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पुणे में भाजपा का बोलबाला, कभी था कांग्रेस का गढ़…

पेशवाओं की राजधानी पुणे में कभी कांग्रेस की तूती बोलती थी, लेकिन अब 2014 से यहां भाजपा का परचम लहरा रहा है। तब शिवसेना से अलग लड़ने के बावजूद भाजपा ने पुणे शहर की सभी आठ विधानसभा सीटें जीती थीं। लेकिन अब जबकि भाजपा शिवसेना साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं, इसके बावजूद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस के बाद इस पद के दूसरे बड़े दावेदार चंद्रकांत पाटिल को कोथरूड विधानसभा सीट पर खासी नाराजगी झेलनी पड़ रही है।

कांग्रेस को याद आए कलमाड़ी
पाटिल की नैया पार लगेगी या नहीं इसका दारोमदार यहां से निवर्तमान विधायक मेधा कुलकर्णी के रुख पर निर्भर है जिनका टिकट काट कर पाटिल को मैदान में उतारा गया है। उधर अपने गढ़ को खो चुकी कांग्रेस को सुरेश कलमाड़ी बेहद याद आ रहे हैं, जिन्हें कॉमनवेल्थ घोटाले ने राजनीति से बाहर कर दिया था। कोथरूड को लेकर भाजपा कार्यकर्ता भी दबी जबान से कहते हैं कि बाकी सात सीटों पर तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन कोथरुड में हमें ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। दरअसल चंद्रकांत पाटिल कोल्हापुर के रहने वाले हैं। लेकिन पिछले दो साल से वह पुणे शिक्षक मतदाता निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद सदस्य हैं और जिले के प्रभारी मंत्री भी रहे हैं। इसलिए उन्होंने खुद पुणे की कोथरूड विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने का फैसला किया और यहां की लोकप्रिय विधायक मेधा कुलकर्णी का टिकट कट गया। इससे इलाके की ब्राह्मण और मराठा राजनीति गरम हो गई है।

ब्राह्मण मतदाता नाराज
भाजपा के पारंपरिक मतदाता ब्राह्मण नाराज हो गए। ब्राह्मण महासभा से लेकर कई संगठन विरोध में उतर आए। जवाब में मराठा चंद्रकांत पाटिल के पक्ष में खड़े हो गए। मेधा कुलकर्णी ने हालांकि खुलकर विरोध नहीं किया, लेकिन उनके समर्थक खुलकर विरोध में उतर आए। मौका देखकर कांग्रेस एनसीपी ने कोथरूड में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के उम्मीदवार किशोर शिंदे को समर्थन दे दिया। इससे पाटिल मुकाबले में फंस गए। यह देखकर भाजपा के संकट मोचकों ने मेधा कुलकर्णी को पाटिल के प्रचार के लिए मनाया। अब मेधा खुद पाटिल को जिताने के लिए अपील कर रही हैं, लेकिन अभी पाटिल का संकट पूरी तरह टला नहीं है।

कलमाड़ी करते थे हर उम्मीदवार की मदद
पत्रकार नंदिनी पाटिल के मुताबिक जिस तरह पुणे में भाजपा शिवसेना गठबंधन के पक्ष में माहौल है, उससे चंद्रकांत पाटिल जीत तो सकते हैं, लेकिन शायद उनकी बढ़त उतनी न हो पाए जितनी की मेधा कुलकर्णी की थी। उधर कांग्रेस की राजनीति की गाड़ी ही पटरी से उतरी लगती है। लंबे समय तक महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस का एक अहम चेहरा रहे सुरेश कलमाड़ी पुणे के कांग्रेसी छत्रप थे। लेकिन आज पुणे में कोई उनका नाम लेने वाला नहीं है।

कांग्रेसी उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं को कलमाड़ी की कमी खासी खल रही है। कांग्रेस कार्यकर्ता सचिन मोरे कलमाड़ी को याद करते हुए कहते हैं कि सुरेश भाउ भले ही पार्टी में अपनी चलाते थे, लेकिन चुनाव के वक्त वह पार्टी के हर उम्मीदवार की पूरी मदद भी करते थे। लेकिन अब तो कोई पूछने वाला नहीं है।

मुक्ता तिलक लोकमान्य तिलक परिवार की वारिस
पुणे की कज्बा सीट भी खासी दिलचस्प है। यहां भाजपा ने शहर की मेयर मुक्ता तिलक को मैदान में उतारा है। मुक्ता तिलक लोकमान्य तिलक परिवार की वारिस हैं। जबकि उनके मुकाबले मनसे से अजय शिंदे और कांग्रेस से अरविंद शिंदे मैदान में हैं। यहां त्रिकोणात्मक लड़ाई ने मुक्ता की राह और आसान कर दी है। इसी तरह इंदापुर सीट पर भी मुकाबला दिलचस्प है क्योंकि इसे कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है और हर्षवर्धन पाटिल यहां से कांग्रेस के विधायक होते रहे हैं, जो कांग्रेस एनसीपी सरकार में मंत्री भी थे। लेकिन 2014 में जब कांग्रेस एनसीपी अलग-अलग लड़े तो एनसीपी के दत्तात्रेय भरणे ने हर्षवर्धन पाटिल को हरा दिया।

अजित पवार को कड़ी टक्कर
इस बार कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की वजह से सीट एनसीपी के पास चली गई और पाटिल ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा की उम्मीदवारी ले ली। एनसीपी के नेता और शरद पवार के भतीजे अजित पवार यहां दत्ता भरणे को जिताने के लिए पूरी ताकत लगा रहे हैं। हालाकि बारामती में इस बार अजित पवार के सामने भी कठिन चुनौती है। भाजपा के दत्ता पेडलेकर अजित पवार को कड़ी टक्कर दे रहे हैं और भाजपा पवार परिवार के इस दुर्ग को उसी तरह भेदना चाहती है जैसे उसने लोकसभा चुनाव में गांधी परिवार के किले अमेठी को छीना था।

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