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मजदूर ही क्यों, आप क्यों नहीं

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: दिल खुश करने वाली एक तस्वीर आज अखबारों में छपी। वायुसेना के हैलीकाप्टर के केबिन में एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बैठे हैं और दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल की तेजतर्रार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। संगत तो है लेकिन दूरी भी है। दूरी है और मुॅह बंद हैं। और उधर वे दो नेता जो कभी कभार ही एक दूसरे के खिलाफ मुॅह बंद रखते हैं, अलग बगल खड़े थे, हवाई अड्डे पर प्रधानमंत्री का स्वागत करने को आगे राज्यपाल धनखड़ और उनके पीछे मुख्यमंत्री ममता। यह दूरी और मुॅहबंदी कोई राजनीतिक कारणों से नहीं थी। इसकी वजह थी कोरोना, काश बिना कोरोना माई के भी ऐसा हो।

कोरोना के चलते, कई काम सरकार ने किए और सबसे प्रखर काम था, श्रम कानूनों को हल्का करना। अब हड़तालें भी रोक दी गई हैं। महामारी से बचाव के लिए गजब एका दिखाने वाले मजदूर और दूसरे देशवासी फिर भी ऐतराज नहीं करते अगर यही काम बड़े लोग, नेता लोग भी करने लगते और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते। पहल सत्तारूढ़ भाजपा की तरफ से होनी चाहिए थी। लेकिन उल्टा ही हुआ।

भाजपा के नेताओं ने वह संयम नहीं बरता जिसकी खुद प्रधानमंत्री अपने भाषणों में अपील करते रहे हैं। कोलकाता में भाजपा नेताओं ने पहले राज्य सरकार पर कोरोना के आंकड़े छिपाने का आरोप लगाया। फिर वे राजभवन पहुॅच गए ‘अपने’ राज्यपाल से मिलने और यह कहने को कि आप खुद आंकड़ों की जाॅच करा लो। केन्द्र ने भी कमी नहीं रहने दी। उसने दो टीमें भेज दीं जाॅच करने को और एक टीम तो राज्य पुलिस की जगह केन्द्रीय पुलिस फोर्स लेकर वहाॅ के दौरे पर पहुॅच गई।

राज्यपाल धनखड़ कब चूकने वाले थे, उन्होंने तुरत -फुरत अपना ‘हिज मास्टर्स वाॅयस’ वाला रिकार्ड चढ़ाया और राज्य सरकार पर इसी आंकड़ेबाजी को लेकर बरस पड़े।

महाराष्ट्र में भी, जहाॅ कोरोना का सबसे ज्यादा प्रभाव है और संक्रमण के आंकड़े खतरनाक स्तर पर पहुॅच चुके हैं, भाजपा चुप नहीं रही। उसने त्रिदलीय गठबंधन सरकार के खिलाफ राज्यव्यापी आंदोलन छेड़ दिया। मुद्दे क्या थे, यह महत्वपूर्ण नहीं था।

खास बात यह थी कि भाजपा ने दावा किया कि उसके ढाई लाख कार्यकर्ताओं ने शुक्रवार को प्रदेश भर में प्रदर्शन किया। मतलब यह कि एक तरफ प्रशासन कोरोना से जूझ रहा था तो दूसरी तरफ भाजपा के प्रदर्शन से। भाजपा ने इस बात की भी परवाह नहीं की कि उसी की केन्द्रीय सरकार के गृह विभाग ने कुछ समय पहले 17 मई को जब लाॅकडाउन की अवधि 31 मई तक बढ़़ाने का ऐलान किया था तब यह भी निर्देश दिया था कि राजनीतिक प्रदर्शनों/ जलसों पर प्रतिबंध रहेगा। उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस और भाजपा दोनों ने एक दूसरे से उलझ कर केन्द्रीय और खुद उत्तर प्रदेश सरकार के दिशानिर्देशों की अवहेलना कर दी। कांग्रेसी नेताओं को बंदी भी बना लिया गया।

मतलब यह कि मजदूर जो देश भर के कई प्रमुख राज्यों से अपने अपने गाॅव पहुॅचने की होड़ में भारी कष्ट उठाते रहे हैं, अपने कानूनी अधिकारों से भी दूर रहेंगे लेकिन राजनीतिक लोग उसमें हमेशा की तरह सराबोर ही रहेंगे, नियम-कानून से कोई वास्ता नहीं रखेंगे। कांग्रेस, जिसका नेतृत्व राजस्थान में मजदूरों और छात्रों को अपने गंतव्यों तक भेजने में डगमगा रहा था, उत्तर प्रदेश में बसें लेकर पहुॅच गई। और यही नहीं भाजपा की सरकार ने उस पर बसों के जरिए राजनीति दौड़ाने के आरोप भी लगा दिए।

वास्तव में एकता की देशवासियों की बेहतरीन मिसाल का ही नेता लोग अनुसरण कर लेते तो कितना अच्छा होता। जैसे मोदी जी ने हैलीकाप्टर में भाजपा के हमदर्द राज्यपाल की जगह उसकी धुर विरोधी मुख्यमंत्री को बगल में बिठाया, ऐसा ही नमूना पेश करते हुए भारतीय जनता पार्टी और उसके नेतृत्व को पूरे देश में विपक्ष को साथ लेकर चलकर दिखाना चाहिए था।

लोगों को लगता कि वे जैसे धैर्य, संयम और अनुशासन कायम रखकर महामारी से लड़ने की सरकारों की अपीलें सुन रहे हैं, उन पर अमल कर रहे हैं, वैसा कोई काम उनकी तरह से नहीं हो रहा जो जिम्मेदारी का लबादा ओढ़कर बैठते हैं।

जैसे सब अखबारों, टेलीविजन और मोबाइल फोनों पर सरकारी विज्ञापन शांतिपूर्व सुन रहे हैं, वैसे ही आचरण से नेताओं को भी तो पेश आना चाहिए था। वरना यदि कोई यह कहे तो क्या गलत होगा, नेताओं के उपदेश दूसरों के लिए हैं, अपने घर के लिए नहीं। त्याग की अपेक्षा मजदूरों से तो की जा रही है, आम जनता से की जा रही है लेकिन उनसे नहीं जो सायरन बजाती गाड़ियों में सवार होकर ‘मेरी बात और है’ की मिसाल पेश कर रहे हैं।

और अंत में, क्या अजब दौर आया है।
जो बीमार है, अकेला रहेगा

और जो अकेला रहेगा, वह बीमार नहीं होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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