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रूस के आक्रामक रवैये को देख दुनिया में बढ़ी चिंता, इस सदी में युद्ध की आशंका

नई दिल्ली। दो हफ्ते पहले तक दुनियाभर में यह धारणा बन चुकी थी कि 21वीं सदी में युद्ध नहीं होने वाला। लेकिन रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने जंग छेड़ दी और अब सुरक्षा के लिहाज से दुनिया का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। ‘युद्ध नहीं होगा’ वाला नजरिया पर ‘कुछ भी हो सकता है’ में तब्दील हो चुका है। रूस-यूक्रेन युद्ध तो महज एक शुरुआत है। आशंका इस बात की है कि अब तक युद्ध टाल रहे दुनिया के देशों का इससे हौसला बढ़ेगा। पहले सोचा जाता था कि देशों के अपने बाजार और नागरिक हितों के कारण लड़ाइयां अब नहीं लड़ी जाएंगी लेकिन 21वीं सदी में रूस ने नया चैप्टर जोड़ दिया है। रूस में पूर्व राजदूत रहे डीबी वेंकटेश वर्मा ने हमारे सहयोगी अखबार इकनॉमिक टाइम्स में अपने लेख में इस बात की आशंका जाहिर की है कि अभी तो यह शुरूआत है, बड़ी लड़ाइयां आगे लड़ी जानी हैं।

वेंकटेश कहते हैं कि भारत की सबसे बड़ी चिंता अपने नागरिकों को सुरक्षित स्वदेश लाना है। अब तो यह जंग का शुरुआती दौर है लेकिन रूस ने जो ट्रेंड सेट किया है उससे भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। युद्ध के चलते रूस और पश्चिम के देशों में तनाव बढ़ा है लेकिन इसमें दूसरे देशों को भी प्रभावित करने की क्षमता है। बेलारूस के साथ रूस का सालाना डिफेंस बजट 80 अरब डॉलर है जबकि अमेरिका, NATO, यूरोपीय संघ और अमेरिका के एशिया में सहयोगी- जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया का संयुक्त रूप से मिलिट्री बजट एक ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा है।

21वीं सदी के असैन्य हथियार
रूस 20वीं सदी के सैन्य हथियारों के साथ जंग लड़ रहा है, दूसरी तरफ यूक्रेन NATO देशों से मिल रहे हथियारों से डटकर मुकाबला कर रहा है। इस युद्ध और तनाव के विकराल रूप धारण करने की पटकथा लिखी जा चुकी है। यूक्रेन पर हमला करने के बाद रूस के खिलाफ फौरन कई तरह के व्यापक प्रतिबंध लगा दिए गए। इसमें ऊर्जा क्षेत्र भी शामिल है। ये 21वीं सदी के असैन्य हथियार हैं जो युद्ध के पारंपरिक हथियारों से कहीं ज्यादा घातक साबित हो सकते हैं और भारी उथल-पुथल मचाने की ताकत रखते हैं।

अलग पड़ रहा रूस
डीबी वेंकटेश कहते हैं कि वैश्वीकरण के साथ रूस का तीन दशक लंबा जुड़ाव दरक रहा है। रूस और वहां की जनता के बाहरी संबंध खत्म हो रहे हैं। रूस अलग-थलग पड़ रहा है और वित्त, कारोबार, परिवहन और तकनीक के क्षेत्र में उसके संबंध बिखर रहे हैं। शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ से कहीं ज्यादा व्यापक और गहरा असर इस बार दिख रहा है।

पहले प्रतिबंधों का मकसद डेटरेंस था तो इस बार अलग-थलग कर रूस को कमजोर करना उद्देश्य है। पश्चिमी देशों और रूस का रुख मौजूदा तनाव को बढ़ाने वाला ही दिख रहा है। यह एक हाइब्रिड वॉर की तरह है जिसमें वैश्वीकरण और जियोपॉलिटिक्स के चलते दूर मौजूद देश भी युद्ध की आंच से प्रभावित हो सकते हैं।

दुनिया में एक दूसरे देशों पर निर्भरता सभी को समान रूप से नुकसान पहुंचाती है। रूस पर पाबंदियां लगने का यह मतलब नहीं है कि पश्चिमी देशों को कोई नुकसान नहीं होने वाला। रूस में लंबे समय से काम करने वाली पश्चिमी देशों की प्राइवेट कंपनियों को उनकी सरकार ने बाहर निकलने का आदेश दिया है। इसमें से कुछ कंपनियां और वेंचर काफी प्रॉफिट में चल रहे हैं। एक राजनीतिक फरमान से कॉमर्शियल ऑपरेशंस बंद हो गए। सुरक्षा कारण बताकर कंपनियों को नुकसान में ढकेला जा रहा है।

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