्थान के अध्ययनों से पता चलता है कि सह-अस्तित्व की रणनीतियों के लिए सार्वजनिक जागरूकता, चराई पर्यवेक्षित चराई, उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों के बारे में जागरूकता, बचाव दल द्वारा त्वरित प्रतिक्रिया, मानव बस्तियों के आसपास पौधों की अनावश्यक छतरी या झाड़ियों को हटाने से यह संघर्ष रोका या कम किया जा सकता है। राज्य ने उच्च तेंदुए की आबादी वाले क्षेत्रों में गश्त बढ़ाने के साथ-साथ जानवरों को रेडियो-कॉलिंग करने का सहारा लिया है। वर्ष 2000-2020 के बीच उत्तराखंड में 75 तेंदुओं को आदमखोर घोषित किया गया है। वन विभाग के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में अकेले 27 आदमखोर घोषित किया गया है। निश्चित रूप से इस समस्या के समाधान के लिए एक बहुआयामी रणनीति पर काम करना होगा और उत्तराखंड की धामी सरकार को पता है कि इस दिशा में क्या उचित कार्यवाही हो। वन क्षेत्रों की सुरक्षा, वनों की अवैध कटाई पर रोक, प्राकृतिक आवासों की रक्षा, वाइल्डलाइड फेंसिंग आदि क्षेत्रों में प्रभावी कार्यवाही कर सरकार इस समस्या से निपटने को तैयार है।

जंगली जानवरों ने ली 1115 जानें, 50 फीसदी सिर्फ गुलदार

उत्तराखंड वन विभाग की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार, 1 जनवरी 2000 से लेकर 12 अक्टूबर 2023 तक प्रदेश में जंगली जानवरों के कुल 5491 हमले हो चुके हैं, जिनमें कुल 1 हजार 115 लोगों की जान जा चुकी हैं। इतनी बड़ी संख्या में जान जाना बेहर चिंताजनक है। वहीं, सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि 23 वर्षों में गुलदार ने सबसे ज्यादा 1873 हमले किए, जिनमें 515 जानें सिर्फ गुलदार ने ली। इसमें पिछले 4 महीने की घटनाएं शामिल नहीं की गई हैं। इन्हें मिलाकर यह आंकड़ा और भी अधिक है।

मानव-वन्यजीव संघर्ष पर सख्त हुई धामी सरकार

पिछले कई तीन महीने में राजधानी से सटे आबादी वाले इलाकों में निरंतर गुलदार की दस्तक और दो बच्चों की मौतों को लेकर धामी सरकार सख्त नजर आ रही है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वन विभाग के शीर्ष अधिकारियों को जमकर फटकार लगाई है और वन्यजीवों के आबादी में प्रवेश रोकने के लिए स्थायी प्रबंध करने के कड़े निर्देश दिए हैं। सीएम धामी के कड़े निर्देश मिलते ही वाइल्डलाइफ कन्जर्वेटर ने आदमखोर गुलदार को गोली मारने के आदेश जारी कर दिए। विभाग ने प्रभावित इलाकों में पिंजरे व 10 ट्रैस कैमरे लगाए। बता दें कि पिछले दिनों गुलदार ने मसूरी रोड पर एक छोटे बच्चे पर जानलेवा हमला किया, जिसमें बच्चे की मौत हो गई। लगातार गुलदार के हमले से लोगों में भारी गुस्सा नजर आ रहा है, जिसके बाद अब सीएम धामी स्वयं पूरे घटनाक्रम पर नजर रख रहे हैं।

(साथ में विवेक ओझा)

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