दस्तक-विशेषराष्ट्रीय

नुकसानदेह रहा विमुद्रीकरण

8 नवम्बर 2017 को जब प्रधानमंत्री ने 500 और 1000 के नोटों को गैर-काूननी मुद्रा घोषित करते हुए घोषणा की थी कि मध्यरात्रि से ये नोट कागज के टुकड़े रह जाएंगे तब उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि इससे भ्रष्टाचार, जाली मुद्रा, टेरर फंडिग, काला धन समाप्त हो जाएगा। सिर्फ 15 दिन बाद प्रधानमंत्री ने मन की बात में भविष्यवाणी से इतर एक और भविष्यवाणी की जिसमें देश को कैशलेश इकोनॉमी में बदलने का फरमान था। फिर गोवा में प्रधानमंत्री ने जनता से बेहद भावुक होकर 50 दिन मांगे और बताए हुए परिणाम न आने पर किसी भी चौराहे पर दण्डित करने की बात कही। अप्रैल से जून के बीच भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में खासी गिरावट आयी है। पहले इसके 6.6 प्रतिशत का अनुमान था लेकिन अब 5.7 प्रतिशत ही दर्ज की गयी। एक वर्ष पहले की पहली तिमाही में जीडीपी 7.9 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी। यानि एक वर्ष के अंदर जीडीपी में 2.2 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। यदि आर्थिक लिहाज से देखें तो अर्थशास्त्रियों के अनुमान के मुताबिक भारत की जीडीपी में 1 प्रतिशत की गिरावट आने का मतलब होता है अर्थव्यवस्था में 1.5 लाख करोड़ रुपये की कमी आ जाना। चूंकि विमुद्रीकरण से पहले वाली स्थिति से वर्तमान स्थिति में 2.2 प्रतिशत की गिरावट आयी है जिसका तात्पर्य हुआ लगभग 3.3 लाख करोड़ रुपयों की कमी का आ जाना।

 

-डॉ़ रहीस सिंह

जॉर्ज इलियट का एक कथन है -‘‘सभी तरह की भूलों में, भविष्यवाणी करना सबसे ज्यादा गैर-जरूरी है।’’ शायद यही वजह है कि दायित्वों से बंधे लोग भविष्यवाणी करने से बचते रहते हैं। भारत में वैसे भी ऋषियों-मुनियों या देवताओं की तरफ से ही भविष्यवाणी की गयी नेतृत्व की तरफ से नहीं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस बात को नहीं समझ सके इसलिए उन्होंने एक नहीं बल्कि कई भविष्यवाणियां कीं जिनके परिणामों पर सरकार स्वयं ही टिक कर तथ्यात्मक जवाब दे पाने में असमर्थ दिख रही है। इन भविष्यवाणियों में कुछ 8 नवम्बर 2016 के उस निर्णय से भी जुड़ी हैं, जिसे विमुद्रीकरण (डिमॉनीटाइजेशन) नाम दिया गया था।
प्रधानमंत्री का यह निर्णय और इससे जुड़ी भविष्यवाणियां ऐसी थीं, जिसके कारण देश बहुत तकलीफ से गुजरा। लोगों ने श्रद्धापूर्वक या विवशतावश इसे इस उम्मीद से सहा कि जल्द ही कोई बहुत बड़ा लाभ उन्हें और देश को होने वाला है। लेकिन अब स्थिति साफ हो चुकी है कि वे घोषणाएं आधारहीन थीं और वह निर्णय गलत। 8 नवम्बर 2017 को जब प्रधानमंत्री ने 500 और 1000 के नोटों को गैर-काूननी मुद्रा घोषित करते हुए घोषणा की थी कि मध्यरात्रि से ये नोट कागज के टुकड़े रह जाएंगे तब उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि इससे भ्रष्टाचार, जाली मुद्रा, टेरर फंडिग, काला धन समाप्त हो जाएगा। सिर्फ 15 दिन बाद प्रधानमंत्री ने मन की बात में भविष्यवाणी से इतर एक और भविष्यवाणी की जिसमें देश को कैशलेश इकोनॉमी में बदलने का फरमान था। फिर गोवा में प्रधानमंत्री ने जनता से बेहद भावुक होकर 50 दिन मांगे और बताए हुए परिणाम न आने पर किसी भी चौराहे पर दण्डित करने की बात कही। इस बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने नित नए नियम पारित कर अपनी साख को ताख पर रख दिया (शायद रिजर्व बैंक के सम्पूर्ण इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था)। रिजर्व बैंक ने अपनी साख पर बट्टा लगाने वाले इससे भी बड़े-बड़े कुछ और कारनामे भी किए। उसने 28 नवम्बर को ही अपने प्रॉविजनल असेसमेंट में बताया कि 8 लाख 48 हजार करोड़ के पुराने नोट वापस आ चुके हैं फिर 14 दिसम्बर को बताया कि 12 लाख 44 हजार करोड़ नोट वापस आ गये जो कुल नोटों के लगभग 80 प्रतिशत थे। लेकिन इसके बाद 20 प्रतिशत नोटों को गिनने में उसे 8 महीने लग गये। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने संसदीय समिति से जून 2017 में कहा कि नोट गिनने वाली मशीनों के अभाव में अभी गिनती नहीं हो पा रही है। क्या रिजर्व बैंक के अधीन काम करने वाले बैंक अक्षम एवं निकम्मे हैं जिस कारण से रिजर्व बैंक को बैंकों पर भरोसा नहीं था इसलिए गिनती करनी पड़ी या फिर बैंकों ने बिना गिने ही ग्राहकों से नोट ले लिए थे और रिजर्व बैंक को भेज दिए थे ? सामान्य विवेकी व्यक्ति भी यह कह सकता है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर झूठ बोल रहे थे। लेकिन क्यों? और किसके लिए? स्वाभाविक है कि अपने या बैंक के लिए नहीं।
प्रधानमंत्री द्वारा की गयी विमुद्रीकरण की घोषणा के कुछ समय बाद ’फोब्र्स’ के चेयरमैन और एडिटर-इन-चीफ स्टीव फोब्र्स ने अपने संपादकीय में लिखा था कि ग्रह के आबाद होने के वक्त से ही इंसानी फितरत नहीं बदली है। गलत काम करने वाले कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं। आतंकवादी सिर्फ करेंसी बदल देने की वजह से अपनी बुरी हरकतें बंद नहीं कर देंगे, और धन का डिजिटलाइज़ेशन होने में काफी वक्त लगने वाला है, वह भी जब फ्री मार्केट की अनुमति दे दी गयी हो। अभी कर विभाग और भी अधिक हस्तक्षेप करने वाला है जो न ही इस देश के लोगों की स्वतंत्र जीवन शैली के लिए और न भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा होगा। यह बात उस नीति आयोग के अध्यक्ष पनगढ़िया ने भी स्वीकार की थी, जो अब इस्तीफा देकर घर वापसी कर चुके हैं। स्टीव फोब्र्स ने यह भी कहा था कि भारत इस समय नकदी के खिलाफ सरकारों के दिमाग में चढ़ी सनक का सबसे चरम उदाहरण है। वास्तव में सच यही था जिसमें सनक वास्तविकता पर काफी भारी पड़ी।

अब परिणाम सामने आ रहे हैं। ये अंतिम नहीं हैं बल्कि इन्हें आप पहली या दूसरी किस्त के रूप में मान सकते हैं। ध्यान रहे कि अप्रैल से जून के बीच भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में खासी गिरावट आयी है। पहले इसके 6.6 प्रतिशत का अनुमान था लेकिन अब 5.7 प्रतिशत ही दर्ज की गयी। एक वर्ष पहले की पहली तिमाही में जीडीपी 7.9 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी। यानि एक वर्ष के अंदर जीडीपी में 2.2 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। यदि आर्थिक लिहाज से देखें तो अर्थशास्त्रियों के अनुमान के मुताबिक भारत की जीडीपी में 1 प्रतिशत की गिरावट आने का मतलब होता है अर्थव्यवस्था में 1.5 लाख करोड़ रुपये की कमी आ जाना। चूंकि विमुद्रीकरण से पहले वाली स्थिति से वर्तमान स्थिति में 2.2 प्रतिशत की गिरावट आयी है जिसका तात्पर्य हुआ लगभग 3.3 लाख करोड़ रुपयों की कमी का आ जाना। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि निवेश और उत्पादन की सकल मांग में कमी आयी होगी जिसका असर उत्पादन व विनिर्माण के विभिन्न क्षेत्रों पर पड़ा (जिसे आर्थिक समीक्षा के दूसरे भाग सहित तमाम रिपोर्टों में देखा जा सकता है)। विमुद्रीकरण अथवा नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर माइक्रो, लघु एवं मझौली कम्पनियों पर पड़ा। एक आकलन के अनुसार लगभग 2.5 लाख माइक्रो, लघु और मझौली कम्पनियां इसका शिकार हुयीं। यदि प्रति कम्पनी औसतन 50 मजदूर भी मान लिए जाएं तो भी लगभग सवा करोड़ लोग जीविका से वंचित हो गये। असंगठित एवं अनौपचारिक क्षेत्र लगभग टूट गया। इसने ग्रामीण एवं स्थानीय कस्बाई अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। उस समय जब कृषक को बीज व खाद की जरूरत होती है और वे अपने अनाज को बेचकर ही इसे खरीदते हैं। चलन की मुद्रा के अभाव के कारण वे अनाज नहीं बेच पाए और उन्हें कर्ज के बोझ तले दबना पड़ा जिसकी भरपाई सरकारों को कृषकों के आधे-अधूरे कर्ज माफ करके करनी पड़ रही है। ध्यान रहे कि जून तिमाही में कृषि में 2.3 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जो पिछले वर्ष समान तिमाही में 5.2 प्रतिशत थी। यही नहीं नोटबंदी के कारण रिजर्व बैंक की कमाई से सरकार को मिलने वाला लाभांश भी कम हो गया। उल्लेखनीय है कि 2015-16 में भारतीय रिजर्व बैंक ने भारत सरकार को 65.875 करोड़ रुपये लाभांश के रूप में दिए थे जो 2016-17 में घटकर 30,695 करोड़ रुपये ही रह गये। कारण यह रहा कि बैंकों के पास जो अतिरिक्त कैश मनी आयी, वह सही अर्थों में मांग जमा के रूप थी। जिससे बैंक दीर्घकालिक साख का निर्माण नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने इसे भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा कर दिया। रिजर्व बैंक को इस पर ब्याज देना पड़ा।

रही बात कितना काला धन वापस आया या फिर चलन से बाहर होकर निष्प्रयोज्य हो गया अथवा कितने टैक्स पेयर्स बढ़ गये। इस संदर्भ में रिजर्व बैंक, प्रधानमंत्री और आर्थिक सर्वे द्वारा दिए गये आंकड़ों में भारी अंतर है। आर्थिक सर्वे सर्वाधिक विश्वसनीय माना जाएगा क्योंकि इसका आधार दस्तावेजी है तो इसके अनुसार सिर्फ 5.4 लाख रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या बढ़ी है। रही बात काले धन की तो जो भी धन बैंकिंग तंत्र में वापस आ गया है और खाता धारकों के खातों में अंकित हो चुका है, वह तकनीकी तौर पर काला धन नहीं हो सकता। सरकार जो भी चाहे इस विषय पर तर्क या तर्केत्तर परिभाषाएं दे। वर्ष 2016-17 में निवेश में वृद्धि की काफी उम्मीदें की जा रहीं थीं लेकिन नोटबंदी ने इसे भी झटका दिया है। वास्तविकता यह है कि निवेश अब भी नोटबंदी के पहले के स्तर पर नहीं पहुंच पाया है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार अप्रैल-जून के दौरान सकल मूल्य वद्र्धन (जीवीए) में 5.6 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जो 2016-17 की चौथी तिमाही के समान ही है। नोटबंदी के साथ ही जून तिमाही में जीएसटी से पहले कंपनियों द्वारा अपने स्टॉक खाली करने का भी असर पड़ा है। विनिर्माण क्षेत्र को देखें तो यह असर साफ नजर आता है। विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर वित्त वर्ष 2017 की चौथी तिमाही के 5.3 प्रतिशत से घटकर अप्रैल-जून 2017-18 के दौरान 1.2 प्रतिशत रह गई। सकल स्थिर पूंजी सृजन, जिससे मांग का संकेत मिलता है, में 1.6 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है पिछली तिमाही में इसमें 2.1 प्रतिशत की गिरावट आई थी। आरबीआई ने 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट में कहा था कि नोटबंदी के बाद बैंकों की उधारी दर में कमी से दबाव-मुक्त कंपनियों की ओर से निवेश मांग बढ़ाने में मदद मिलेगी। इसके बावजूद निवेश की वृद्धि दर 2016-17 की दूसरी तिमाही में 3 प्रतिशत और पहली तिमाही के 7.4 प्रतिशत के स्तर पर नहीं लौटी हैं।

कुल मिलाकर प्रधानमंत्री ने जब भारत में ‘हेलिकॉप्टर ड्रॉप’ की जरूरत थी ‘रिवर्स हेलिकॉप्टर ड्रॉप’ अथवा ‘हेलिकॉप्टर हूबर’ का प्रयोग किया। प्रधानमंत्री ने ‘गंदे नोटों’ (जिनकी दर 33 प्रतिशत प्रति वर्ष है) की बजाय पहले ‘उजले नोटों’ यानि 500 और 1000 (जिनके लिए गंदे नोटों की दर क्रमश: 22 और 11 प्रतिशत थी) के नोटों को कागज का टुकड़ा बना दिया। दरअसल उन्हें यह मालूम था कि जो नोट गंदे नहीं हुए हैं वे दबे-छिपे हुए रखे हैं जिनकी मात्रा 7.3 लाख करोड़ के आसपास है। लेकिन प्रधानमंत्री का अनुमान गलत निकला। दूसरा यह पक्ष भी समझ से परे निकला कि 1000 का नोट जो केवल 11 प्रतिशत गंदा हुआ, वह संव्यवहार में नही था तो बेशक कालेधन के भंडारण के लिए प्रयुक्त हो रहा था। इसलिए बड़ा नोट चलन से बाहर करने पर काले धन के भंडारण में कमी आएगी लेकिन 2000 का नोट जारी कर सरकार ने अपने ही सिद्धांत को उलट दिया। यही वजह है कि आज अधिकांश अर्थशास्त्री यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि नोटबंदी के पीछे प्रधानमंत्री की मंशा क्या थी और सरकार बता पाने में। 

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