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राजा विक्रमादित्य की कुल देवी हरसिद्धि माता की कथा

चक्र से माँ सती के शव के कई टुकड़े हो गए। उनमें से १३वा टुकड़ा माँ सती की कोहनी के रूप में उज्जैन के इस स्थान पर गिरा। तब से माँ यहां हरसिद्धि मंदिर ( हरसिद्धि माता) के रूप में स्थापित हुईं।

Mata Harsidhhi : राजा विक्रमादित्य की कुल देवी हरसिद्धि माता की कथा

उज्जयिन्यां कूर्परं व मांगल्य कपिलाम्बरः।
भैरवः सिद्धिदः साक्षात् देवी मंगल चण्डिका।

पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार माता सती के पिता दक्षराज ने विराट यज्ञ का भव्य आयोजन किया था जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवता व गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया। परन्तु उन्होंने माता सती व भगवान शिवजी को नहीं बुलाया। फिर भी माता सती उस यज्ञ उत्सव में उपस्थित हुईं। वहां माता सती ने देखा कि दक्षराज उनके पति देवाधिदेव महादेव का अपमान कर रहे थे। यह देख वे क्रोधित हो अग्निकुंड में कूद पड़ीं।

यह जानकर शिव शंभू अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने माता सती का शव लेकर सम्पूर्ण विश्व का भ्रमण शुरू कर दिया। शिवजी की ऐसी दशा देखकर सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मच गया। देवी-देवता व्याकुल होकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और संकट के निवारण हेतु प्रार्थना करने लगे। तब शिवजी का सती के शव से मोहभंग करने के लिए भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र चलाया था। चक्र से माँ सती के शव के कई टुकड़े हो गए। उनमें से १३वा टुकड़ा माँ सती की कोहनी के रूप में उज्जैन के इस स्थान पर गिरा। तब से माँ यहां हरसिद्धि मंदिर के रूप में स्थापित हुईं।

इतिहास के पन्नों से यह ज्ञात होता है कि माँ हरसिद्धेश्वरी सम्राट विक्रमादित्य की आराध्य देवी थी जिन्हें प्राचीन काल में ‘मांगलचाण्डिकी’के नाम से जाना जाता था। राजा विक्रमादित्य इन्हीं देवी की आराधना करते थे एवं उन्होंने ग्यारह बार अपने शीश को काटकर माँ के चरणों में समर्पित कर दिया पर आश्चर्यवाहिनी माँ पुनः उन्हें जीवित व स्वस्थ कर देती थी। यही राजा विक्रमादित्य उज्जैन के सम्राट थे जो अपनी बुद्धि, पराक्रम और उदारता के लिए जाने जाते थे। इन्हीं राजा विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत सन की शुरुआत हुई।

उज्जैन में हरसिद्धि देवी की आराधना करने से शिव और शक्ति दोनों की पूजा हो जाती है। ऐसा इसलिए कि यह ऐसा स्थान है, जहां महाकाल और मां हरसिद्धि के दरबार हैं।

कहते हैं कि प्राचीन मंदिर रुद्र सरोवर के तट पर स्थित था तथा सरोवर सदैव कमलपुष्पों से परिपूर्ण रहता था। इसके पश्चिमी तट पर ‘देवी हरसिद्धि’ का तथा पूर्वी तट पर ‘महाकालेश्वर’ का मंदिर था। 18वींशताब्दी में इन मंदिरों का पुनर्निर्माण हुआ। वर्तमान हरसिद्धि मंदिर चहार दीवारी  घिरा है।

मंदिर के मुख्य पीठ पर प्रतिमा के स्थान पर ‘श्रीयंत्र’ है। इस पर सिंदूर चढ़ाया जाता है, अन्य प्रतिमाओं पर नहीं और उसके पीछे भगवती अन्नपूर्णा की प्रतिमा है। गर्भगृह में हरसिद्धि देवी की प्रतिमा की पूजा होती है। मंदिर में महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर के पूर्वी द्वार पर बावड़ी है, जिसके बीच में एक स्तंभ है, जिस पर संवत 1447 अंकित है तथा पास ही में सप्तसागर सरोवर है।

मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते ही सामने मां हरसिद्धि के वाहन सिंह की विशाल प्रतिमा है। द्वार के दाईं ओर दो बड़े-बड़े नगाड़े रखे हैं, जो प्रातः सायं आरती के समय बजाए जाते हैं। मंदिर के सामने दो बड़े दीप स्तंभ हैं। इनमें से एक का नाम ‘शिव’ है, जिसमें 501 दीपमालाएँ हैं, दूसरे स्तंभ का नाम पार्वती है जिसमें 500 दीपमालाएँ हैं तथा दोनों दीप स्तंभों पर दीपकजलाए जाते हैं। कुल मिलाकर इन 1001 दीपकों को जलाने में एक समय में लगभग 45 लीटर तेल लग जाता है

श्री हरसिद्धि मंदिर के गर्भगृह के सामने सभाग्रह में श्री यन्त्र निर्मित है। कहा जाता है कि यह सिद्ध श्री यन्त्र है और इस महान यन्त्र के दर्शन मात्र से ही पुण्य का लाभ होता है। शुभफल प्रदायिनी इस मंदिर के प्रांगण में शिवजी का कर्कोटकेश्वर महादेव मंदिर भी है जो कि चौरासी महादेव में से एक है जहां कालसर्प दोष का निवारण होता है ऐसा लोगों का विश्वास है। मंदिर प्रांगण के बीचोंबीच दो अखंड ज्योति प्रज्वलित रहती है जिनका दर्शन भक्तों के लिए शांतिदायक रहता है।

प्रांगण के चारों दिशाओं में चार प्रवेश द्वार है एवं मुख्य प्रवेश द्वार के भीतर हरसिद्धि सभाग्रह के सामने दो दीपमालाएँ बनी हुई है जिनके आकाश की और मुख किये हुए काले स्तम्भ प्रांगण के भीतर रहस्यमयी वैभव का वातावरण स्थापित करते हैं। यह दीपमालिकाएं मराठाकालीन हैं। ज्योतिषियों के अनुसार इसका शक्तिपीठ नामकरण किया गया है। ये नामकरण इस प्रकार है- स्थान का नाम १३ उज्जैन, शक्ति का नाम मांगलचाण्डिकी और भैरव का नाम कपिलाम्बर है। इस प्राचीन मंदिर के केंद्र में हल्दी और सिन्दूर कि परत चढ़ा हुआ पवित्र पत्थर है जो कि लोगों कि आस्था का केंद्र है।

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